कामयाब रही ममता की चुनावी रणनीति

भाजपा की जीत जहां उसके लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनावों के अलावा 2024 के लोकसभा चुनाव में संभावनाओं की नयी राह खोल सकती थी, वहीं ममता की जीत के बाद अब उनके विपक्ष का सबसे प्रमुख चेहरा बनने की संभावना बढ़ गयी है.

By प्रभाकर मणि | May 3, 2021 9:29 AM

महिला मतदाताओं का समर्थन, जंगलमहल के अलावा कांग्रेस का गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों में बेहतर प्रदर्शन तथा अपने मजबूत गढ़ को बचाने में कामयाबी की वजह से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी है. भाजपा ने इस चुनाव में अपने तमाम संसाधन झोंक दिये थे, लेकिन उसे नतीजों से झटका लगा है.

हालांकि वह 2016 की तीन सीटों के मुकाबले इतनी सीटें पाकर शानदार प्रदर्शन का दावा कर सकती है और इस कामयाबी में कोई संदेह भी नहीं है, लेकिन 2019 के आंकड़ों के लिहाज से उसका प्रदर्शन खराब रहा है. पार्टी ने दो सौ सीटें जीतने की जो रणनीति बनायी थी, उसके पीछे 2019 लोकसभा चुनाव का वह आंकड़ा ही था, जिसमें उसे 121 सीटों पर बढ़त मिली थी.

भाजपा ने जिस तरह बहुत पहले से यहां सत्ता हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकी थी, उससे कई बार भ्रम होता था कि शायद ममता बनर्जी के हाथों से सत्ता निकल जायेगी. पूरी केंद्र सरकार के अलावा पार्टी के कई मुख्यमंत्रियों की ओर से बड़े पैमाने पर चलाये गये चुनाव अभियान के दौरान ऐसा माहौल बना था कि कई राजनीतिक विश्लेषकों को भी पार्टी सत्ता पर काबिज होते नजर आ रही थी. भाजपा ने शुरुआती दौर से ही धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के अलावा जातिगत पहचान की राजनीति (मतुआ और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति) और भ्रष्टाचार का अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था.

लेकिन ये मुद्दे उसे सत्ता दिलाने में नाकाम रहे हैं. एक वाक्य में कहा जाए, तो बांग्ला अस्मिता के मुकाबले भाजपा के हिंदुत्व का मुद्दा बेअसर साबित हुआ है. तृणमूल कांग्रेस ने जंगलमहल इलाके के अलावा हुगली जिले में बेहतर प्रदर्शन किया है, जिसे भाजपा अपना गढ़ समझ रही थी. भाजपा ने तूफान के दौरान राहत सामग्री में भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाये थे, उनका दक्षिण 24-परगना जिले की सीटों, जो तृणमूल का गढ़ मानी जाती हैं, पर खास असर नहीं दिखा.

इसी तरह सिंडीकेट और तोलाबाजी यानी उगाही जैसे मुद्दे हों या फिर अपने भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी के संरक्षण के आरोप, आम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा है. तमाम योजनाओं की वजह से महिलाओं का भी समर्थन ममता को मिला है. देश की अकेली महिला मुख्यमंत्री होना भी इसकी एक वजह रहा. वे आम लोगों तक यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि एक अकेली महिला पर प्रधानमंत्री से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्री और नेता चौतरफा हमले कर रहे हैं तथा भारी रकम खर्च की जा रही है.

प्रधानमंत्री मोदी ‘दीदी ओ दीदी’ कह कर अपनी रैलियों में जिस तरह ममता की खिल्ली उड़ाते रहे, उसे उन्होंने अपने पक्ष में बेहतर तरीके से भुनाया. परचा दाखिल करने के दिन ही नंदीग्राम में पांव में चोट लगना और व्हीलचेयर के सहारे पूरा प्रचार चलाना भी ममता के पक्ष में गया. उन्होंने भाजपा पर बाहरी होने के जो आरोप लगातार लगाये, उसका भी वोटरों पर असर पड़ा.

ममता बनर्जी आठ चरणों में चुनाव कराने से लेकर तमाम पुलिस अधिकारियों के तबादले तक चुनाव आयोग को जिस तरह लगातार कठघरे में खड़ा करती रहीं, उसका भी उनको फायदा मिला. खासकर आखिरी तीन-चार चरणों में जब राज्य में तेजी से कोरोना संक्रमण बढ़ा, तब भी ममता ने इसके लिए आयोग को जिम्मेदार ठहराया और बाकी चरणों के चुनाव एक साथ कराने की मांग उठाती रहीं. इससे विपत्ति में आम लोगों के साथ खड़े होने की उनकी छवि मजबूत हुई.

इस चुनाव में भाजपा का सबसे बड़ा कार्ड था हिंदुत्व और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण. लेकिन उसकी काट के लिए जिस तरह ममता चुनावी रैलियों में चंडीपाठ करती रही और खुद को हिंदू और ब्राह्मण की बेटी बताती रहीं, उसका उनको फायदा मिला. भाजपा लगातार ममता पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप लगाती रही है. तृणमूल कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोट तो एकमुश्त मिले ही, हिंदू वोटरों के बड़े तबके ने भी उसका समर्थन किया. मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों के नतीजों से साफ है कि उन दोनो अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में पारंपरिक रूप से कांग्रेस और लेफ्ट के वोट भी तृणमूल के खाते में गये.

ममता ने पार्टी का घोषणापत्र जारी करने के मौके पर लेफ्ट के वोटरों से तृणमूल का समर्थन करने की अपील की थी. बीते लोकसभा चुनाव में जिस जंगलमहल इलाके में उनको भाजपा ने झटका दिया था, वहां भी पूर्व माओवादी नेता छत्रधर महतो का पार्टी में शामिल करने की उनकी रणनीति कामयाब रही. इलाके में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है. ममता की सबसे बड़ी कामयाबी रही स्थानीय भाषा में आम लोगों से जुड़ना.

भाजपा के तमाम नेता जहां हिंदी में भाषण देते रहे, वहीं ममता बांग्ला बोल कर उनको करीब खींचने में कामयाब रहीं. प्रदेश भाजपा के पास ममता की कद-काठी का नेता नहीं होने और मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा सामने नहीं होने का खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा है.

राजनीतिक हलकों में यह तो पहले ही माना जा रहा था कि पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजों का असर दूरगामी होगा. भाजपा की जीत जहां उसके लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनावों के अलावा 2024 के लोकसभा चुनाव में संभावनाओं की नयी राह खोल सकती थी, वहीं ममता की जीत के बाद अब उनके विपक्ष का सबसे प्रमुख चेहरा बनने की संभावना बढ़ गयी है.

इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान लेफ्ट, कांग्रेस और इंडियन सेक्युलर फ्रंट वाले संयुक्त मोर्चा गठबंधन को हुआ है. अगर 2016 से तुलना करें, तो बंगाल की राजनीति में लेफ्ट और कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया है. भाजपा को भी अल्पसंख्यक वोटों में सेंधमारी की उम्मीद थी. लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. पर यह बात भी सही है कि भाजपा एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरी है और उसने बंगाल की राजनीति का स्वरूप तो बदल ही दिया है.

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