घरेलू मोर्चे पर घिरे जिनपिंग की चाल
चीन में कोरोना महामारी एक बार फिर से पैर फैला रही है. अर्थव्यवस्था में गिरावट जारी है. विकास दर लगातार घट रही है. देश में बेरोजगारी बढ़ रही है. निर्माण क्षेत्र भयानक मंदी से जूझ रहा है.
बीते 23 अक्तूबर को बीजिंग में घटी एक अहम घटना और नौ दिसंबर को अरुणाचल प्रदेश के तवांग में हुई झड़प के बीच कोई सीधा संबंध है? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर भले ही तमाम लोगों के पास न हो, पर चीन के उदारपंथियों और पूर्वी एशिया के कुछ थिंक टैंक को दोनों घटनाओं में रिश्ता नजर आ रहा है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में संशोधन के बाद शी जिनपिंग इसी दिन तीसरी बार राष्ट्रपति चुने गये थे.
उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च नेता भी उसी दिन चुना गया था. बदले घटनाक्रम में जिनपिंग की ही वजह से सरकार में नंबर दो रहे ली खेचियांग को किनारे लगाया गया. पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ जो हुआ, वह तो इतिहास में दर्ज हो ही चुका है.
चीन अपने अभ्युदय काल से ही साम्राज्यवादी नीति पर चलता रहा है. यह संयोग ही है कि तवांग की घटना के ठीक छह दिन बाद ही सरदार पटेल की 72वीं पुण्यतिथि है. चीन के संदर्भ में पटेल की याद आना स्वाभाविक है. पटेल ने 72 वर्ष पहले ही चीन की साम्राज्यवादी नीति को भांप लिया था. ठीक एक वर्ष पहले जिस तरह चीन ने सुधार के नाम पर तिब्बत पर कब्जा जमाने की शुरुआत की थी, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने नैतिक समर्थन दिया था, उससे पटेल चिंतित थे.
चीन की साम्राज्यवादी नीति पर विचार के लिए पटेल तब कैबिनेट की बैठक बुलाना चाहते थे. इस सिलसिले में सात नवंबर, 1950 को उन्होंने नेहरू को जो लिखा था, वह एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है. पटेल ने लिखा था, ‘चीनी सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की अपनी घोषणाओं से हमें भुलावे में डालने का प्रयत्न किया है. मेरी अपनी भावना तो यह है कि किसी नाजुक क्षण में चीनी सरकार ने हमारे राजदूत में तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण उपायों से हल करने की अपनी तथाकथित इच्छा में विश्वास रखने की झूठी भावना उत्पन्न कर दी.
इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि चीनी सरकार अपना सारा ध्यान तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना पर केंद्रित कर रही होगी. मेरी राय में चीनियों का अंतिम कदम विश्वासघात से जरा भी कम नहीं है. करुणता तो यह है कि तिब्बतियों ने हम पर भरोसा रखा और हमारे मार्गदर्शन में चलना पसंद किया और हम उन्हें चीनी कूटनीति के जाल से बाहर निकालने में असमर्थ रहे. हम तो चीन को अपना मित्र मानते हैं, परंतु वे हमें अपना मित्र नहीं मानते.
चीन के सत्ता तंत्र में प्रधानमंत्री रहे ली खेचियांग उदारवादी माने जाते हैं. वह जिनपिंग की कठोर नीतियों के समर्थक नहीं रहे. कोरोना महामारी के दौरान चीन की आर्थिक स्थिति में गिरावट को लेकर दोनों नेताओं के बीच 2020 में अदावत बढ़ गयी थी. खेचियांग जहां खुदरा और स्ट्रीट कारोबार के जरिये चीन की गिरती आर्थिकी को संभालने की कवायत के हिमायती रहे, वहीं जिनपिंग का नजरिया इसके उलट रहा. याद कीजिए, 15 जून, 2020 की घटना. लद्दाख की सीमा से लगे गलवान घाटी में जब चीन के सैनिकों ने घुसपैठ की कोशिश की थी,
तब हमारे निहत्थे जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया था. इस झड़प में भारत के 22 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे. लोकतांत्रिक भारत ने तब अपने सैनिकों के इस सर्वोच्च बलिदान को न केवल स्वीकार किया, बल्कि चीन को चेतावनी भी दी. इसके बाद चीनी सीमा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे थे और दुनिया को भारत के मजबूत इरादे और ताकत का संदेश दिया था. इस झड़प में चीन के 45 से ज्यादा सैनिक खेत रहे थे. हालांकि, चीन ने कभी खुले तौर पर इसे स्वीकार नहीं किया. पर इसे लेकर चीन में हंगामा रहा.
