इस्राइल और ईरान के बीच बढ़ती तनातनी को देखते हुए यह आशंका बहुत बढ़ गयी है कि पश्चिम एशिया में कभी भी बड़ा क्षेत्रीय युद्ध हो सकता है. बीते दिनों ईरान ने इस्राइल पर बड़ी संख्या में मिसाइलें दागी, जिनमें से कई निशाने पर पहुंचने में कामयाब रहीं. अमेरिका भी पूरी तरह से इस्राइल के समर्थन में खड़ा है. इस्राइल के नेताओं ने ईरानी हमले पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है और बदले की कार्रवाई करने की चेतावनी दी है. अगर देखा जाए, तो ईरान के सामने इस हमले के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था. लेबनान में हिज्बुल्लाह को बनाने में ईरान की बड़ी भूमिका रही है. बेरूत में हुए इस्राइली हमलों में हिज्बुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्लाह समेत कई बड़े नेता मारे गये है. वहां ईरानी सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी की भी मौत हुई है. कुछ समय पहले ईरान की राजधानी तेहरान में हमास के प्रमुख इस्माइल हनिये की भी हत्या हुई थी. अब तक ईरान ने संयम रखा था, जिसे ‘रणनीतिक धैर्य’ की संज्ञा दी जाती है. ईरान को यह भी आश्वासन दिया गया कि युद्धविराम की संभावना है, इसलिए वह इस्राइल पर हमला न करे. इसके बाद ईरान ने प्रतीक्षा की, पर इस्राइल के लगातार हमलों के कारण ईरान के भीतर बहुत से लोग आक्रोशित हो रहे थे. यह भी कहा जाने लगा था कि ईरान कमजोर हो गया है और उसके पास जवाबी हमले की क्षमता नहीं बची है. इससे ईरान की साख पर असर पड़ने लगा था.
ऐसे में मुझे लगता है कि ईरान ने हमले कर इस्राइल को यह संदेश देने की कोशिश की है कि उसके पास समुचित सैन्य क्षमता है और वह इस क्षेत्र में सक्रिय विभिन्न संगठनों के साथ अब भी खड़ा है. उन्होंने यह भी कहा है कि इस हमले के साथ बात खत्म हो गयी और उनका बदला पूरा हो गया. लेकिन इस्राइल अब बदला लेने पर आमादा दिख रहा है. अगर वह हमले करता है, तो उसके निशाने क्या होंगे, इसके बारे में कह पाना मुश्किल है. लेबनान और तेहरान में हुए हमलों से यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि ईरान के खुफिया और सुरक्षा तंत्र में इस्राइल बड़ी सेंध लगा चुका है. अंदर से जानकारी मिले बिना इस तरह के हमले कर पाना संभव नहीं होता. इस कारण ईरान के नेतृत्व के मन में भी आशंकाएं हैं कि कहीं इस्राइल नेताओं को निशाना बनाने में कामयाब न हो जाए या रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमले न कर दे. अभी तक यह सुनने में आ रहा है कि अगर इस्राइल हमले करता है, तो वह परमाणु संयंत्रों, तेल डिपो आदि को निशाना बना सकता है. लेकिन यदि इस्राइल हमले करते है, तो युद्ध के आग के भड़कने की आशंका बहुत बढ़ जायेगी क्योंकि फिर ईरान भी जवाबी हमले करने के लिए बाध्य हो जायेगा.
बीते अप्रैल में जब ईरान ने इस्राइल मिसाइलों और ड्रोनों से हमला किया था, तब उसकी जानकारी पहले से ही दे दी गयी थी. वे हमले मुख्य रूप से सांकेतिक थे. अगर हालिया हमला भी उसी तर्ज पर है, तब तो लड़ाई आगे नहीं बढ़ेगी, पर यह बहुत कुछ इस्राइल की प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगा. उसके पास अमेरिका का समर्थन तो है ही, किंतु अमेरिकी नेतृत्व इस समय ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को काबू में कर सके. इसीलिए मेरा मानना है कि इस्राइल जिस तरह के हमले करेगा, उसी से आगे की स्थिति निर्धारित होगी. भारत ने पश्चिम एशिया की बिगड़ती हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है तथा सभी पक्षों से संयम बरतने और लड़ाई को आगे न बढ़ाने का आह्वान किया है. भारत का हमेशा से यह मानना रहा है कि युद्ध से विवादों का समाधान नहीं हो सकता तथा संवाद और कूटनीति की राह अख्तियार करनी चाहिए. भारत द्वि-राष्ट्र समाधान की पैरोकारी करता है. ईरान और इस्राइल दोनों ही भारत के महत्वपूर्ण भागीदार हैं और इनके साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे हैं. यदि लड़ाई का विस्तार होता है, तो भारत पर उसका अनेक कारणों से बड़ा असर होगा.
