चेतावनी है प्रकृति का कोप

सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने को आतुर आज का मनुष्य उनकी बतायी इस लक्ष्मण रेखा को बार-बार लांघ कर प्रकृति को प्रतिकार के कदमों पर मजबूर कर रहा है.

By कृष्ण प्रताप | July 26, 2022 7:46 AM
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मौसम विज्ञान विभाग ने मई के आखिरी दिन इस साल देश में सामान्य से अधिक मानसूनी बारिश की संभावना जतायी थी, तो न सिर्फ किसानों में खुशी की लहर दौड़ गयी थी, बल्कि बंपर पैदावार से महंगाई पर अंकुश की उम्मीदें भी नये सिरे से हरी हो गयी थीं. दीर्घकालिक औसत के 103 प्रतिशत बारिश के अनुमान के साथ यह दावा भी किया गया था कि यह लगातार चौथा साल होगा, जब देश में मानसून सामान्य रहेगा.

लेकिन ये भविष्यवाणियां सही साबित नहीं हुईं और मानसून इतना असामान्य हो गया है कि देश के कुछ राज्य अतिवृष्टि के शिकार होकर भीषण बाढ़ की समस्या से दो-चार हैं, तो अनेक राज्यों में सूखे जैसे हालात पैदा हो गये हैं. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें, तो इसके कोई तीन दर्जन जिले भयंकर सूखे की चपेट में हैं.

खरीफ की फसलों की बुवाई व रोपाई आदि के लिहाज से अति महत्वपूर्ण जुलाई का महीना खत्म होने को है, लेकिन इनमें से कई जिलों में सामान्य की पांच फीसदी बारिश भी नहीं हुई है. सामान्य मानसून की भविष्यवाणी कर चुके मौसम विभाग के ही आंकड़ों के अनुसार कई जिले ऐसे हैं, जहां अभी तक की बारिश से जमीन में हल चलाने लायक नमी भी नहीं आ पायी है.

प्रदेश के ज्यादातर जिलों में बारिश की मात्रा 20 फीसदी का आंकड़ा भी नहीं छू पायी है. नतीजतन अभी तक प्रदेश की कुल खेती योग्य भूमि के चालीस प्रतिशत में भी बुआई नहीं हो पायी है. इसके मद्देनजर प्रदेश के कृषि निदेशालय ने अधिकारियों को अलर्ट जारी कर हालात पर पैनी निगाह रखने को कहा है.

कमजोर मानसून के दूसरे पहलू को देखें, तो समस्या इससे भी ज्यादा विकट और किसी एक फसल तक सीमित न होकर दीर्घकालिक दिखती है. हमारे देश में जिस मानसून को वर्षा ऋतु का अग्रदूत मानकर उसकी समारोहपूर्वक अगवानी की परंपरा रही है और उसके आगमन पर उत्सव मनाये जाते रहे हैं, अपनी संभावनाओं के सारे आकलनों व भविष्यवाणियों को नकारकर वह अब इस कदर कहीं डराने और कहीं तरसाने क्यों लगा है?

जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं, अगर यह जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है, तो क्या इसके लिए हम खुद ही दोषी नहीं हैं? क्या यह प्रकृति के काम में मनुष्य के बेजा दखल के खिलाफ प्रकृति की नाराजगी का संकेत नहीं है और देश के कई राज्यों में बाढ़ के पानी में डूबे गांव-शहर उसकी इस नाराजगी की बानगी नहीं है? गौरतलब है कि प्रकृति की यह नाराजगी मानसून को ही असामान्य नहीं बना रही है.

इसके चलते कहीं भूस्खलन हो रहे हैं, कहीं हिमस्खलन, तो कहीं एक के बाद हो रही बादल फटने की घटनाएं भी लोगों को आतंकित कर रही हैं. हाल में ही अमरनाथ यात्रा के दौरान घटी त्रासदी ने बड़ी मानवीय क्षति की, तो पहाड़ों के दरकने की घटनाएं भी लगातार सामने आ रही हैं. आकाशीय बिजली से मरने वालों का आंकड़ा, क्या उत्तर प्रदेश, क्या बिहार और क्या झारखंड, ज्यादातर राज्यों में बढ़ता जा रहा है.

क्या फिर भी कोई कह सकता है कि अभी यह सवाल पूछने का वक्त नहीं आया है कि प्रकृति का यह रौद्र रूप क्यों सामने आने लगा है या जीवनदायिनी मानसूनी बारिश क्यों जानलेवा सिद्ध होने लगी है? क्यों लोग प्रकृति की रौद्रता के सामने लाचार नजर आ रहे हैं? सच तो यह है कि ये हालात हमें चेता रहे हैं कि उन प्रकृति विरोधी राजनीतिक व आर्थिक फैसलों पर फौरन लगाम लगायें, जो ऐसे कारकों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिनसे धरती का तापमान बढ़ रहा है, यानी जलवायु परिवर्तन गंभीर होता जा रहा है.

इन कारकों में एक हमारी विलासितापूर्ण जीवनशैली भी है. इस शैली के लोभ में हमने विकास के जिस मॉडल को चुना है, उसमें प्रदूषण उगलते कारखाने, सड़कों पर वाहनों के सैलाब, वातानुकूलन की संस्कृति, जंगलों के कटान व पहाड़ों से निर्मम व्यवहार ने ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने और प्रकृति को उकसाने में अहम भूमिका निभायी है. क्या आश्चर्य कि इससे ऋतु चक्र में अप्रत्याशित व अनपेक्षित परिवर्तन हो रहे हैं और हमें विकास के नाम पर पिछले दशकों में प्रकृति से बरती गयी क्रूरता का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है!

महात्मा गांधी कहते थे कि हमारी प्रकृति धरती पर रहने वाले हर व्यक्ति की जरूरतें पूरी कर सकती है, लेकिन वह किसी एक व्यक्ति की हवस के लिए भी कम है. उनका मतलब साफ था कि प्रकृति किसी भी तरह की विलासिता व स्वच्छंदता की, जो हवस का ही एक रूप हैं, इजाजत नहीं देती. लेकिन सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने को आतुर आज का मनुष्य उनकी बतायी इस लक्ष्मण रेखा को बार-बार लांघकर प्रकृति को प्रतिकार के कदमों पर मजबूर कर रहा है.

उसका यह प्रतिकार चेतावनी है कि मनुष्य अभी भी नहीं संभला, तो उसकी आने वाली पीढ़ियों को कहीं ज्यादा भयावह हालात से गुजरना होगा. सवाल है कि अब जब वक्त हाथ से निकल जाने को है, मनुष्य इस चेतावनी को सुनेगा या अपनी राह पर बढ़ते जाने की हिमाकत कर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिमस्खलन, भूस्लखन, वज्रपात और तड़ितपात वगैरह के रूप में प्रकृति के बदले तेवर झेलते हुए अपने जीवन को संकट में डालने को अभिशप्त होगा?

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