Jivitputrika Vrat 2022: बिहार इस बार जितिया व्रत को लेकर कन्फ्यूजन की स्थिति बनी हुई है. काशी पंचांग और हृषीकेश पंचांग में तिथि निर्धारण को लेकर अलग-अलग मापदंड तय किये हुए है. वैसे जानकारों का दावा है कि पहले दोनों जगहों पर समान मापदंड थे, लेकिन हाल के दिनों में जानबूझकर मापदंड बदले गये और तिथियों को लेकर विवाद पैदा किया गया. यह विवाद 15 से 20 वर्षों से देखा जा रहा है. मिथिला पंचांग से अलग दिखाने के लिए इस तरह से शास्त्र में बदलाव किये जाने के प्रमाण भी मिलते है. इस साल भी जितिया व्रत करने वाली महिलाओं के सामने यह दुविधा है कि वो काशी पंचांग के तहत 18 सितंबर को व्रत रखें या फिर हृषीकेश पंचांग के तहत 17 सितंबर को ही व्रत शुरू करें. पंडित भवनाथ झा ने जिउतिया व्रत को लेकर प्रभात खबर से खास बातचीत के दौरान इस विवाद पर विस्तार से जानकारी दी है.
बनारसी पंचांग में जान-बूझकर मतभेद पैदा किया जा रहा है. बनारसी परम्परा में भी पहले प्रदोषव्यापिनी जीवित्पुत्रिका का विधान था. कुछ वर्षों से उदय व्यापिनी का बोलबाला चला आ रहा है.
पंचांगों में अष्टमी तिथि की स्थिति
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हृषीकेश पंचांग के अनुसार इस वर्ष 17 सितम्बर को दिन में 2 बजकर 56 मिनट से अष्टमी तिथि प्रारम्भ होकर 18 सितंबर को 4 बजकर 39 मिनट तक है.
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मैथिल पंचांग के अनुसार भी तिथि का आरम्भ 17 सितंबर को 3 बजकर 06 मिनट पर है तथा समाप्ति 18 सितंबर को 4 बजकर 38 मिनट है.
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इस प्रकार, गणना में ऐसा कोई अंतर नहीं है, जिसके कारण व्रत के दिन में अंतर हो जाये.
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मैथिल पंचांगकारों के पास अपनी शास्त्रीय परम्परा है. यहां के प्राचीन निबन्धकार जीवित्पुत्रिका के सम्बन्ध में निर्देश दे गये हैं. म.म. शुभङ्कर ठाकुर (1600ई.) ने निर्देश दिया है कि ‘आश्विनकृष्णाष्टमी जीमूतवाहनव्रते प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या। उभयदिने प्रदोषव्याप्तौ परैव।। उभयदिने प्रदोषाव्याप्तौ उदयगामिनी। नारीमामनशनम्, नवम्यां पारणेति सिद्धान्तः’।।
आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी जीमूतवाहन व्रत में प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिए. दोनों दिन यदि प्रदोष में अष्टमी हो तो अगले दिन करें. दोनों दिनों में से किसी दिन यदि अष्टमी न रहे, तो जिस दिन सूर्योदय काल में अष्टमी रहे उस दिन व्रत करें. इस अष्टमी में नारियों के लिए व्रत का विधान किया गया है, नवमी में पारणा करें, यह सिद्धान्त है. इसके अनुसार 17 सितम्बर को प्रदोषकाल यानी सन्ध्याकाल अष्टमी होने के कारण उसी दिन व्रत होगा.
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यह व्रत मिथिला के अतिरिक्त दक्षिण बिहार और उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रचलित है. मैथिल को छोड़कर अन्य श्रद्धालु इस व्रत के निर्णय के लिए बनारसी परम्परा को मानते रहे हैं. बनारसी परम्परा के निबंधकारों में कमलाकर ने ‘निर्णयसिन्धु’ में इसका उल्लेख नहीं किया है. बनारसी परम्परा के विद्वान कमलाकर कृत ‘निर्णयसिन्धु’ तथा काशीनाथ उपाध्याय कृत ‘धर्मसिन्धु’ को प्रमाण मानते रहे हैं. इन दोनों ग्रन्थों में आश्विन कृष्ण अष्टमी को महालक्ष्मी व्रत का उल्लेख तो है किन्तु जीमूतवाहन व्रत या जीवत्पुत्रिका व्रत का उल्लेख नहीं है.
पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में तेरह अध्यायों में व्रतों के विवेचन में भी इसे स्थान नहीं दिया है. तेरहवें अध्याय में बृहत् व्रतसूची में एक पंक्ति में इसका उल्लेख मैथिल निबन्धकार अमृतनाथ कृत ‘कृत्यसारसमुच्चय’ के आधार पर उन्होंने किया है. मध्यकाल और वर्तमान काल के मैथिलों में रुद्रधर, पक्षधर, महेश ठक्कुर, परमानन्द ठक्कुर, शुभंकर ठक्कुर, अमृतनाथ और दामोदर मिश्र आदि ने इस व्रत पर पूरा विवेचन किया है. 1931-35 तक दरभंगा में गठित धर्मसभा में पं. दीनबन्धु झा ने इस विषय पर अपना बृहत आलेख प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने सभी मैथिल तथा गौड़ निबन्धकारों के मतों का उल्लेख करते हुए गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है. पं. झा का यह विशिष्ट निबन्ध कुशेश्वर शर्मा द्वारा सम्पादित ‘पर्वनिर्णय’ ग्रन्थ में प्रकाशित है.
