नीति आयोग द्वारा जारी जल प्रबंधन सूचकांक से जाहिर है कि देश का विकास कहीं बाधित होगा, तो वह होगा पानी की भीषण कमी से. भारत की 84 फीसदी ग्रामीण आबादी जलापूर्ति से वंचित है तथा जो पानी उपलब्ध भी है, तो उसमें सात प्रतिशत दूषित है. इसके विपरीत देश की जल कुंडली देखें, तो सभी ग्रह-नक्षत्र ठीक-ठाक घरों में ही बैठे दिखते हैं.
हमारी सालाना जल उपलब्धता 1869 अरब घन मीटर है और इसमें 1123 अरब घन मीटर इस्तेमाल योग्य है. लेकिन इन आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं, तो पानी की बेतरतीब बर्बादी, गैरजरूरी इस्तेमाल, असमान वितरण जैसे भयावह तथ्य सामने आते हैं, जो सारी कुंडली पर राहु के साये के मानिंद हैं. पानी के सही इस्तेमाल पर कड़ाई से नजर रखने के लिए ‘वाटर फुट प्रिंट’ यानी जल पद चिह्न का निर्धारण महत्वपूर्ण व निर्णायक हो सकता है. दुर्भाग्य है कि इस बारे में हमारे नीति निर्धारक व आम लोग बहुत कम जागरूक हैं.
देश में इस बात पर खुशी है कि चीन ने गैर बासमती चावल को भारत से मंगवाने की अनुमति दे दी है. हम भले ही इसे व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे असल में चीन का जल-प्रबंधन है. सनद रहे, मिस्र दुनिया का ऐसा दूसरा सबसे बड़ा देश है, जो सबसे ज्यादा गेहूं आयात करता है. जो चीन सारी दुनिया के गली-मुहल्लों तक अपने सामान के साथ कब्जा किये हुए है, वह आखिर भारत व अन्य देशों से चावल क्यों मंगवा रहा है?
असल में इन दोनों देशों ने ऐसी सभी खेती को नियंत्रित कर दिया है, जिसमें पानी की मांग ज्यादा होती है. भारत ने बीते सालों में लाखों टन बासमती चावल विभिन्न देशों को बेचा, पर हमने केवल चावल बेच कर कुछ धन नहीं कमाया, उसके साथ एक खरब लीटर पानी भी उन देशों को दे दिया, जो इतना चावल उगाने में खर्च हुआ था.
हम एक किलो गेहूं उगाने में 1700 लीटर और एक कप कॉफी के लिए 140 लीटर पानी का व्यय करते हैं. एक किलो बीफ उत्पादन में 17 हजार लीटर पानी खर्च होता है तथा 100 ग्राम चॉकलेट के लिए 1712 लीटर व 40 ग्राम चीनी के लिए 72 लीटर पानी व्यय होता है.
भारत में दुनिया के कुल पानी का चार फीसदी है, जबकि आबादी 16 प्रतिशत है. हमारे यहां जींस की एक पैंट के लिए कपास उगाने से लेकर रंगने, धोने आदि में 10 हजार लीटर पानी उड़ा दिया जाता है, जबकि समझदार देशों में यह मात्रा बमुश्किल पांच सौ लीटर होती है. तभी हमारे देश का जल पद चिह्न सूचकांक 980 क्यूबिक मीटर है, जबकि इसका वैश्विक औसत 1243 क्यूबिक मीटर है.
नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में भी पानी के लिए बुरे हालात का मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया गया है. बढ़ती आबादी, उसका पेट भरने के लिए विस्तृत होती खेती व पशुपालन, औद्योगिकीकरण आदि के चलते साल दर साल पानी की उपलब्धता कम हो रही है. साल 1951 में हमारे यहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए औसतन 14,180 लीटर पानी उपलब्ध था, पर 2001 में यह आंकड़ा 1608 पर आ गया और अनुमान है
कि 2025 तक यह महज 1340 रह जायेगा. भले ही कुछ लोग बोतलबंद पानी पी कर खुद को निरापद समझते हों, लेकिन यह जान लें कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार में पांच लीटर पानी बर्बाद होता है. यह केवल बड़े कारखानों में ही नहीं, बल्कि घर-घर में लगे आरओ में भी होता है.
हम किस काम में कितना जल इस्तेमाल कर रहे हैं और असल में उसकी मिल रही कीमत में क्या उस पानी का दाम भी जुड़ा है या नहीं, जिससे कोई उत्पाद तैयार हुआ है, इस मसले पर अभी हमारे देश में गंभीरता से कोई कार्य योजना शुरू नहीं की गयी है. जल पद चिह्न हमारे द्वारा उपयोग में लाये जा रहे सभी उत्पादों और सेवाओं में प्रयुक्त पानी का आकलन होता है.
इसके तीन मानक हैं. ग्रीन जल पद चिह्न उस ताजा पानी की मात्रा का प्रतीक है, जो नम भूमि, आर्द्र भूमि, मिट्टी, खेतों आदि से वाष्पित होता है. ब्लू जल पद चिह्न झीलों, नदियों, तालाबों, जलाशयों और कुंओं से संबंधित है. ग्रे जल पद चिह्न उपभोक्ता द्वारा इस्तेमाल की जा रही सामग्री को उत्पादित करने में प्रदूषित हुए जल की मात्रा को इंगित करता है.
यदि सभी उत्पादों का आकलन इन पद चिह्नों के आधार पर होने लगे, तो जाहिर है कि सेवा या उत्पादन में लगी संस्थाओं के जल स्रोत, उनके संरक्षण व किफायती इस्तेमाल, पानी के प्रदूषण जैसे मसलों पर विस्तार से विमर्श शुरू हो सकता है. हमारी आयात और निर्यात नीति कैसी हो, हम अपने खेतों में क्या उगायें, पुनर्चक्रित जल के प्रति अनिवार्यता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे स्वतः ही लोगों के बीच जायेंगे.
उल्लेखनीय है कि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्का की खेती करनेवालों को नि:शुल्क बीज व अन्य कई सुविधाएं देने का फैसला किया है. ऐसे ही कई प्रयोग देश को पानीदार बनाने की दिशा में कारगर हो सकते हैं, बस हम खुद यह आंकना शुरू कर दें कि किन जगहों पर पानी का गैर जरूरी या बेजा इस्तेमाल हो रहा है.