नदियों को बचाना चुनावी मुद्दा क्यों नहीं
बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे को झेल रही नदियों और उससे मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर चर्चा होनी आवश्यक है.
कृष्ण प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
पहले चुनावों में आम आदमी के रोटी, कपड़ा और मकान कहें या उनके जीवन निर्वाह से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चाएं होती थीं. पार्टियां और प्रत्याशी अपना नजरिया व नीतियां समझाते नहीं थकते थे. अपीलें की जाती थीं कि बूथों पर मतदाता किसी के बहकावे में न आयें और मुद्दों के आधार पर ही वोट दें. लेकिन अब चुनाव में ऐसे मुद्दों को हाशिये पर डालकर बहकाने वाले मुद्दे उछाले जाते हैं. सारी बहस उन्हीं के इर्द-गिर्द होती है, ताकि मतदाताओं की जातियां व धर्म आगे आ जायें. उनके कौआरोर में किये जाने वाले इमोशनल अत्याचार से वे इतने त्रस्त हो जायें कि ‘अपनी जाति’ और ‘अपने धर्म’ से आगे सोच ही न सकें.
फिर उन्हीं के आधार पर सरकार चुन लें और फुरसत से पश्चाताप करते रहें. इस बार विधानसभा चुनावों में भी यही दिख रहा है. पंजाब में पीने के पानी के जहरीले होने की समस्या चुनाव में मुद्दा नहीं बन पायी. पंजाब में दूषित पाने से लोग कैंसर का शिकार हो रहे हैं. हरित क्रांति लाने की कोशिशों के दौरान अत्यधिक अनाज उगाने के लिए अपनायी गयी कृषि पद्धति का यह दुष्परिणाम है. रासायनिक उर्वरकों पर अधिक निर्भरता के चलते आनाज और पेयजल दोनों दूषित हो गये हैं.
पंजाब में विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके हैं और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी चार चरण संपन्न हो चुके हैं. इन चुनावों में नदियों का प्रदूषण न सत्तापक्ष के लिए कोई मुद्दा है, न ही विपक्षी दलों के लिए. नदियां न केवल प्यास बुझाती हैं, बल्कि आजीविका का माध्यम भी हैं. पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल के स्तर को बनाये रखने में भी नदियों का बड़ा योगदान है. आज जो नदियां गंदगी ढोने को अभिशापित हैं, वे अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आयी हैं. बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे को झेल रही नदियों और उससे मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर चर्चा होनी आवश्यक है.
इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी के एक शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामोल, निकोटिन, कैफीन, मिर्गी और मधुमेह की दवाएं भी खतरा बनती जा रही हैं. यह समस्या किसी एक देश में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है. अमेरिका की प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की इस शोध की रिपोर्ट में इसे पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के लिए घातक बताया गया है. शोधकर्ताओं ने 104 देशों में नदियों की 1,052 जगहों से पानी के नमूने एकत्रित किये. पानी में सक्रिय 61 दवाओं के अंशों (एपीआई) का परीक्षण किया, तो पाया कि दवा निर्माण संयंत्रों से निकले दूषित जल, बिना उपचार के ही नदियों में पहुंच रहे हैं.
जिन देशों में आधुनिक दवाओं का इस्तेमाल कम होता है या दूषित जल का उपचार ढांचा बेहतर है, वहां नदियां अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं. दवाओं से नदी जल प्रदूषण गंभीर समस्या है, क्योंकि ज्यादातर देशों में दवा उद्योग से निकले प्रदूषित जल के निपटान के कानून बने तो हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है. भारत में इसे लेकर न सरकारें सजग हैं और न ही लोग इतने जागरूक हैं कि सरकारों पर दबाव बना सकें. राजनीतिक दल चुनावों में भी इन समस्याओं को चर्चा में नहीं लाना चाहते. ऐसे में उनकी वास्तविक मंशा समझने के लिए और कौन से तथ्यों की जरूरत है?
कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाये जा रहे रसायन, उर्वरक और भूमि कटाव के साथ दवाओं में प्रयुक्त हो रहे रसायन का भी नदी जल को दूषित करने वाले कारकों में शामिल होना आवश्यक है. जलवायु में हो रहे बदलाव में नदियां ही धरती पर जीवन का आधार हैं और उनमें बहता पानी मनुष्य की सांस की सीमा भी तय करता है. हिमालय के उद्गम स्थल से समुद्र में समाने तक हजारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान नदियों को जो सैकड़ों मानवीय, कायदे से कहें तो अमानवीय, अत्याचार झेलने पड़ते हैं, उनसे उन्हें निजात नहीं मिली तो अब न वे खुद को बचा पायेंगी और न ही मानवजीवन की रक्षा में अपनी भूमिका निभा पायेंगी.
जब सीवर और उद्योगों का केमिकलयुक्त कचरा नदियों में जहर घोल रहा है. सिविल सोसाइटी को यह समझने की जरूरत है कि इससे नदियों के जलीय जीवों का जीवन ही नहीं, मनुष्य का जीवन भी खतरे में पड़ेगा, इसलिए इसका हर संभव प्रतिकार आज और अभी से शुरू करने की जरूरत है. सिविल सोसायटी ने अभी भी इसके लिए सत्तातंत्र पर दबाव नहीं बनाया और सब कुछ राजनीतिक दलों व सरकारों की इच्छा और मंशा पर ही छोड़े रखा, तो कौन कह सकता है कि हालात वैसे ही नहीं होंगे, जैसे गंगा की सफाई के मामले में हुए है?
एक अनुमान के अनुसार, आजादी के बाद से अब तक गंगा की सफाई के नाम पर 22 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किये जा चुके हैं. अप्रैल, 2011 में गंगा सफाई की सात हजार करोड़ की एक योजना बनायी गयी थी. इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया था. सरकार बदली तो ‘नमामि गंगे’ का भी कुछ कम जोर नहीं रहा, लेकिन न तो गंगा में पानी की मात्रा ही अपेक्षित स्तर तक बढ़ी और न ही प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी आ पायी है. ऐसे में सवाल बड़ा हो जाता है कि ऐसे कर्तव्यहीनता के जोखिम को हम आगे और कितने वक्त तक उठा पायेंगे?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)