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महिला सुरक्षा सुनिश्चित करना जरूरी

Women safety : पांच वर्षों की प्रतीक्षा के बाद जस्टिस हेमा आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक की गयी है. जस्टिस के हेमा की अध्यक्षता में इस आयोग को 2018 में गठित किया था. इस आयोग को मलयालम सिनेमा उद्योग में यौन शोषण और उत्पीड़न की स्थिति के बारे में अध्ययन करना था.

Women safety : स्त्रियों की सुरक्षा और इससे संबद्ध मुद्दों पर दुनियाभर में विचार-विमर्श होता रहा है. फिर भी यौन शोषण के मामलों में हर साल चिंताजनक बढ़ोतरी हो रही है. हम यह कहते रहते हैं कि हम आधुनिक युग में हैं, जहां महिलाएं तमाम बंदिशों को तोड़ कर आसानी से अपने लक्ष्यों को हासिल कर सकती हैं. लेकिन जमीनी हकीकत रौशनी और रंगों से बहुत अलग है. कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी दर कमतर बनी हुई है तथा कार्यस्थलों पर उनकी समुचित सुरक्षा नहीं हो पा रही है. इस संबंध में ढेरों रिपोर्ट हैं, जो इंगित करती हैं कि सुरक्षा का बड़ा अभाव है. मलयालम सिनेमा उद्योग में यौन शोषण, उत्पीड़न, ताकत का दुरुपयोग आदि के बारे में आ रही रिपोर्टों से पता चलता है कि ग्लैमर और राजनीति के पीछे बड़ा अंधेरा है. पांच वर्षों की प्रतीक्षा के बाद जस्टिस हेमा आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक की गयी है. जस्टिस के हेमा की अध्यक्षता में इस आयोग को 2018 में गठित किया था. इस आयोग को मलयालम सिनेमा उद्योग में यौन शोषण और उत्पीड़न की स्थिति के बारे में अध्ययन करना था.

इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद सिनेमा उद्योग से जुड़ीं अनेक महिलाओं ने यौन और अन्य प्रकार के शोषण एवं उत्पीड़न के अपने अनुभवों को साझा किया है. जिन लोगों पर आरोप लगे हैं, उनमें केवल अभिनेता और निर्देशक ही नहीं, बल्कि राजनीति और अन्य क्षेत्रों के बड़े नाम भी हैं. इस प्रकरण ने मनोरंजन उद्योग के साथ-साथ हर तरह के कार्यस्थलों में महिलाओं की स्थिति के बारे में चिंताओं को फिर एक बार केंद्र में लाया है. केरल और देशभर में जिस तरह से विरोध जताया गया है, उससे पता चलता है कि समाज में इन मसलों पर जागरूकता बढ़ रही है. इस प्रकरण से उत्पन्न महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए. यह तो इस व्यापक समस्या का एक छोटा हिस्सा है, जो हमें दिख रहा है. सबसे पहले यह प्रकरण सरकारी आयोगों और रिपोर्टों के बारे में सवाल रेखांकित करता है, जो रहस्यों से घिरी होती हैं. ऐसी रिपोर्टों और सरकार की नीति-निर्धारण प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना आवश्यक है. पारदर्शी उपायों के अभाव तथा अवरोधों को लेकर लोगों में रोष बढ़ता जा रहा है. ऐसे मामलों में कार्रवाई में देरी से लोगों का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है. इस प्रकरण में राज्य की साम्यवादी सरकार का पाखंड सामने आ गया है. ऐसा लगता है कि सरकार आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रही है. हर मामले में पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की मांग करने वाला बौद्धिक वर्ग इस मुद्दे पर शांत बैठा हुआ है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो इस प्रकरण को उतना महत्व नहीं दिया गया है, जितना वास्तव में दिया जाना चाहिए.


