इंदर सिंह नामधारी
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि ‘प्रभात खबर‘ परिवार इस वर्ष स्वाधीनता दिवस पर अपनी 40वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. उर्दू में चूंकि खबर का बहुवचन ही अखबार होता है, इसलिए प्रभात खबर को ढेर सारी शुभकामनाएं. 1947 में मिली आजादी के बाद गठित संविधान सभा के विद्वान सदस्यों ने गहन मंथन के बाद विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभों का दर्जा प्रदान किया था. कालांतर में पत्रकारिता ने भी अपने बहुमूल्य योगदान के बल पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गौरव प्राप्त कर लिया.
पत्रकारिता का एकमात्र दायित्व था जनता तक सही खबरों को पहुंचाना. शुरुआती दौर में भारत मेें पत्रकारिता की जड़ें मजबूत होती गयीं. लेकिन 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी के दौरान इसके पर कतरने की भरपुर कोशिश की गयी. लेकिन रामनाथ गोयनका जैसे समर्पित पत्रकारों ने इसका जमकर विरोध भी किया. मुझे इमरजेंसी का वह पहला दिन भी याद है, जब गोयनका जी ने अपने अखबार इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय कॉलम को काले रंग से पाट दिया था.
इमरजेंसी के दिनों में भारत की पत्रकारिता थम-सी गयी थी लेकिन इमरजेंसी हटने के बाद वह पुन: अपने शबाब पर आ गयी. इसे विडंबना ही कहेंगे कि वर्ष 2014 के बाद न जाने क्यों उसने अपने स्वभाव को बदलना शुरू कर दिया. यह खोज का विषय है कि भारत के नीर–क्षीर विवेकी मीडिया के अधिकांश घरानों ने आखिर अपने आप में इतना बदलाव कैसे कर लिया? मेरी दृष्टि से इसके दो ही कारण हो सकते हैं. पहला भय और दूसरा लालच.
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2014 के बाद सरकार के मनमुताबिक न चलने वाले कई समाचार पत्रों के प्रतिष्ठानों पर छापे मारे गये तथा इडी एवं इनकम टैक्स जैसी सरकारी एजेंसियों ने उनकी जांच करनी शुरू कर दी. देखते ही देखते भारत में पत्रकारिता की शक्ल ही बदल गयी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तो लगभग कॉर्पोरेट घरानों का पूरी तरह कब्जा हो गया तथा अन्य समाचार पत्रों के तेवर भी काफी ढीले पड़ गये. धीरे-धीरे सरकार की गलत गतिविधियों के समाचार भी गायब होने लगे तथा मीडिया का एक बड़ा भाग सरकार के पक्ष में पहरेदार बनकर खड़ा हो गया.
विगत नौ वर्षों में तो मीडिया का हुलिया ही बदल गया है तथा अखबारों में सरकार की कमजोरियों को देख पाना भी मुश्किल हो गया है. इतना ही नहीं अधिकतर चैनलों ने हिंदू एवं मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाने का बीड़ा उठा लिया है. अखबारों के रिर्पोटरों की गतिविधियां शिथिल पड़ गयीं तथा मुख्यालय से ही अधिकतर समाचार बनाये जाने लगे हैंं. आज के दिन भारत का मीडिया सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के बदले विभाजन करने के दौर से गुजर रहा है.
भारत का मीडिया अगर स्वतंत्र रहता तो इस खामी को समाप्त किया जा सकता था, लेकिन सरकारी पक्ष का एकतरफा महिमामंडन करने के कारण देश का सांप्रदायिक सद्भाव दिनोंदिन बिगड़ रहा है. यह देखकर मानसिक पीड़ा होती है कि मणिपुर जो भारत के उत्तर-पूर्व खंड का एक छोटा पर रमणीक राज्य पिछले तीन महीनों से सांप्रदायिक दंगों के दौर से गुजर रहा है. मैतेई एवं कुकी निवासियों के बीच कटुता इस कदर फैल गयी कि वे एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गये और नरसंहार शुरू हो गया. इतना ही नहीं भीड़तंत्र ने कई महिलाओं को निर्वस्त्र करके अश्लीलता के साथ सड़कों पर घुमाया तथा कई की हत्या भी कर दी गयी. लेकिन भारत का मीडिया इसको उजागर नहीं कर सका.
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हिंसक वातावरण शुरू होते ही यदि मीडिया ने तथ्यों को उजागर कर दिया होता तो न सैकड़ों लोगों की जानें जातीं और न नारियों की गरिमा पर निम्नस्तरीय आघात होता. थोड़े दिन पूर्व हरियाणा के नूह खंड में भी ऐसा सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ कि सैकड़ों वर्षों से प्रेम से रह रहे हिंदू-मुस्लिम एक दूसरे के दुश्मन बन गये. इस दुर्घटना के समय भी मीडिया अपना निष्पक्ष दायित्व नहीं निभा सका. इस गंभीर वातावरण में मुझे स्वतंत्रता के पूर्व 1931 में कानपुर में हुए दंगों के दौरान एक आदर्श पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भूमिका याद हो आयी है, जिसने निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए अपने आपको कुर्बान कर दिया था.
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ऐसी विकट परिस्थिति में पत्रकारिता की निष्पक्ष भूमिका देश के लिए परमावश्यक है. प्रभात खबर जैसा अखबार निश्चित रूप से इस मामले में अग्रणी भूमिका निभाकर दूसरों को प्रोत्साहित करेगा. ‘सोने की चिड़िया‘ नामक फिल्म में आशा भोसले एवं मोहम्मद रफी द्वारा गाये गये एक गीत की निम्नांकित पंक्तियां हमें उज्जवल भविष्य की ओर ले जाने की प्रेरणा देती हैं.
रात भर का है मेहमां अंधेरा,
किसके रोके रुका है सवेरा.
रात जितनी भी संगीन होगी,
सुबह उतनी ही रंगीन होगी.
(लेखक विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं.)