गरीबी की मार और पेट की आग से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से 1879 में एग्रीमेंट के तहत फिजी पहुंचे गिरमिटिया लोगों ने शायद ही सोचा होगा कि एक दिन इसी देश में उस हिंदी की ऐसी गूंज सुनायी देगी, जिसे तब गुलामों की जुबान माना जाता था. लिखित रूप से रामचरित मानस का गुटका संस्करण और हनुमान चालीसा एवं स्मृति में अपने लोक के गीतों व कथाओं को लेकर पहुंचे उन उखड़े लोगों ने अपनी मेहनत के दम पर फिजी को खड़ा किया, तो अपनी संस्कृति को भी बचाये रखा. उस संस्कृति की वाहक हिंदी बनी. उसी हिंदी का वैश्विक तीन दिवसीय कार्यक्रम फिजी में आज शुरू हो रहा है, जो 17 फरवरी तक चलेगा.
विश्व हिंदी सम्मेलन को फिजी सरकार तथा भारतीय विदेश मंत्रालय संयुक्त रूप से आयोजित कर रहे हैं. इस सम्मेलन का उद्घाटन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर द्वारा हो रहा है. यह आयोजन फिजी के नाडी शहर में हो रहा है. उल्लेखनीय है कि सम्मेलन के शुभंकर का चयन एक प्रतिस्पर्धा के तहत किया गया है. चयनित शुभंकर की परिकल्पना मुंबई के मुन्ना कुशवाहा ने की है.
इतिहास के पन्नों में 1975 का साल आपातकाल के काले अध्याय के लिए आम तौर पर याद किया जाता है. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसी साल हिंदी को वैश्विक तौर पर स्थापित करने के लिए एक बड़ा काम भी किया था. इसी साल 10 से 14 जनवरी को भारत सरकार और वर्धा की राष्ट्रभाषा समिति ने मिलकर पहला विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया था.
उस सम्मेलन का ठोस उद्देश्य था- हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाना. तब से लेकर हर चार वर्ष के अंतराल पर लगातार इसका आयोजन हो रहा है. भारत में यह सम्मेलन तीन बार- नागपुर में 1975 में, दिल्ली में 1983 में तथा भोपाल में 2015 में- आयोजित किया जा चुका है. इसी तरह तीन बार मॉरीशस में होने के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, त्रिनिदाद और सूरीनाम में भी एक-एक सम्मेलन किये जा चुके हैं. फिजी प्रशांत क्षेत्र में इस सम्मेलन का आयोजन करने वाला पहला देश है.
सम्मेलन के घोषित उद्देश्य के तहत हिंदी अब तक संयुक्त राष्ट्र की भाषा तो नहीं बन सकी, लेकिन वह वैश्विक स्तर पर समादृत जरूर हो रही है. संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा न बन सकने की वजह उस विश्व संस्था का वह नियम है, जिसके तहत किसी भाषा को आधिकारिक बनने के लिए महासभा के दो-तिहाई सदस्य देशों का न सिर्फ समर्थन होना चाहिए, बल्कि उस पर होने वाले खर्च में भी उनकी हिस्सेदारी होनी चाहिए. चूंकि दुनिया के ज्यादातर देश छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इसलिए वे हिंदी का सहयोग करने से किनारा कर लेते हैं.
ऐसी स्थिति में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनने के लिए जरूरी समर्थन नहीं मिल पाता. लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय इस संबंध में निरंतर प्रयासरत है. कुछ समय पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने बताया था कि संयुक्त राष्ट्र के महत्वपूर्ण घटक यूनेस्को द्वारा प्रकाशनों, सोशल मीडिया आदि में हिंदी का प्रयोग होता है.
रही बात हिंदी की वैश्विक स्वीकृति की, तो उसमें विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन की बजाय उपभोक्तावाद और मौजूदा आर्थिकी के तहत घर-घर में घुस चुके बाजार की भूमिका कहीं ज्यादा है. इस सम्मेलन की भूमिका अगर कुछ है, तो वह यह कि इसके बहाने दुनियाभर के हिंदी प्रेमी एक मंच पर मिलते हैं और हिंदी की समस्याओं एवं सरोकारों को लेकर चर्चा करते हैं. यह तय है कि दुनिया और भारत से अपने खर्चों पर शामिल हुए लोग जरूर हिंदी के लिए खपते रहे हैं तथा हिंदी को वैश्विक चुनौतियों के बरक्स तैयार करने के लिए प्रयासरत रहते हैं.
विश्व हिंदी सम्मेलन का यह हासिल मान सकते हैं कि इसकी वजह से हिंदी-प्रेमियों के जरिये दुनिया की इस तीसरी बड़ी भाषा के उत्थान के लिए माहौल जरूर बनता है. वह आगामी चुनौतियों के लिए तैयार होती है, अपने लिए नया वितान रचती है. पीढ़ियों पूर्व भारत छोड़ चुके लोगों के स्व को पहचानने का जरिया भी बनता है विश्व हिंदी सम्मेलन. अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों को तरोताजा करने का माध्यम भी ये सम्मेलन बनते हैं.
इसी बहाने प्रवासी भारतीय अपने इतिहास और जड़ों से भी जुड़ते हैं. निश्चित ही इस बार के सम्मेलन से फिजी के भारतवंशी भी कुछ ऐसे ही नॉस्टैल्जिक गौरव बोध से भरने जा रहे हैं. विश्व हिंदी सम्मेलन इसके साथ ही 48 वर्षों की यात्रा पूरी कर लेगा. ऐसे में जरूरी है कि करीब आधी सदी की इस यात्रा का लेखा-जोखा हो.