गलवान झड़प के लिए तब चीन के उदारपंथी जमातों के साथ ही पूर्वी एशिया के तमाम थिंक टैंक का मानना था कि जिनपिंग ने चीन में अपना प्रभाव और ताकत बढ़ाने के लिए अपनी सेना का इस्तेमाल किया. थिंक टैंक का यह भी मानना था कि चीन ऐसी घटनाओं से बाज नहीं आने वाला है. तब यह भी माना गया था कि जिनपिंग का एक मकसद अपने प्रधानमंत्री ली खेचियांग की तरफ से चीनी जनता का ध्यान हटाना है.
अगर खेचियांग की ताकत नहीं घटी, तो जिनपिंग ऐसे और कदम उठा सकते हैं. अक्तूबर में हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में खेचियांग किनारे लगाये जा चुके हैं. ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर चीन ने अरुणाचल की तवांग घाटी में ऐसा कदम क्यों उठाया, जिसमें उसके 30 से ज्यादा सैनिक घायल हुए हैं. इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए चीन के अंदरूनी हालत पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है.
चीन चाहे लाख इनकार करे, पर कोरोना महामारी एक बार फिर से पैर फैला रही है. इसे देखते हुए जब कठोर प्रतिबंध लगाये गये, तो लोग सड़कों पर उतर आये. ‘जिनपिंग गद्दी छोड़ो’ जैसे नारे भी लगाये लगे. इस बीच चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट जारी है. उसकी विकास दर लगातार घट रही है. देश में बेरोजगारी बढ़ रही है. देश का निर्माण क्षेत्र भयानक मंदी से जूझ रहा है. चूंकि जिनपिंग 2013 से लगातार देश के राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हैं. इसलिए उन पर सवाल ज्यादा हैं.
पूर्वी एशिया के थिंक टैंक मानते हैं कि ऐसे में जिनपिंग को देश का ध्यान बंटाने के लिए सबसे मुफीद रास्ता भारत के साथ विवादों को बढ़ावा देना नजर आता है. हालांकि, अब चीन भी बदल रहा है और वहां के लोग भी इन तथ्यों को व्यापक रूप से समझ रहे हैं. यहां उदारपंथियों की संख्या बढ़ी है. गलवान के बाद से चीन की सरकार पर वहां के नागरिक समुदायों ने सवाल भी उठाया था.
जिस तरह गलवान के बाद जिनपिंग सवालों के घेरे में रहे थे, तवांग के बाद उन पर उंगलियां उठना स्वाभाविक है. फिर चीन जानता है कि आज का भारत 1962 के बाद से सैनिक और कूटनीतिक प्रभाव के मोर्चे पर लंबी यात्रा कर चुका है. बेशक 1975 के तवांग कांड के बाद से चीन सीमा पर तैनात सैनिकों को गोली-बारूद के साथ पहरेदारी पर रोक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके पास प्रतिकार के जरूरी साजो-सामान नहीं हैं.
भारतीय सैनिकों ने गलवान की ही तरह तवांग में भी चीन की पीपुल्स आर्मी के दांत खट्टे कर दिये हैं. इसलिए चीन को एक बार फिर अपनी हरकतों के लिए सोचना होगा. वैसे तो चीन के हर शासक से भारत को चौकन्ना रहना चाहिए, वह रहता भी है. लेकिन उसे जिनपिंग से ज्यादा सावधान रहना होगा. घरेलू मोर्चे पर वे जब-जब घिरेंगे, भारत के मोर्चे पर वे ऐसी हरकतें करते रहेंगे.