अशोक शरण
गांधीवादी चिंतक, ट्रस्टी, सर्व सेवा संघ
sharanashok19@gmail.com
स्वाधीनता संग्राम के दौरान सात अगस्त,1905 को कोलकाता टाउन हॉल में आयोजित एक विराट सभा में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार हेतु एक औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया. यह स्वदेशी आंदोलन बंग भंग के विरोध में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पूरे भारत में चला. उनकी नीतियों की वजह से भारतीय हथकरघा उद्योग नष्ट हो गया था. बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में आरंभ हुए स्वदेशी आंदोलन ने वर्ष 1915 में गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के बाद पुनः जोर पकड़ लिया.
गांव-गांव चरखा और हथकरघा चलने लगे. मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों को भारी नुकसान होने लगा. विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी. गांधीजी का मानना था कि स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग से देश आत्मनिर्भर बनेगा. आजादी के बाद वर्ष 1950 में केंद्र सरकार ने कई हथकरघा उत्पादों को इसी क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया, जिसमें बॉर्डर साड़ी, धोती, बेडशीट आदि पारंपरिक उत्पाद शामिल थे, परंतु विकेंद्रित क्षेत्र में बिजली के करघे बढ़ने लगे, जिससे हथकरघा के अच्छे उत्पाद की नकल होने लगी.
वर्ष 1964 में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त अशोक मेहता समिति ने सुझाव दिया कि साड़ियों का उत्पादन हथकरघा क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया जाए. उच्च अधिकार प्राप्त शिवरामन समिति ने बताया कि प्रत्येक पावरलूम ने छह हथकरघों को बेकार कर दिया है. इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा हुई है. समिति ने कहा कि चूंकि हथकरघा से पूरी उत्पादन प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो सकती, इसलिए इसे कुटीर उद्योग का दर्जा दिया जाए.
इन समितियों की सिफारिशों पर अंततः हथकरघा आरक्षण अधिनियम 1985 अस्तित्व में आया. हथकरघा उद्योग का यह दुर्भाग्य रहा कि विशेष प्रावधानों का लाभ हमेशा पावरलूम क्षेत्र द्वारा भी उठाया जाता रहा है. उदाहरण के लिए हैंक्स यार्न अधिनियम के तहत सभी कताई मिल अपने कुल उत्पादन का 40% हैंक यार्न के रूप में उत्पादन करेंगे. इसके लिए प्रदत सरकारी सब्सिडी का उपयोग पावरलूम उद्योग द्वारा किया गया.
1985 की कपड़ा नीति से एक नैरेटिव यह गढ़ा गया कि कपड़ा उत्पादन को बढ़ाया जाए, जिससे अधिक रोजगार सृजन हो. इस नीति ने बुनकरों के वर्गीकरण को एक सहकारी बुनकर या एक स्वतंत्र बुनकर के स्थान पर ऐसे बुनकरों में तब्दील कर दिया, जो कम मजदूरी कमाने वाले मोटे कपड़े बनाते हैं या बढ़िया कपड़ा बुन कर अधिक मजदूरी कमाते हैं, अर्थात मोटा कपड़ा बुनने वाले बुनकर या तो पावरलूम में स्थानांतरित हो जाएं या पेशे से बाहर हो जाएं. इसमें बाजार का खेल स्पष्ट झलकता है, जो मानता है कि बेहतर मजदूरी वाला बुनकर बचेगा, जबकि अन्य को पलायन करना होगा.
विकास आयुक्त, भारत सरकार के सर्वेक्षण से मालूम होता है कि 1970 के दशक में बुनकर परिवारों की संख्या 1.24 करोड़ से घटकर 1995 में 64 लाख, 2010 में 44 लाख और चौथी हैंडलूम जनगणना में 31.5 लाख रह गयी है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और ग्रामीण रोजगार के उपायों के प्रति उदासीनता तो वजह थी ही, नीतिगत विषयों की भी अनदेखी की गयी.
जैसे हथकरघा उत्पादों की नकल बिजली के करघे से होती रही. ‘हैंडलूम मार्क’ पावरलूम और हैंडलूम के अंतर को और 2013 में आया ‘खादी मार्क’ हैंडलूम और खादी में अंतर स्थापित नहीं कर पाया. पावरलूम ने जैसे हैंडलूम को नुकसान पहुंचाया, वैसे ही हैंडलूम ने खादी को पहुंचाया. इसी प्रकार राज्य प्रायोजित प्रदर्शनियों में हैंडलूम से ज्यादा पावरलूम उत्पादों का बाहुल्य होता है.
यही हाल खादी ग्रामोद्योग आयोग की प्रदर्शनियों का है, जहां सौर ऊर्जा वस्त्र और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के अंतर्गत बने रेडीमेड प्रदर्शित किये जाते हैं. इसके बावजूद भारत के कुल कपड़ा उत्पादन में हथकरघे का लगभग 15% योगदान है, जो ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार देने वाला दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है.
स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए सात अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चेन्नई में ‘हथकरघा दिवस’ की शुरुआत की. सरकार ने वर्ष 2021-22 से 2025-26 तक के लिए ‘राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम’ निर्धारित किया है. इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश, असम, बिहार, बंगाल, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में विशाल हथकरघा क्लस्टर बनाये जायेंगे. सूत खरीदने के लिए 10% सब्सिडी दी जायेगी, मिल दर पर सूत की आपूर्ति होगी.
बुनकर मुद्रा स्कीम के अंतर्गत टर्म लोन और कार्यशील पूंजी के लिए केवल छह प्रतिशत ब्याज पर ऋण दिया जायेगा. बुनकरों का जीवन बीमा करवाया जायेगा. उनके बच्चों के किसी टेक्सटाइल संस्थान में प्रवेश मिलने पर दो लाख रुपये की छात्रवृत्ति दी जायेगी. इन सब के बाद भी यह दुर्भाग्य है कि बुनकर परिवारों की संख्या 1970 के दशक में जहां 1.24 करोड़ थी, वह 2020 तक महज 31.5 लाख रह गयी. पावरलूम और कपड़ा मिलों की लॉबी और पूंजीवादी व्यवस्था से दबे ये बुनकर शहरों की मलिन बस्तियों में पलायन करने के लिए मजबूर हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं)