जंल बचाने के लिए ग्रामीणों ने कि थी 100 किलोमीटर की पदयात्रा पार्ट 3
गणेशपुर के बाद यह पदयात्रा मूटा, भसूर होते हुए जयडीहा गयी थी. वहां से डोहाकातू से ईचादाग गयी थी. ईचादाग से यह यात्रा चुटूपालू गयी थी. इन सभी गांवों में वन बचाने को लेकर ग्रामीण जागरूक हुए लेकिन ईचादाग में इस यात्रा का कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ा. आज स्थिति यह है कि गांव में वन प्रबंधन सुरक्षा समिति तक का गठन नहीं हुआ है. पेड़ो की कटाई बेरोक-टोक जारी है.
पदयात्रा -08
ग्रामीणों ने लगाये नौ लाख पौधे
सदमा, ओरमांझी
वन क्षेत्र : 718 एकड़
ओरमांझी प्रखंड का सदमा गांव. गांव के पास 718 एकड़ वन क्षेत्र है. इस गांव में ग्राम वन प्रबंधन एंव संरक्षण समिति का निबंधन 1993 में हुआ, लेकिन वन को बचाने की शुरुआत उससे काफी पहले ही हो गयी थी. दरअसल समिति के वर्तमान अध्यक्ष धर्मनाथ महतो, जिस वक्त नौवीं के छात्र थे, उस वक्त हल जोतने खेत गये थे. खेत में काम करते वक्त हल में लगने वाली लकड़ी टूट गयी. उसे बनाने के लिए दूसरी लकड़ी चाहिए थी, लेकिन आसपास के जंगल में सिर्फ झाड़ियां ही बची थी. इस घटना के बाद धर्मनाथ ने जंगलों को बचाने का फैसला किया. अपने दोस्तों के साथ मिलकर जंगल बचाने के लिए ग्रामीणों को जागरूक करने लगे. साथ ही गांव में 21 प्रजाति के लगभग नौ लाख नये पौधे लगाये. जंगल में फलदार पौधे भी लगाये गये हैं. एक वक्त था जब जंगल के नाम पर सिर्फ झाड़ियां ही दिखाई पड़ती थीं, पर 30 वर्षों की कड़ी मेहनत रंग लायी है और आज जंगल हरा-भरा दिखता है.
ग्रामीणों की एकजुटता रंग लायी
आज सदमा गांव में बड़ा जंगल है. घर बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत होने पर ग्रामीणों को वन समिति को लकड़ी काटने के लिए आवेदन देना पड़ता है. साथ ही ग्रामीणों को पेड़ काटने से पहले पेड़ भी लगाने पड़ते हैं, तब जाकर लकड़ी काटने की अनुमति मिलती है. अभी भी हर घर से एक-एक ग्रामीण वन सुरक्षा के लिए जाते हैं. गांव में 30-30 लोगों का समूह बना है, जो अपनी पारी आने पर जंगलों की निगरानी करते हैं. ग्रामीण बताते हैं कि पहले गांव में पानी के लिए हाहाकार मचा रहता था, लेकिन जब से जंगल घना हुआ, पानी के संकट से निजात मिली है. अब तो जलस्तर भी ऊपर आ गया है.
पेड़ से दातुन भी नहीं तोड़ते ग्रामीण : धर्मनाथ महतो
बेहतर वन संरक्षण के लिए वर्ष 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने धर्मनाथ महतो को सम्मानित किया था. धर्मनाथ महतो आज भी जगंल से खुद के लिए दातून तक नहीं तोड़ते हैं. अपने स्तर से रांची के कई गांवों में जाकर 72 वन सुरक्षा समितियां बनायी थीं. इसमें से आज भी कई सक्रिय हैं. अब ग्रामीण जंगल में पेड़ों की सिर्फ टहनी काटते हैं, पेड़ नहीं काटते.
