आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
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उत्तर प्रदेश से बेहद चिंताजनक खबर आयी है. यूपी बोर्ड की हाइस्कूल और इंटर की परीक्षा में लगभग आठ लाख विद्यार्थी अनिवार्य विषय हिंदी में फेल हो गये हैं. चूंकि यह खबर देश के सबसे बड़ी हिंदी भाषी आबादी वाले राज्य से आयी है, इसलिए विचलित करती है. इस साल 10वीं में सर्वाधिक 5.27 लाख परीक्षार्थी हिंदी में फेल हुए हैं, जबकि 12वीं के 2.70 परीक्षार्थी हिंदी में फेल हो गये. 10वीं में प्रारंभिक हिंदी यानी सरल हिंदी का पेपर होता है, उसमें भी लगभग सवा पांच लाख छात्रों का फेल होना चिंता की बात है. बात यहीं तक नहीं रुकी है. बोर्ड के अधिकारियों के हवाले से जो खबरें आयीं हैं, उनके अनुसार लगभग 2.39 लाख छात्र हिंदी के अनिवार्य पेपर में अनुपस्थित रहे. हालांकि ऐसी भी खबरें आयीं हैं कि पिछले वर्ष की तुलना में हिंदी में फेल होने वाले छात्रों की संख्या में कुछ कमी आयी है.
बहरहाल, जिस राज्य में बोलचाल व लिखने-पढ़ने की भाषा केवल हिंदी हो, वहां से ऐसी खबर का आना चिंता जगाती है. इस पर सरकार, शिक्षा जगत से जुड़े लोगों और हिंदी के विद्वानों को तत्काल ध्यान देने की जरूरत है, पर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. जिस दिन बोर्ड के नतीजे आये, उस दिन जरूर टीवी चैनलों पर यह खबर चली, लेकिन इस विषय पर कोई गंभीर विमर्श होता नजर नहीं आ रहा है, जबकि यूपी बोर्ड के नतीजे सीधे-सीधे हिंदी के भविष्य पर सवाल उठा रहे हैं. 10वीं बोर्ड में अन्य विषयों के परिणामों पर नजर डालने से स्थिति और स्पष्ट हो जाती है.
अंग्रेजी के परिणाम देख लीजिए- अंग्रेजी में 80.51, विज्ञान में 80.40, सामाजिक विज्ञान में 82.64, कंप्यूटर में 89.70, वाणिज्य में 80.37 और गृह विज्ञान में 89.18 फीसदी विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हैं. संस्कृत की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं रही है. उसमें 62.50 फीसदी छात्र पास हुए हैं और 37.5 फीसदी फेल हो गये हैं. ये आंकड़े इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों में हिंदी के प्रति अनुराग नहीं रह गया है. ऐसे तर्क दिये जाते हैं कि अंग्रेजी पढ़ने से नौकरी की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. मैं अंग्रेजी पढ़ने-पढ़ाने के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन अपनी मातृभाषा में ही फेल हो जाएं, यह भी स्वीकार्य नहीं है. उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां हिंदी की जड़ें बहुत गहरी रही हैं.
हिंदी विद्वानों के नाम लेना शुरू कीजिए, तो आप पायेंगे कि यह सूची अंतहीन है. कुछेक नाम जो स्मरण आ रहे हैं, जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महावीर प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हजारी प्रसाद द्विवेदी. और बाद की पीढ़ी में उपेंद्र नाथ अश्क, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, श्रीलाल शुक्ल, काशीनाथ सिंह जैसे हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों की अंतहीन सूची है, जिनका संबंध उत्तर प्रदेश से रहा है और जिन्होंने हिंदी के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
हिंदी भारत के लगभग 40 फीसदी लोगों की मातृभाषा है. अंग्रेजी, मंदारिन और स्पेनिश के बाद हिंदी दुनियाभर में बोली जाने वाली चौथी सबसे बड़ी भाषा है. इसे राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है. राजभाषा वह भाषा होती है, जिसमें सरकारी कामकाज किया जाता है, लेकिन हम सब जानते हैं कि लुटियंस दिल्ली की भाषा अंग्रेजी है और जो हिंदी भाषी हैं भी, वे अंग्रेजीदां दिखने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं. गुलामी के दौर में अंग्रेजी प्रभु वर्ग की भाषा थी और हिंदी गुलामों की.
यह ग्रंथि आज भी देश में बरकरार है. अपनी भाषा को लेकर जो गर्व हमें होना चाहिए, उसकी हम हिंदी भाषियों में बहुत कमी है. हमें अंग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अंग्रेजियत दिखाने में बड़प्पन नजर आता है. अगर आसपास नजर दौड़ाएं, तो हम पायेंगे कि हमारे नेता, लेखक और बुद्धिजीवी हिंदी की दुहाई तो बहुत देते हैं, लेकिन जब बच्चों की पढ़ाई की बात आती है, तो वे अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों को ही चुनते हैं. कई लोग दलील देते मिल जायेंगे कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, जबकि रूस, जर्मनी, फ्रांस और जापान जैसे देशों ने यह साबित कर दिया है कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान के अध्ययन में कोई कठिनाई नहीं आती है.
हम हर साल 14 सितंबर को देशभर में हिंदी दिवस मनाते हैं. इस अवसर पर एक ही तरह की बातें की जाती हैं कि हिंदी ने ये झंडे गाड़े, बस थोड़ी-सी कमी रह गयी है इत्यादि, लेकिन इस मौके पर हिंदी के समक्ष चुनौतियों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता है. यह चर्चा भी नहीं होती कि सरकारी हिंदी ने हिंदी का कितना नुकसान पहुंचाया है. अगर सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाए, तो हिंदी का बंटाधार होने से कोई नहीं रोक सकता है. रही सही कसर गूगल अनुवाद ने पूरी कर दी है. इसमें अर्थ का अनर्थ होता है. कई संस्थानों में यही चला भी दिया जाता है.
किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. शिक्षा के मामले में आज हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं.
यही वजह है कि बिहार और झारखंड के छात्र बड़ी संख्या में पढ़ने के लिए दक्षिणी राज्यों में जाते हैं. कारण स्पष्ट है कि हिंदी पट्टी के राज्यों ने शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है. हम जानते हैं कि मौजूदा दौर में बच्चों को पढ़ाना कोई आसान काम नहीं रहा है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक, ये शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है. शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक हैं.
यह सही है कि मौजूदा दौर में यह कार्य दुष्कर होता जा रहा है. परिस्थितियां बदल रही हैं, युवाओं में भारी परिवर्तन आ रहा है. मौजूदा दौर में शिक्षक का छात्रों के साथ पहले जैसा रिश्ता भी नहीं रहा है, पर इतनी बड़ी संख्या में छात्रों का हिंदी में फेल हो जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि गुरुओं ने अपना दायित्व सही से नहीं निभाया है. इस जिम्मेदारी से उप्र के हिंदी शिक्षक बच नहीं सकते हैं.
जाने माने कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘मेरी भाषा के लोग’ की कुछ पंक्तियां हैं-
पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग/ एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस/ हवा में गायब हो गयी
और मेरे पास बच गयी सिर्फ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास/ हर मुश्किल में.