इन दिनों एक प्रसिद्ध धर्मगुरु अपने उस एक वक्तव्य को लेकर चर्चा में हैं, जहां वे कहते हैं कि ‘एक ब्याहता की दो पहचान होती है- मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र. मांग में सिंदूर न भरा हो और गले में मंगलसूत्र न हो, तो हमलोग समझते हैं, कि यह प्लॉट अभी खाली है. जबकि मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र हो, तो हमलोग समझ जाते हैं कि रजिस्ट्री हो चुकी है.’ इन धर्मगुरु ने जो कुछ भी कहा है, वह हमारे समाज में मूल रूप से आकंठ बैठी हुई वही पितृसत्तात्मक सोच है, जो स्त्री के अस्तित्व को पुरुष के बगैर किसी भी रूप में देखने को तैयार नहीं होती है.
जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय संस्कृति अर्धनारीश्वर वाद पर आधारित है. भारतीय परंपरा की सबसे सुखद संकल्पना, सबसे सुखद अनुभूति यह है कि यहां स्त्री-पुरुष दोनों को एक-दूसरे का संपूरक माना गया है. दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना अधूरा है. यदि एक स्त्री के विवाहित होने पर गौरव की अनुभूति की बात समाज करता है, यदि स्त्री के विवाहित होने पर स्त्री के मर्यादित अनुभूति की बात समाज करता है, तो उतनी ही मर्यादा का प्रश्न पुरुष के साथ भी जुड़ा होगा.
सिंदूर, मंगलसूत्र, यकीनन भारतीय संस्कृति को दूसरी संस्कृति से अलग करते हैं और गौरव की बात है कि ये एक विवाहित स्त्री की पहचान हैं. परंतु, जिस रूप में इसे अभिव्यक्त किया गया है, वह दुखद है. रजिस्ट्री का मतलब ही हुआ कि स्त्री किसी की संपत्ति हो गयी और भारतीय परंपरा में कभी भी इस तरह की भावना परिलक्षित नहीं होती है. भारतीय परंपरा में स्त्री शक्ति, देवी, जन्मदात्री और अमेयविक्रमा (मां दुर्गा का वह रूप जो कभी पराजित नहीं होता) रही है. परंतु, कभी भी भूमि नहीं रही है, जिसकी रजिस्ट्री करवायी जाए, जिस पर कोई अपना दावा सिद्ध करे.
इस तरह की मानसिकता के पीछे पितृसत्तात्मक समाज की बहुत गहरी पैठ है. वह पितृसत्तात्मक समाज, जो स्त्री को सिर्फ और सिर्फ दासत्व के रूप में देखता है. वह मानसिकता अर्धनारीश्वर की बात नहीं करती. वह स्त्री को पुरुष के साथ जोड़कर संपूर्णता की बात नहीं करती. वह निरंतर इस बात को नहीं उठाती कि यदि पुरुष को अपनी पत्नी का साथ नहीं मिलेगा, तो वह पूर्णत: अधूरा है. वह निरंतर सिर्फ इस बात को उठाती है कि यदि स्त्री ने अपने विवाहित जीवन में परिपूर्णता हासिल नहीं की तो उसका जीवन नगण्य है, उसका अस्तित्व अधूरा है.
यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि लगभग हर धर्मगुरु के पास एक करिश्माई शक्ति होती है, जिससे वो भीड़ को मंत्रमुग्ध करते हैं. उस मंत्रमुग्धता में स्वयं स्त्री भी इस बात से परिचित नहीं हो पाती है कि जो कहा जा रहा है, वह उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहा है, उसका अहित कर रहा है, या उसके सम्मान को बढ़ा रहा है. यह एक प्रकार का हिप्नोटिज्म है.
इस तरह की बातों से भारत की अस्मिता को ठेस पहुंचेगी. ऐसे में स्त्री को सम्मान दिलाने के लिए जितने भी धर्मगुरु हैं, उनका महत्वपूर्ण दायित्व है कि वे भारतीय परंपरा को आम जन तक पहुंचाएं कि स्त्री संपत्ति नहीं है, वह शक्ति है, अपने पति के जीवन की धुरी है, क्योंकि धर्मगुरुओं ने भारतीय परंपरा का प्रवाह जन-जन में प्रवाहित करने का दायित्व अपने ऊपर लिया है. यहां जिन व्यक्तित्व की चर्चा हो रही है, वे भी भारत के एक स्थापित धर्मगुरु हैं और उन्होंने भी सनातनी परंपरा को स्थापित करने का दायित्व लिया है.
इसलिए चर्चा का विषय यह नहीं है कि उन्होंने अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिए किन शक्तियों का प्रयोग किया, चर्चा का विषय यह है कि उनके द्वारा उच्चारित हर शब्द, एक आम व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता है, वह उसके सोचने-समझने की शक्ति, उसकी जीवनचर्या और उसके भविष्य को प्रभावित करता है. वह अपने परिवार में उसी तरह की परंपरा और नियमों का पालन करने के लिए उत्साहित और उत्सर्ग होता है.
ऐसे में धर्मगुरुओं का कर्तव्य बनता है कि वे उन वृतांतों को उल्लेखित करें, उन शब्दों को उच्चारित करें जो भारतीय परंपरा के अनुकूल हैं. उन्हें उन परंपराओं को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है, जहां भगवान श्रीराम को उनकी धर्मपत्नी सीता के बिना यज्ञ करने की भी अनुमति नहीं थी. जहां पत्नी के सम्मान पर चोट पहुंचने पर शिव भगवान तांडव कर देते हैं. ऐसी परंपराओं को उल्लेखित करने से लोगों के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है.
मजाक में भी कदापि उन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो भारतीय परंपरा के विपरीत हों. भारतीय परंपरा सदैव स्त्री को शक्ति रूप में, देवी के रूप में देखती है और देवी के नाम की कभी रजिस्ट्री नहीं हो सकती. भारत ही नहीं, अपितु विश्वभर को इस बात का भान होना आवश्यक है कि भारत वह धरा है जहां शिव-शक्ति की आराधना करते समय प्रथम पार्वती का नाम- ‘ऊं नम: पार्वती पतये, हर-हर महादेव:’ लिया जाता है. तो भारतीय परंपरा में स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक और एक-दूसरे के नाम से जाने जाते हैं. इसलिए कोई भी वाक्यांश उच्चारित करने से पूर्व या वक्तव्य देने से पूर्व यह विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि हंसी-ठिठोली में भी कही गयी बात भारत की महिमा, भारत की प्रतिष्ठा को हानि न पहुंचाए.