अगर पश्चिम एशिया में बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ जाता है, तो भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात होगी उस क्षेत्र में कार्यरत 95 लाख भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करना. प्रभावित क्षेत्रों से उन्हें बाहर निकालना एक बड़ी चुनौती होगी. यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह लड़ाई एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहेगी, समूचा पश्चिम एशिया इसके दायरे में होगा. इसीलिए सभी देश चाहते हैं कि युद्ध न हो. दूसरी बड़ी चिंता की बात है कि पश्चिम एशिया से तेल और गैस की आपूर्ति बाधित हो सकती है. हम अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए आयात पर निर्भर हैं और अधिकांश उसी इलाके से आता है. अभी ही तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं. पश्चिम एशियाई देश निवेश के भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं. वह भी प्रभावित हो सकता है. वह क्षेत्र आयात-निर्यात का प्रमुख रास्ता है. लाल सागर में यमन के हूथियों की पाबंदी के बाद वैश्विक व्यापार बाधित हुआ है. बड़ी लड़ाई की स्थिति में उधर के सामुद्रिक मार्ग भी बंद हो सकते हैं और हवाई यातायात भी प्रभावित होगी. इन सबका असर पूरी दुनिया पर होगा, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव होगा.
दुर्भाग्य से, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वार्ताओं का असर होता नहीं दिख रहा है. शायद लेबनान में युद्धविराम हो जाए क्योंकि हिज्बुल्लाह के शीर्ष नेतृत्व को खत्म करने के बाद इस्राइल भी अपनी कार्रवाई रोक दे. हालांकि बातचीत शुरू हो चुकी है, पर गाजा और लेबनान में इस्राइली हमले जारी हैं. उसने सीरिया और यमन में भी कुछ हमले किये हैं. यदि युद्धविराम नहीं होता है, तो स्वाभाविक रूप से युद्ध के तमाम मोर्चे खुल जायेंगे. फ्रांस और कुछ देशों ने युद्धविराम के संबंध में वही बातें कही हैं, जो भारत भी कह रहा है, लेकिन कोई इन बातों को सुनने वाला भी तो होना चाहिए! इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने न तो घरेलू असंतोष की चिंता की है और अंतरराष्ट्रीय आह्वानों की परवाह की है. लेकिन यह भी सच है कि अंतत: शांति ही वास्तव में एकमात्र सुरक्षा है. गाजा में मानवीय संकट पर भी हर ओर से चिंता जतायी जा रही है. इस्राइल ने तो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को ही अपने यहां आने से प्रतिबंधित कर दिया है. मेरा मानना है कि ये सब घटनाक्रम अच्छे संकेत नहीं हैं. यह भी अफसोसनाक है कि आज विश्व व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं बची है, पर यह आवश्यक है कि किसी तरह पश्चिम एशिया के संकट को टाला जाए. वर्तमान स्थिति में यह उम्मीद करना भी मुश्किल ही है कि उस क्षेत्र में शांति बहाली होगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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युद्ध के कगार पर पश्चिम एशिया
भारत ने पश्चिम एशिया की बिगड़ती हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है तथा सभी पक्षों से संयम बरतने और लड़ाई को आगे न बढ़ाने का आह्वान किया है. भारत का हमेशा से यह मानना रहा है कि युद्ध से विवादों का समाधान नहीं हो सकता तथा संवाद और कूटनीति की राह अख्तियार करनी चाहिए. भारत द्वि-राष्ट्र समाधान की पैरोकारी करता है. ईरान और इस्राइल दोनों ही भारत के महत्वपूर्ण भागीदार हैं और इनके साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे हैं. यदि लड़ाई का विस्तार होता है, तो भारत पर उसका बड़ा असर होगा.
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