हिंदी विरोध से कब मुक्त होंगे

गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह हिंदी के पक्ष में खड़े हुए हैं, हिंदी भाषियों को राजनीति से ऊपर उठ कर उनका समर्थन करना चाहिए.

By Ashutosh Chaturvedi | April 11, 2022 7:23 AM

देश में एक बार फिर हिंदी को लेकर बहस छिड़ गयी है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि राजभाषा को देश की एकता का एक महत्वपूर्ण अंग बनाने का समय आ गया है. जब अन्य भाषा बोलनेवाले राज्यों के लोग आपस में संवाद करते हैं, तो यह भारत की भाषा में होना चाहिए, न कि अंग्रेजी में. संसदीय राजभाषा समिति की बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.

अमित शाह ने हिंदीभाषियों को यह भी संदेश दिया कि जब तक हम अन्य स्थानीय भाषाओं के शब्दों को स्वीकार कर हिंदी को सर्वग्राही नहीं बनाते हैं, तब तक इसका प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकेगा. गृह मंत्री ने राजभाषा समिति को सुझाव दिया कि हिंदी शब्दकोश को संशोधित और परिमार्जित करने का समय आ गया है. उन्होंने जानकारी दी कि केंद्रीय कैबिनेट का 70 फीसदी मसौदा अब हिंदी में तैयार किया जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में 22 हजार हिंदी शिक्षकों की भर्ती हुई है और नौ आदिवासी समुदायों ने भी अपनी बोलियों की लिपियों को बदला है.

गृह मंत्री अमित शाह का हिंदी को लेकर दिया गया सुझाव विपक्षी नेताओं को पसंद नहीं आया. उन्होंने इसे भारत के बहुलवाद पर हमला बताया और कहा कि वे हिंदी साम्राज्यवाद को लागू करने के कदम को विफल कर देंगे. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने ट्वीट किया कि हिंदी राजभाषा है, न कि राष्ट्रभाषा, जैसा कि राजनाथ सिंह ने संसद में गृह मंत्री रहते हुए कहा था.

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता सिद्धारमैया ने ट्वीट किया कि एक कन्नड़ के रूप में वे आधिकारिक भाषा को लेकर गृह मंत्री की टिप्पणी का कड़ा विरोध करते हैं. हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है और हम इसे कभी नहीं होने देंगे. उन्होंने भाजपा पर गैर-हिंदी भाषी राज्यों के खिलाफ ‘सांस्कृतिक आतंकवाद’ के अपने एजेंडे को शुरू करने की कोशिश करने का आरोप लगाया.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा कि हिंदी पर अमित शाह का जोर भारत की अखंडता और बहुलवाद के खिलाफ है. यह देश की अखंडता को बर्बाद कर देगा. तृणमूल कांग्रेस ने कहा कि हम हिंदी का सम्मान करते हैं, लेकिन हम हिंदी थोपने का विरोध करते हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता सौगत राय ने कहा कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी तब तक नहीं थोपी जायेगी, जब तक वे इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगे.

गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह हिंदी के पक्ष में खड़े हुए हैं, हिंदी भाषियों को राजनीति से ऊपर उठ कर उनका समर्थन करना चाहिए. यह सही है कि भारत अनेक भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है तथा हमें उनका आदर करना चाहिए. लेकिन पूरे देश में एक ऐसी भाषा का होना बेहद जरूरी है, जो दुनिया में उसकी पहचान बने. हिंदी लगभग 40 फीसदी भारतीयों की मातृभाषा है.

अंग्रेजी और मंदारिन के बाद हिंदी तीसरी सबसे बड़ी भाषा है. लेकिन यह राष्ट्रभाषा नहीं है. इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है. राजभाषा वह भाषा होती है, जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है. हम सब जानते हैं कि नौकरशाहों की भाषा अंग्रेजी है. राजकाज की भाषा हिंदी होते हुए भी हिंदी भाषी राज्यों में भी ज्यादातर सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही होता है.

