हालिया अध्ययनों में पाया गया है कि अभी से लेकर 2027 के बीच वैश्विक तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि सीमा पार कर जाने की आशंका है. इसकी मुख्य वजह अल नीनो जैसे प्राकृतिक कारक और कार्बन उत्सर्जन हैं. ताजा आकलन यह है कि अल नीनो के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को तीन ट्रिलियन डॉलर तक का नुकसान हो सकता है.
अमेरिका के क्लाइमेट प्रेडिक्शन सेंटर के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अल नीनो के प्रभाव से आगामी महीनों में एशियाई देशों में बाढ़, सूखा और पानी के संकट के हालात बन सकते हैं. जुलाई से इसका प्रभाव शुरू होकर नवंबर से जनवरी के बीच चरम पर दिखाई देगा. जापानी मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार इसके व्यापक स्तर तक पहुंचने की 80 फीसदी उम्मीद है, जो खतरे का संकेत है, जबकि कुछ की मान्यता है कि यह 55 फीसदी से अधिक तक बहुत ही शक्तिशाली होगा. अगर इस दौरान बारिश कम होती है, तो मौजूदा जलस्तर घटने से रबी की फसलें प्रभावित होंगी. यह सीजन धान, दलहन, तिलहन, कपास और गन्ने की फसलों के लिए अहम होता है.
केंद्रीय आपदा नियंत्रण समूह ने देश के कई हिस्सों में बेमौसम बारिश और मानसून की अनिश्चितता को देखते हुए सूखे की आशंका के मद्देनजर सभी राज्यों को आकस्मिक योजना को अद्यतन करने तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और समस्त कृषि विश्वविद्यालयों से समन्वय करने का आदेश दे दिया है. कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार, 650 जिलों में मिट्टी और फसलों की विभिन्न किस्मों से संबंधित अलग अलग योजनाएं तैयार हैं, जिन्हें संशोधित किया जा रहा है.
जिलाधिकारियों को निर्देश जारी किये गये हैं कि वे सूखे के सभी संकेतों की सतत निगरानी करते रहें. देश में कुल खेती योग्य जमीन का लगभग 56 फीसदी हिस्सा बारिश पर निर्भर है. जून से सितंबर तक लगभग 73 फीसदी से अधिक बारिश दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से होती है. यह खरीफ की फसल के लिए बेहद जरूरी है. ऐसे में प्रभावी प्रबंधन से सूखे का असर कम किया जा सकता है.
कम पानी में उगायी जाने वाली फसलें बोने की सलाह, तालाबों के निर्माण, नहरों की सफाई, नलकूपों को ठीक करने, खराब नलकूपों की मरम्मत या उन्हें बदलने की सलाह सरकार की सूखे की आशंका को देखते हुए आकस्मिक योजना का ही हिस्सा हैं.
इसके पीछे अहम वजह अल नीनो की आशंका है, जिसका सबसे ज्यादा असर जून से अगस्त तक होने की संभावना है. पिछले नौ साल देश ने अल नीनो का दंश झेला है, जिसमें 2003, 2005, 2009-10, और 2015 से 2016 में देश ने सूखे का सामना किया है. अल नीनो से मानसून में करीब 15 से 18 फीसदी तक गिरावट की आशंका है. इसके प्रभाव से 2016 में पड़ी गर्मी का रिकॉर्ड 2023 में टूट जाने का अंदेशा भी है.
अल नीनो के कारण जब समुद्र के पानी में गर्मी बढ़ती है, तो एशिया की ओर से चलने वाली हवाएं अमेरिका की ओर बढ़ने लगती हैं. हवा में नमी बढ़ने और और अमेरिकी देशों में तापमान कम होने से आसमान में मौजूद भाप बारिश बनकर गिरती है. एशियाई देशों में अल नीनो के चलते आसमान में नमी कम होने से बारिश नहीं होने के कारण सूखे जैसे हालात बन जाते हैं.
हमने 1951 के बाद करीब दस बार अल नीनो के कारण सूखे की भयावहता का सामना किया है. अल नीनो का सर्वाधिक प्रभाव बारिश के पैटर्न पर पड़ता है. इससे पेरू, मैक्सिको, चिली, दक्षिण-पश्चिमी अमेरिका के सूखे और मरुस्थली इलाकों में भारी बारिश, बाढ़ और बर्फबारी हो सकती है, जबकि ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया , उत्तर-पूर्वी अमेरिका और दक्षिणी एशिया यानी भारतीय उप महाद्वीप में सूखे की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. इससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत और ऑस्ट्रेलिया होंगे. समुद्र की सतह में गर्मी बढ़ने से जलीय जीवों पर खतरा मंडरायेगा.
पैदावार में गिरावट का असर हमारी आर्थिक व्यवस्था पर पड़ेगा. तापमान में बढ़ोतरी का नतीजा बारिश के संकट के रूप में सामने आयेगा, जिससे समूची व्यवस्था गड़बड़ हो जायेगी. ऐसे राज्यों, जो पूरी तरह मानसून पर ही निर्भर हैं या जहां सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं है, में यदि अच्छी बारिश नहीं होती है, तो वहां तिलहन, दलहन, कपास, धान और गन्ने की फसलें प्रभावित होंगी.
उस दशा में महंगाई भी बढ़ेगी और इसका असर ग्रामीण मांग पर भी पड़ेगा. कृषि उत्पादन पर इस प्रकार के सूखे का असर निश्चित ही दूरगामी और गंभीर होगा क्योंकि ऐसी आपदाओं के कारण अर्थव्यवस्था, खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था, पर व्यापक प्रभाव होगा.
हाल ही में म्यांमार और बांग्लादेश में आये शक्तिशाली चक्रवात मोचा के दौरान एजेंसियों की पूर्व चेतावनियों तथा स्थानीय सरकार की तैयारियों ने हजारों लोगों की जान बचाने में कामयाबी पायी, वहीं जहां तैयारियों में कमी रह गयी, वहां बड़ी तादाद में लोग हताहत हुए. अभी भी कई लोग लापता हैं. इसलिए सही समय पर बचाव के पर्याप्त उपाय तो किये ही जा सकते हैं. ऐसे में भारत सरकार के इस बाबत किये जा रहे प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए.