भुलाये नहीं भूलेगा मैक्सवेल का यह जज्बा
मैक्सवेल जानते थे कि एक बार तारतम्यता टूट गयी, फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा. इस कारण उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा को अपनी हिम्मत पर हावी नहीं होने दिया. पैरों का साथ नहीं देने पर उन्होंने दौड़कर रन लेना लगभग बंद ही कर दिया. खड़े-खड़े ही चौके और छक्के लगाकर लक्ष्य की तरफ बढ़ते रहे.
मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज ग्लेन मैक्सवेल की असहनीय दर्द से भी हिम्मत नहीं टूटने वाली तस्वीर क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में सालों-साल बनी रहेगी. क्रिकेट से जुड़े हर शख्स का कहना है कि उसने अपने जीवनकाल में ऐसी पारी नहीं देखी. इस संबंध में वीवीएस लक्ष्मण का ट्वीट बेहद खास है, उन्होंने कहा कि ‘इस पारी ने कभी हार न मानने की सीख दी है.’ यह सही भी है, क्योंकि खिलाड़ी कई बार चोटिल होने के बाद न तो सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं, न ही चेष्टा करते नजर आते हैं. वनडे क्रिकेट में टीम को मुश्किल हालात से निकालने वाली कई पारियां दर्ज हैं. इसमें 1983 के विश्व कप में कपिलदेव की नाबाद 175 रनों की पारी को शुमार कर सकते हैं. परंतु पैरों का साथ नहीं मिलने पर भी मैक्सवेल जैसी पारी इससे पहले कभी नहीं देखी गयी है. मैक्सवेल ने 128 गेंदों में 21 चौकों, 10 छक्कों की सहायता से नाबाद 201 रन की पारी खेली.
क्रिकेट प्रेमियों ने मैक्सवेल को अफगानिस्तान के जबड़े से जीत निकालते देखा. कौन सोच सकता था कि इंग्लैंड, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसी टीमों को फतह करने वाली अफगानिस्तान द्वारा 292 रन का लक्ष्य रखने और ऑस्ट्रेलिया के 91 रन पर सात विकेट निकल जाने के बाद भी वह जीत से वंचित रह जायेगी. शायद ऐसा होता भी नहीं, यदि मैक्सवेल का 33 रन के व्यक्तिगत स्कोर पर मुजीब उर रहमान द्वारा आसान सा कैच नहीं टपकाया गया होता. इस कैच के गिरने से ही संभवत: अफगानिस्तान ने पहली बार आईसीसी विश्वकप के सेमीफाइनल में स्थान बनाने का मौका खो दिया है. इससे पहले वह जिस तरह से एलबीडब्ल्यू के फैसले से बचे, उससे यह कहावत सच साबित हो गयी कि किस्मत भी हिम्मत वालों का साथ देती है.
अफगानिस्तान के लिए इब्राहिम जादरान पहला शतक जमाने वाले बल्लेबाज बने, पर अफगानिस्तान इसका जश्न तक नहीं मना सकी. असल में मैच से एक दिन पहले ही अफगानिस्तान की टीम ने सचिन तेंदुलकर से मुलाकात की थी. जादरान ने शतक लगाने के बाद कहा भी कि सचिन से मिलकर मुझे बहुत आत्मविश्वास मिला, उनकी बातों ने मुझे प्रेरित किया और मैं विश्व कप में शतक लगाने वाला पहला अफगान खिलाड़ी बन गया. अफगानिस्तान ने यदि यह मैच जीत लिया होता, तो मैच के हीरो जादरान होते. पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था. उसे तो मैक्सवेल को हीरो बनाना था.
मैक्सवेल ने मैच में 21 ओवरों तक अफगानिस्तान का पंजा कसा रहने के बाद नियंत्रित आक्रामकता के साथ खेलना शुरू किया. वह धीरे-धीरे टीम को मंजिल की तरफ बढ़ाते दिखे. लेकिन तभी 34वें ओवर में हैमस्ट्रिंग और कमर दर्द से उन्हें असहनीय पीड़ा होने लगी. वह एकाध बार मैदान पर गिरे भी. पर वह जानते थे कि वह ही टीम की नैया पार लगा सकते हैं. इसलिए बार-बार मेडिकल टाइम आउट लेकर अपने को मैच में खड़ा रखने लायक बनाये रहे. एक बार तो लगा भी कि अगले बल्लेबाज जैम्पा को बुलाया जा सकता है. लेकिन मैक्सवेल जानते थे कि एक बार तारतम्यता टूट गयी, फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा. इस कारण उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा को अपनी हिम्मत पर हावी नहीं होने दिया. पैरों का साथ नहीं देने पर उन्होंने दौड़कर रन लेना लगभग बंद ही कर दिया.
आमतौर पर शॉट खेलने के लिए फुटवर्क का इस्तेमाल करना होता है, पर मैक्सवेल खड़े-खड़े ही चौके और छक्के लगाकर लक्ष्य की तरफ बढ़ते रहे. मैक्सवेल ने इस पारी के दौरान जज्बे के अलावा अपने दिमाग का भी अच्छा इस्तेमाल किया. वह कई बार बड़े स्कोर की तरफ बढ़ते समय जोखिम भरे रिवर्स लेप्स, स्विच हिट और स्लॉग स्वीप जैसे शॉट खेलते आउट होते रहे हैं. लेकिन इस पारी के दौरान स्थिति की अहमियत को समझते हुए इन शॉटों से परहेज रखा. मैक्सवेल के साथ आठवें विकेट की 202 रन की अटूट साझेदारी में कप्तान पैट कमिंस ने भले ही 12 रनों का योगदान किया, पर वह जिस तरह से साथ देने के लिए विकेट पर डटे रहे, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है. यह सही है कि मैच के हीरो मैक्सवेल थे, पर बिना कमिंस के योगदान के ऑस्ट्रेलिया जीत तक नहीं पहुंच सकती थी. मैक्सवेल ने अपनी इस दिलेर पारी से ऑस्ट्रेलिया को सेमीफाइनल में पहुंचाने के साथ ढेरों रिकॉर्ड भी बनाये हैं. पर इन रिकॉर्डों से ऊपर टीम को जीत दिलाना है. उनका यह प्रयास भुलाये नहीं भूलेगा.
यह सही है कि मैक्सवेल के प्रयासों से ऑस्ट्रेलिया की नैया पार लग गयी. पर प्रश्न है कि किसी खिलाड़ी के इतनी बुरी स्थिति में पहुंचने पर उसकी सहायता के लिए क्या कोई प्रावधान आइसीसी को नहीं करना चाहिए. पहले बल्लेबाज के चोटिल होने पर रनर का प्रावधान था. लेकिन तमाम खिलाड़ी इस नियम का बेजा फायदा उठाने लगे थे, जिसकी वजह से आइसीसी ने वर्ष 2011 में इस नियम को खत्म कर दिया. रनर के नियम का बेजा इस्तेमाल रोकना जरूरी था, पर मैक्सवेल जैसी स्थिति में बल्लेबाज के पहुंचने और उस टीम के लिए मैच का परिणाम भी जरूरी हो, तो उसे संकट से निकालने का कोई तरीका निकालना ही चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)