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इस बिहारी से कभी अमेरिका ने मांगी थी मदद, जानें बिंदेश्वर पाठक ने कैसे किया मैला ढोने वालों का जीवन सुलभ

इस कुप्रथा को खत्म करने का प्रयास मुझसे पहले भी कई लोगों ने किया, लेकिन हम कुछ सफल इसलिए हुए क्योंकि मेरे पास तकनीक थी. बिंदेश्वर पाठक ने कहा कि यह काम बुरा है यह तो सभी जानते थे कि मैला का करेंगे क्या, इसका कोई जबाव नहीं था. मैंने इन सवालों के जबाव तलाशने का काम किया.

पटना. सुलभ मॉडल पर बने शौचालयों को दुनिया भर में सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण के क्षेत्र में क्रांति माना जाता है. आज भारत में हजारों सुलभ शौचालय हैं, जिनमें 2 करोड़ से अधिक लोग प्रतिदिन शौच, स्नान जैसी जरूरतों को पूरा करते हैं. शुष्क शौचालय को समाप्त करने की दिशा में देश में नयी क्रांति लाने वाले डॉ. बिंदेश्वर पाठक अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन शौचालय क्रांति के अग्रदूत को दुनिया हमेशा याद रखेगी. आज भले सरकार खुले में शौच, शुष्क शौचालयों और मैला ढोने की कुप्रथा की समाप्ति का दावा करती है, लेकिन समाज के लिए जो उल्लेखनीय कार्य डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने किए, वो स्वर्ण अक्षरों में अंकित होंगे.

कुप्रथा को खत्म करने का अचूक हथियार बना तकनीक

डॉ बिंदेश्वर पाठक ने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस कुप्रथा को खत्म करने का प्रयास मुझसे पहले भी कई लोगों ने किया, लेकिन हम कुछ सफल इसलिए हुए क्योंकि मेरे पास तकनीक थी. बिंदेश्वर पाठक ने कहा कि यह काम बुरा है यह तो सभी जानते थे कि मैला का करेंगे क्या, इसका कोई जबाव नहीं था. जो लोग मैला ढो रहे थे उनके लिए और कोई काम नहीं था. मैंने इन दोनों सवालों के जबाव तलाशने का काम किया. मैंने 1968 में सबसे पहले डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय का आविष्कार किया, जो कम खर्च में घर के आसपास मिलने वाली सामग्री से बनाया जा सकता है. इसे दुनिया की बेहतरीन तकनीकों में से एक माना गया. बाद में उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की मदद से देश भर में सुलभ शौचालयों की शृंखला स्थापित की.

बेतिया में लिया था मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने का प्रण

1943 में बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में आयुर्वेदाचार्य के घर जन्मे डॉ. बिंदेश्वर पाठक के दादा ज्योतिषी थे. डॉ. बिंदेश्वर पाठक की प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई. फिर वो बिहार की राजधानी पटना चले आये. यहां से उन्होंने बीएन कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातक किया. स्नातक की डिग्री लेने के बाद वो समाजशास्त्र विभाग में शिक्षक बन गये. पाठक सागर यूनिवर्सिटी से क्रिमिनोलॉजी में मास्टर डिग्री करना चाहते थे, लेकिन इसी दौरान गांधी शताब्दी समारोह हुआ और उन्हें भंगी-मुक्ति प्रकोष्ठ में बतौर स्वयंसेवक जोड़ दिया गया. यहीं से उनका जीवन बदल गया और वो छुआछूत पर काम करने के लिए बेतिया पहुंचे. महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने बेतिया में ही मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने का प्रण लिया और रास्ता तलाशने लगे.

पटना में बनाया था पहला सुलभ शौचालय

अंत: 1970 में उन्हें रास्ता मिला और उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की. कम लागत में सार्वजनिक शौचालय बनवाने की पहल समाज के सबसे पीछे खड़े समाज को आगे लाने में कारगर साबित हुआ. 1970 में जब उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की तभी खुले में शौच जाने की प्रथा के खिलाफ लोगों में सोच जागृत हुई. सस्ते दाम में सार्वजनिक शौचालयों की ज़रूरत को सुलभ ने पूरा किया. दुनिया भर में सार्वजनिक जगहों पर सुलभ शौचालय बनाने का श्रेय इनके संगठन को ही जाता है. कम लागत में बने ये शौचालय इको-फ्रैंडली माने जाते हैं.

अमेरिकी प्रशासन ने सेना के लिए मांगा था शौचालय

भारत सहित कई देशों में शौचालय उपलब्ध करा चुके ग़ैर सरकारी संगठन ‘सुलभ इंटरनेशनल’ ने साल 2011 में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरकेी सेना के लिए एक ख़ास तरह के शौचालय बनाने की योजना बनाई थी. सार्वजनिक सुविधाओं के क्षेत्र में पिछले कई दशकों से काम कर रहा यह संस्थान इससे पहले क़ाबुल में शौचालय उपलब्ध करवा चुका था, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ था कि अमेरिकी सेना ने खुद उनसे इसके लिए आग्रह किया था. अमेरिकी सेना ने ख़ास तरीक़े के ‘बायो गैस’ से संचालित शौचालय की मांग की थी. सेना चाहती थी की इस तरीके के कारगर और सस्ते शौचालय क़ाबुल में सभी जगह स्थापित किए जाएं.

आरा नगर निगम से मिला था पहला ठेका

डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने एक साक्षात्कार में बताया है कि उनके अभियान में एक बड़ा मोड़ 1973 में तब आया, जब बिहार की आरा नगर पालिका के एक अधिकारी ने उन्हें 500 रुपए देकर पालिका परिसर में दो शौचालय बनाने के लिए कहा जहां शुष्क शौचालय को डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने सुलभ शौचालय में परिवर्तित किया और उस काम के लिए उनकी खूब सराहना हुई. इसके बाद वो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे. उनका यह अभियान तेजी से आगे बढ़ता गया और बिहार में एक के बाद एक कई शौचालयों का उन्होंने निर्माण कराए. वर्ष 1980 में प्रतिदिन 25,000 लोग केवल पटना में सुलभ शौचालय की सेवाओं का उपयोग करने लगे थे.

बदल दी मैला ढोने वालों की दुनिया

डॉ. बिंदेश्वर पाठक केवल सुलभ शौचालय नहीं बना रहे थे, बल्कि वह छुआछूत मिटाने की दिशा में एक क्रांति कर रहे थे, जिसका बिहार से कहीं ज्यादा राजस्थान जैसे राज्यों में असर दिखता है. 1988 में मैला ढोने वाले कुछ लोगों को वो नाथद्वारा मंदिर ले गए और वहां पर उनसे पूजा-पाठ कराया. डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी मां योगमाया देवी के ज्यादा करीब थे. उनकी मां ने ही उन्हें दूसरों को अपने बराबर समझने की शिक्षा दी. उनका संगठन मानवाधिकार, पर्यावरण, स्वच्छता, गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के विकास और प्रबंधन और कचरा प्रबंधन के साथ ही सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने का काम करता रहा है.

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