यदि हिंदी को जन-जन की भाषा बनाना है, तो उस पर सार्थक विमर्श करना होगा. सबसे पहले तो हिंदी पट्टी के लोगों को अपनी भाषा पर गर्व का भाव होना चाहिए. यह जान लीजिए कि सरकारी प्रयासों से हिंदी का भला होने वाला नहीं है. मेरा मानना है कि हमारे कथित हिंदी प्रेमियों और सरकारी हिंदी ने हिंदी को भारी नुकसान पहुंचाया है. आम बोलचाल की हिंदी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी का दुराग्रह आप करेंगे, तो आप हिंदी को ही नुकसान पहुंचायेंगे.

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की ओर से हर साल यह घोषणा होती है कि वे अंग्रेजी में विभिन्न भाषाओं से कौन-कौन से शब्द शामिल कर रहे हैं. हिंदी के ‘लूट’ से लेकर ‘गुरु’ शब्द तक आज अंग्रेजी भाषा का हिस्सा हैं. इससे भाषा समृद्ध होती है, कमजोर नहीं होती है. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि अगर हिंदी का ऐसा शब्द उपलब्ध है, जिससे बात स्पष्ट हो जाती है, तो बेवजह अंग्रेजी का शब्द इस्तेमाल करना उचित नहीं है. हिंदी में अद्भुत माधुर्य है.

मुहावरे और लोकोक्तियां उसे और समृद्ध करते हैं. उदाहरण के तौर पर जैसे हिंदी को मान लिया गया है कि यह घर की मुर्गी है, दाल बराबर है. हम अंग्रेजी का दुराग्रह पाले हुए हैं. अपने बच्चों से हिंदी के साहित्यकारों का नाम पूछ कर देख लीजिए. मेरा दावा है कि 90 फीसदी नहीं बता पायेंगे और जो बाकी 10 फीसदी होंगे, उनमें से अधिकतर प्रेमचंद से आगे नहीं बढ़ पायेंगे. इसमें उनका दोष नहीं है. हमने उन्हें अपनी भाषा पर गर्व करना नहीं सिखाया है, उनका सही मार्गदर्शन नहीं किया है.

यह सर्वविदित है कि तमिलनाडु का हिंदी से बैर पुराना है. राज्य के नेता त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदी को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं रहे हैं. तमिल राजनीति में हिंदी का विरोध 1937 के दौरान शुरू हुआ था और यह आजादी के बाद भी जारी रहा. सी राजगोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया, तब भी भारी विरोध हुआ था. तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्ना दुरई ने तो हिंदी नामों के साइन बोर्ड हटाने को लेकर आंदोलन ही छेड़ दिया था, जिसमें डीएमके नेता दिवंगत एम करुणानिधि भी शामिल रहे थे.

यह तर्क समझ से परे है कि हिंदी सीखने से तमिल भाषा समाप्त हो जायेगी. लेकिन यह बात भी सही है कि उत्तर भारतीय लोगों ने दक्षिण भारतीयों को जानने-समझने की बहुत कोशिश नहीं की है. जब से आईटी की पढ़ाई और नौकरी के लिए हिंदी भाषी राज्यों के हजारों बच्चे और कामगार दक्षिण जाने लगे.

तब से उन्हें दक्षिणी राज्यों की जानकारी बढ़ी है. आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल का भेद और उनकी भाषाओं की जानकारी अधिकतर हिंदी भाषियों को नहीं थी. मैंने पाया कि अब भी जो हिंदी भाषी दक्षिणी राज्यों में रहते हैं, उनमें वहां की भाषा सीखने की ललक नहीं है. चूंकि देश की राजनीति अधिकांश: उत्तर भारत से संचालित होती है, इसलिए उनमें श्रेष्ठता का एक भाव है. हिंदी भाषियों के लिए भी संदेश है कि अपनी भाषा पर गर्व करिए और सर्वग्राही बनिए.

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