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न्यायपालिका के लिए चिंताजनक

सर्वोच्च न्यायालय किस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है? क्या वह न्यायाधीश गोगोई का अनुसरण करना चाहता है या कोई अलग रास्ता लेना चाहता है, ताकि इस न्यायालय के गौरव को फिर से प्राप्त किया जा सके?

जस्टिस एपी शाह

पूर्व मुख्य न्यायाधीश

दिल्ली उच्च न्यायालय

delhi@prabhatkhabar.in

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत करना एक स्पष्ट संदेश है कि अगर आप ऐसे निर्णय देंगे, जो कार्यपालिका को पसंद होंगे, तो आपको पुरस्कृत किया जायेगा और अगर आप वैसे निर्णय नहीं करेंगे, तो आपके साथ विपरीत व्यवहार होगा, आपका स्थानांतरण हो सकता है या प्रोन्नति के लिए आपके नाम पर विचार नहीं किया जायेगा. चिंताजनक बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय का नेतृत्व इस दिशा का अनुसरण कर रहा है. इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि सरकार कई प्रच्छन्न तरीकों से कॉलेजियम को प्रभावित कर रही है.

जहां तक यह प्रश्न है कि ऐसे प्रकरण पहले भी हो चुके हैं, इसलिए न्यायमूर्ति गोगोई के मनोनीत करने में क्या दोष है, तो मेरी राय में संदर्भ और समय अलग-अलग हैं. यह समझा जाना चाहिए कि आपातकाल के दौर में हुए कुख्यात एडीएम जबलपुर मामले के असर से उबरने में कई साल लग गये, जिसे निजता के अधिकार से संबंधित पुट्टास्वामी मामले में पलटा जा सका. मेरी नजर में बीते पांच-छह सालों में इस रुझान का रुख उलटा हो गया है.

सर्वोच्च न्यायालय के विवादास्पद नेतृत्व की कड़ी में न्यायमूर्ति गोगोई एक ताजा उदाहरण भर हैं. इनसे पहले न्यायाधीश दीपक मिश्रा थे, जिनके कार्यकाल में अनेक विवाद सामने आये थे. तो सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय किस दिशा में अग्रसर है या वह किस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है. क्या वह न्यायमूर्ति गोगोई का अनुसरण करना चाहता है या कोई अलग रास्ता लेना चाहता है, ताकि इस न्यायालय के गौरव को फिर से प्राप्त किया जा सके? मेरी नजर में न्यायमूर्ति गोगोई को राज्यसभा में भेजा जाना एक प्रतिदान है.

यह मैं पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूं. आप उनके प्रधान न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान हुए फैसलों को देखें. मैं यौन प्रताड़ना के मामले का उल्लेख नहीं कर रहा हूं. वकील गौतम भाटिया ने उनके कार्यकाल को ‘कार्यपालिका न्यायपालिका’ की संज्ञा दी है. आप इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले को लें, जिसमें खुद उन्होंने कहा था कि इसमें अनेक पहलू हैं, जिनकी जांच होनी चाहिए. उस मामले का क्या हुआ? इस अवधि में अनेक चुनाव हुए और ऐसे बॉन्ड के जरिये छह हजार करोड़ रुपये से अधिक राशि राजनीतिक दलों को मिली, जिसमें बहुत ज्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ पार्टी के पास गया.

विभिन्न मामलों को लेकर न्यायालय के रवैये पर भी सवाल उठता है. उदाहरण के तौर पर, कश्मीर में हिरासत में लिये गये लोगों के बारे में दायर याचिकाओं की सुनवाई को ले सकते हैं. एक मामले को देखें, कश्मीर के पूर्व विधायक युसुफ तारिगामी के मामले में सुनवाई करते हुए न्यायाधीश गोगोई ने सीपीएम नेता सीताराम येचुरी को कहा कि वे कश्मीर जाकर तारिगामी से मिल सकते हैं, पर वे वहां किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं ले सकते हैं.

ऐसे निर्देश का क्या मतलब है? इस बारे में गौतम भाटिया ने लिखा है कि क्या प्रधान न्यायाधीश भारत के प्रधान वीजा अधिकारी के रूप में व्यवहार कर रहे थे. मामलों को लटकाने के उदाहरण भी भरे पड़े हैं. आप नागरिकता संशोधन कानून से संबंधित याचिकाओं को देखें. यह देश के लिए इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि इससे न केवल लोगों में विभाजन हो रहा है, बल्कि भारतीय संघ और राज्यों के बीच भी विभेद पैदा हो रहा है. हजारों लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज किये गये हैं और लोगों के विरुद्ध हिंसा हुई है, लेकिन न्यायपालिका हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है. दिल्ली हिंसा में इतनी मौतें हुईं, पर न्यायिक स्तर पर निष्क्रियता रही.

मैं न्यायमूर्ति गोगोई के नेतृत्व में दिये गये फैसलों की खूबियों व खामियों पर टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं, मैं केवल न्यायिक प्रक्रिया को रेखांकित करना चाहता हूं. अयोध्या निर्णय 900 पन्नों का है, पर हम नहीं जानते हैं कि इसे किस न्यायाधीश ने लिखा है. इससे जुड़े परिशिष्ट और लिखनेवाले के अनाम रहने को प्रधान न्यायाधीश ने कैसे और क्यों मंजूरी दे दी? रफाल मामले में भी निर्णय पर टिप्पणी नहीं करूंगा, पर किस न्यायिक प्रावधान के तहत खंडपीठ ने बचाव पक्ष के साथ अनौपचारिक संपर्क कायम किया? सीलबंद लिफाफों में दस्तावेज लेने की दुर्भाग्यपूर्ण परंपरा भी न्यायमूर्ति गोगोई की ही विरासत है. ऐसा करना कानून के नियमों के पूरी तरह विरुद्ध है. सबरीमला मामले को बड़े खंडपीठ में भेजने का क्या तुक था?

जहां तक रंगनाथ मिश्र और बहरुल इस्लाम के मामलों का सवाल है, तो इंदिरा गांधी के दौर में भी सेवानिवृत्ति के बाद पद देने का चलन था और न्यायाधीशों को लालच दिया जाता था. रंगनाथ मिश्र ने 1984 के सिख-विरोधी हिंसा की जांच के लिए बने आयोग की अध्यक्षता की थी और कांग्रेस को दोषमुक्त करार दिया था. बाद में उन्हें राज्यसभा भेजा गया. लेकिन हम यहां उस प्रधान न्यायाधीश की बात कर रहे हैं, जो 13 महीनों तक पद पर रहा और हटने के कुछ महीने बाद ही राज्यसभा चला गया. ऐसा कर आप नीचे से ऊपर तक न्यायपालिका को क्या संदेश देना चाह रहे हैं? हमें तब ऐसा और अब क्यों नहीं के तर्क को समझना चाहिए, जो सत्तारूढ़ दल का पसंदीदा तर्क है. अगर भ्रष्टाचार व कदाचार पहले रहा है, तो क्या उसे आज भी सही ठहराया जाना चाहिए. (बातचीत पर आधारित. दिये गये विचार निजी हैं.)

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