जीवित्पुत्रिका की परम्परा मिथिला में विशिष्ट है. यहां सप्तमी तिथि में रात्रि में स्त्रियों के लिए ओठगन की व्यवस्था है. लोक में इस ओठगन के सम्बन्ध में अनेक कहावतें प्रचलित हैं. ‘जितिया पावनि बड़ भारी। धियापुताकेँ ठोकि सुतौलनि अपने लेलनि भरि थारी।’ स्वाभाविक है कि जीमूतवाहन व्रत में बनारस के पंचांगकारों के पास अपनी परम्परा नहीं है, तो वहां उसे वे सामान्य व्रत के रूप में उदयव्यापिनी तिथि मानते हुए निर्णय देंगे. अतः इस वर्ष बनारसी पंचांग में 18 को लिख दिया गया है. प्रमाण के रूप में पंचांगकार लिख रहे हैं कि ‘यत्रोदयं वै कुरुते दिनेशो जीवत्सुताख्या व्रतमस्तु तत्र।’ यानी जिस दिन सूर्योदय अष्टमी में हो उस दिन जीवत्पुत्रिका व्रत करना चाहिए. वहीं पर उन्होंने मैथिल निबन्धकारों का भी मत दे दिया है कि मैथिल लोग प्रदोषकालिक अष्टमी के दिन व्रत करते हैं. परम्परा भेद प्रदर्शित कर उन्होंने तिथिभेद दिखा दिया.
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अब हम 1944 ई. की स्थिति देखते हैं. बनारस से प्रकाशित पंचांग के अनुसार दिनांक 9 सितम्बर को दोपहर 01 बजकर 39 मिनट दण्ड-पल सप्तमी तिथि है, जो अगले दिन 11 बजकर 14 मिनट पर दण्ड-पल तक है. निश्चित रूप से सूर्योदय अगले दिन हो रहा है. तो बनारसी परम्परा के अनुसार अगले दिन होना चाहिए, लेकिन उस वर्ष पंचांग में प्रदोष कालिक अष्टमी के आधार पर पूर्व दिन यानी दि. 9 को जीवत्पुत्रिका व्रत का निर्देश किया गया है. इस प्रकार स्पष्ट है कि पूर्व में बनारस के विद्वान् भी मैथिलों की तरह प्रदोषव्यापिनी मानते थे. यह पंचांग बनारसी पंचांगकार के द्वारा ही अपने वेबसाइट पर दिया गया है. कवर पर लिखा है- 2005-06ई. अंदर के पृष्ठों पर श्री संवत् 2001, शक 1866 और सन् 1944 ई. फाइल का नाम दिया गया है- 2010. मै यह दावा नहीं करता हूं कि यह 1944ई. का ही है. जो है उसे आप स्वयं उनके वेबसाइट से डाउनलोड कर देखिए.
जीवित्पुत्रिका व्रत में अष्टमी तिथि जब तक रहती है. तब तक पारणा नहीं होती है. इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण अष्टमी तिथि में भोजन का अत्यन्त निषेध है. जीमूतवाहन की कथा में भी संकेत है कि अष्टमी जबतक रहे तब तक भोजन नहीं करना चाहिए. इस वर्ष दिनांक 17 को लगभग 3:00 बजे से अष्टमी है, तो क्या इस समय से भोजन करना बंद कर देंगे? सामान्य नियम है कि कोई व्रत प्रातः काल से ही आरम्भ होगा. तब तो दिनांक 17 को प्रातः काल से भोजन-निषेध आरम्भ हो जायेगा. यदि हम बनारसी पंचांग के अनुसार इस वर्ष 18 को व्रत मनाते हैं तो 17 को अष्टमी तिथि में भोजन करने का पाप किस पर लगेगा? वास्तविकता है कि बनारसी पंचांगकार के पास जीवित्पुत्रिका व्रत का कोई शास्त्रीय विधान है ही नहीं, अतः मनमाने ढंग से कभी मैथिलों की परम्परा मान लेते हैं तो कभी उदया तिथि में निर्णय दे देते हैं.
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इस प्रकार, यह सिद्ध है कि जीवित्पुत्रिका व्रत की मूल परम्परा मैथिलों की है. मैथिलेतर यदि इस व्रत को करते हैं, तो उन्हें मिथिला की परम्परा माननी चाहिए. लेकिन केवल भिन्नता दिखाने के लिए इस प्रकार की अव्यवस्था फैलने से हमारे व्रतों-पर्वों की परम्परा की हानि होगी, यह बात हम सबको समझनी चाहिए. सिद्धान्त रूप में हमें चाहिए कि जहां का व्रत हम करते हैं. वहां की जो अपनी मूल परम्परा है, उसका अनुसरण करें. अतः सभी श्रद्धालुओं को दिनांक 17 को जीमूतवाहन व्रत करना चाहिए.