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पदयात्रा -09
90 फीसदी जंगल में है हरियाली
गुड़गुड़चुआं, कांके
वन क्षेत्र : 325 एकड़
बांस वन क्षेत्र : 125 एकड़
कांके प्रखंड के गुड़गुड़चुआं गांव में पदयात्रा वर्ष 2014 में पहुंची थी, लेकिन गांव में जंगल बचाने का काम वर्ष 1990 में ही शुरू हो गया था. ग्रामीण बताते हैं कि जब पेड़ कट गये, तो गांव से उरगुट्टू साफ दिखाई देता था, पर अब गांव जंगलों से घिर गया है. छोटा गांव होने के कारण वन को बचाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. इस गांव के जगंल को उरगुट्टू जंगल के नाम से जाना जाता है. यहां बांस के भी जंगल हैं. जब गांव में जंगल कम हो गये, तब ग्रामीणों ने बैठक कर जंगल को बचाने का फैसला किया. अब तो गांव के जंगल में जंगली जानवर भी हैं. आज ग्रामीण पेड़ से सिर्फ टहनी ही काटते हैं. नये वन की बात करें, तो गांव में वर्ष 2000-2005 तक 125 एकड़ में एक लाख पौधे लगाये गये हैं. 17 अप्रैल को गांव में वन रक्षाबंधन मनाया जाता है.
पहले 25 फीसदी वन थे : धर्मेंद्र महतो
वन सुरक्षा समिति के अध्यक्ष धर्मेंद्र महतो बताते हैं कि एक वक्त था जब गांव में मात्र 25 फीसदी जंगल बचे थे, पर आज बढ़कर 90 फीसदी है. इसके साथ ही नये पौधे भी लगाये जा रहे हैं. पुराने दिनों को याद करते हुए धर्मेंद्र बताते हैं कि जंगल बचाने के लिए ग्रामीणों ने पूरा साथ दिया.
पदयात्रा -10
250 एकड़ में नये सिरे से लगाये गये पौधे
हेसलपीरी, बुड़मू
वन क्षेत्र : 269.85 एकड़
बुड़मू क्षेत्र का हेसलपीरी गांव. गुड़गुड़चुआं गांव के बाद यह पदयात्रा हेसलपीरी गांव पहुंची थी, हालांकि गांव में जंगल बचाने की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी. नौवीं कक्षा पास जयनाथ महतो ने वन के महत्व को समझा और जंगल बचाने के लिए अपने दोस्तों को साथ लेकर बैठक की. फिलहाल जयनाथ महतो वन सुरक्षा समिति हेलपीरी के अध्यक्ष हैं. जयनाथ बताते हैं कि जंगल का कटाव इस तरह से हुआ था कि बड़े पेड़ जंगल में दिखते ही नहीं थे. बाद में उन्होंने लोगों को पेड़ काटने से रोकना शुरू किया. कई बार मारपीट की नौबत तक आयी, लेकिन ग्रामीण साथ रहे. इसके बाद पेड़ कटना बंद हो गया. फिर वन विभाग के अधिकारियों के संपर्क में आने के बाद वर्ष 2002 से जयनाथ महतो ने नया पेड़ लगाना शुरू किया. 2002 में पौधे लगाकर पेड़ों की देखभाल की. आज पेड़ बड़े हो गये हैं. जंगल घना हो गया है. अब ग्रामीण भी पेड़ नहीं काटते हैं. 250 एकड़ में नये सिरे से जंगल लगाये गये हैं. 18 अप्रैल को गांव में वन रक्षाबंधन मनाया जाता है.
प्रोत्साहन मिलता तो और बेहतर कार्य करते : जयनाथ महतो
जयनाथ महतो बताते हैं कि बिना किसी स्वार्थ के वो जंगल की रक्षा करते हैं. ग्रामीणों को भी पौधे लगाने के लिए जागरूक करते हैं. बहुत कम पैसे में प्लांटेशन का भी काम मिलता है. जंगल में कंटूर की खुदाई की गयी है. इसके साथ ही चारों ओर से ट्रेंच बनाये गये हैं, ताकि जानवर अंदर नहीं जा सके. जयनाथ कहते हैं कि अगर उन्हें वन विभाग की ओर से ही जंगल देखने और बचाने के लिए कार्य मिलता, तो घर चलाने में भी आसानी होती.