दूसरी बात, यह मुद्दा केवल मलयालम सिनेमा उद्योग तक सीमित नहीं है. महिला सुरक्षा का मसला सभी मनोरंजन उद्योगों और कार्यस्थलों से जुड़ा हुआ है. ‘वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव’ की प्रशंसा की जानी चाहिए कि इस समूह ने पहल की और रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए वह लगातार प्रयासरत रहा. साल 2017 में एक अभिनेत्री पार्ट हुए हमले के बाद इस समूह का गठन हुआ था. उसी हमले के बाद जस्टिस हेमा कमीशन को भी गठित किया गया था. शोषण केवल अभिनेत्रियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सिनेमा उद्योग के कनिष्ठ कलाकार और विभिन्न कर्मी भी शोषण और उत्पीड़न के खतरे के साये में जीते हैं. लोगों को समुचित मेहनताना न देना और बहुत अधिक काम कराने का तथ्य यह इंगित करता है कि इस उद्योग को चिंताजनक तरीके से संचालित किया जा रहा है. काम दिलाने के बहाने महिलाओं का शोषण करना न केवल उनकी प्रतिभा और मेहनत पर हमला है, बल्कि यह उनके सम्मान पर भी चोट है. अभी तक सरकार का रवैया टालमटोल का रहा है. समय की मांग है कि सरकार पीड़ितों के समर्थन में आगे आये और कार्यस्थलों के लिए ऐसे नियम बनाये, जिससे ऐसी घटनाओं को रोका जा सके. तीसरी अहम बात यह है कि हमें हर तरह के उत्पीड़न के विरुद्ध एकजुट होना चाहिए. शोषण करना, दबाव बनाना जैसी हरकतों को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. कोई अभद्र टिप्पणी या बेजा स्पर्श को भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. देर से ही सही, केरल सरकार द्वारा विशेष जांच दल का गठन करना स्वागतयोग्य है, पर यह पर्याप्त नहीं है.


मलयालम सिनेमा उद्योग अपनी प्रगतिशील प्रकृति और विषयों के लिए समूची दुनिया में प्रतिष्ठित है, लेकिन ऐसी गंभीर और गहरे तक जड़ जमा चुकीं समस्याओं का होना उसकी छवि एक भद्दा दाग है. निश्चित रूप से दोष सिद्ध होने तक आरोपियों को निर्दोष माना जाना चाहिए, लेकिन सरकार को न्याय की राह में बाधा नहीं बनना चाहिए. यदि झूठे आरोप लगाये गये हैं, तो यह और जरूरी हो जाता है कि सरकार ठोस रुख अपनाये तथा कानूनी कार्रवाई करे ताकि जल्दी न्याय हो सके और सच सामने आ सके. एक बात तो स्पष्ट है कि कार्यस्थलों पर महिलाओं को भी उतना ही सुरक्षित अनुभव करना चाहिए, जितना कि पुरुष अनुभव करते हैं. यदि हम चाहते हैं कि कार्यबल में महिलाओं की बराबर भागीदारी हो, तो संगठनों और सरकार को मिलजुल कर कड़े कानून और सुरक्षा नीतियों की लागू करना चाहिए. इस संबंध में कानूनी प्रावधान हैं, पर सबसे अधिक आवश्यक यह है कि सभी कामगारों के लिए एक समावेशी और सम्मानजनक संस्कृति विकसित हो. यह केवल कर्मियों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने के माध्यम से ही हो सकता है. यही एकमात्र तरीका है, जिससे ऐसी संस्कृति बने, जहां महिलाएं बिना किसी संकोच या भय के अपने विचार रख सकें और सम्मान से रह सकें.
एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नारी शक्ति अभियान चला रहे हैं, जिसके तहत नारी-संचालित विकास को विकसित भारत की ओर बढ़ने की एक मुख्य शक्ति के रूप में देखा जा रहा है, वहीं केरल का यह प्रकरण इंगित करता है कि व्यवस्था में बहुत समस्याएं हैं और उसमें एक प्रतिरोध है, जो परिवर्तित नहीं होना चाहता है. स्त्री अधिकार और भय एवं शोषण से मुक्त होकर कार्य करने की स्वतंत्रता सामाजिक आदर्श भर नहीं हैं, बल्कि बुनियादी आवश्यकताएं हैं. कोलकाता की भयावह घटना तथा मलयालम सिनेमा उद्योग के प्रकरण से हमारी आंखें खुल जानी चाहिए. सरकार को उच्च आदर्शों पर चलना चाहिए, न कि पार्टी और सदस्यों की सेवा करनी चाहिए. कार्यस्थलों पर महिलाओं के बारे में नये सिरे से सोचने की जरूरत है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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