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पदयात्रा -11
20 साल में आम का जंगल
गेसवे, बुड़मू
वन क्षेत्र : 110.98 एकड़
बुड़मू प्रखंड के गेसवे गांव में आज जंगल हरे-भरे हैं, हालांकि गांव में अभी भी लोग जंगल बचाने को लेकर पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं. इसके बावजूद इसी गांव के झिरगा महतो उर्फ मैनेजर महतो ने आम की गुठली जमा किया और फिर उसे लगाते हुए 20 वर्षों में आम का जंगल तैयार कर दिया. कुल 24 एकड़ क्षेत्र में आम के पेड़ आज लगे हैं. इससे गांव के लोगों को हर साल आम के मौसम में एक व्यवसाय मिल जाता है. इसके अलावा झिरगा महतो ने कई अन्य पौधे भी लगाये हैं. इस कार्य में उनका बड़ा बेटा सुधीर ने भी काफी साथ दिया. सुधीर बताते हैं कि इस आम के जंगल को लगाने के पीछे कड़ी मेहनत है. गरमी के मौसम में उन्होंने खुद से सिंचाई की थी. कई बार तो ऐसा होता था कि ग्रामीण मवेशियों को चराने के लिए यहां से पौधे को काट देते थे. पर, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 20 साल की मेहनत आज हरे-भरे जंगल के रूप में दिखाई दे रही है. बनलोटवा से शुरू होकर यात्रा इस गांव में पहुंची थी.
जो पेड़ बचाना चाहते हैं, वो गांव में नहीं रहते हैं : सुधीर महतो
सुधीर महतो कहते हैं कि पेड़ बचाना जरूरी है. यह सभी जानते हैं, लेकिन जंगल को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आता है. गांव के जो बुद्धिजीवी लोग हैं, वो गांव के बाहर रहते हैं. जो जंगल को काटते हैं वो गांव में रहते हैं. ग्रामीणों की सोच में बदलाव लाना होगा. तब जाकर जंगल बच पायेगा.
पदयात्रा -12
पुराने पेड़ को किया हरा-भरा
उमेडंडा, बुड़मू
वन क्षेत्र : 1725 एकड़
बनलोटवा से वन को बचाने के लिए शुरू हुई पदयात्रा अपने आखिरी पड़ाव पर उमेडंडा गांव में आकर रुकी थी. गांव में 20 अप्रैल को वन रक्षाबंधन मनाया जाता है. गांव में नये पेड़ नहीं लगाये गये, लेकिन जो जंगल बचे हैं उसे फिर से हरा-भरा कर दिया गया है. इसके लिए ग्रामीण और वन सुरक्षा समिति ने काफी मेहनत की. लोगों को जागरूक करने के लिए हर साल वन रक्षाबंधन मनाना शुरू किया. पहले उमेडंडा जंगल में बड़े पेड़ खत्म हो गये थे. सिर्फ झाड़ियां ही बची थीं, पर जब गांव में वन को बचाने के लिए वन सुरक्षा समिति ने पेड़ों की कटाई पर पूरी तरह से रोक लगा दी है. इसका फायदा हुआ है कि अब ये पेड़ घने जंगल में तब्दील हो गये हैं. वन सुरक्षा समिति के उपाध्यक्ष सेनापति किस्पोट्टा कहते हैं कि एक बार तो पेड़ काटने से रोकने पर समिति के ऊपर मुकदमा भी किया गया था.
वन सभी के लिए जरूरी है : सेनापति किस्पोट्टा
वन सुरक्षा समिति, उमेडंडा के उपाध्यक्ष सेनापति किस्पोट्टा बताते हैं कि वन सभी के लिए उपयोगी है. इसलिए हमें वनों की रक्षा करनी चाहिए. पेड़ों को काटने से बचाना चाहिए. वर्तमान की कई योजनाएं भी पेड़ नहीं काटने में सहयोगी बन रही हैं. जलावन के लिए अब ग्रामीण लकड़ी की जगह रसोई गैस का उपयोग कर रहे हैं.