मिथिला के लोग अपनी परंपराओं को आसानी से नहीं छोड़ते. पान के संदर्भ में यह बात सौ टके फिट बैठती है. बेशक बाजार में कलकतिया और उड़िया पान बेचा जा रहा हो, लेकिन मैथिल लोगों के घरों में शताब्दियों से खाये जा रहे ताराबाई और मलतौनी पान का ही राज है. किसानों और पान को पसंद करने वाले मिथिला के लोगों की यह जिद है कि पान खाने की परंपरा टूटेगी नहीं .पान से भावनात्मक लगाव का इससे बड़ा कोई उदाहरण शायद ही मिले.
दरभंगा से लौटकर राजदेव पांडेय मिथिला के विशेष कर नगरीय क्षेत्रों व कस्बों में बहुत कम ऐसे घर होंगे, जिसकी सुबह लाल डंडी वाले ताराबाई और मलतौनी पान की मिठास से न होती हो़ दरअसल शताब्दियों पुरानी पान की इन किस्मों की गुणवत्ता में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है. बदला है तो केवल मिथिला का मौसम,जिसकी वजह से पान की खेती प्रभावित हुई है. हालांकि, दरभंगा सहित समूचे मिथिला के पान के खास शौकीन लोगों ने इसकी मांग कम नहीं होने दी है.लिहाजा अब भी काफी किसानों ने भी पान के बराजे(पान के विशेष खेत) अपनी मेहनत से गुलजार रखे हैं.
पटना सहित प्रदेश के सभी बड़े शहरों में में रोजाना एक हजार से अधिक ढोली (एक ढोली में पान के 200 पत्ते आते हैं) दरभंगा की थोक पान मंडी से जाती हैं. इस पान की आपूर्ति बाकायदा पान के शौकीन अफसरों, चिकित्सकों, व्यापारियों एवं मंत्रियों के यहां होती है. पान के बड़े विक्रेता पप्पू भगत बताते हैं कि दरभंगा और मधुबनी के बड़े लोग जब यूरोप और अमेरिका घूमने या सेमिनारों में जाते हैं, तो मलतौनी और ताराबाई पान भी ले जाते हैं. पप्पू बताते हैं कि यह पान अच्छी पैकिंग कर दी जाये तो आठ दिन तक ताजा और रसभरा बना रहता है़
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वहीं, मिथिला क्षेत्र की पूजा और दूसरे मंगल उत्सवों में पान की केवल यही दो किस्मों का उपयोग किया जाता है. पप्पू भगत का दावा है कि मिथिला क्षेत्र से रोजाना बीस लाख पान बिकने के लिए स्थानीय और बाहरी बाजार में जाता है. बनौली गांव के किसान बताते हैं कि हमारे ताराबाई और मलतौनी पान का आकार छोटा होने की वजह से पान की दुकान वाले नहीं खरीदते हैं. इन दुकानों पर बड़े पत्ते वाले कलकतिया और उड़िया पान की खपत है, क्योंकि कलकतिया पान में ग्राहकों को चार खिली पान तक बना कर बेचा जा सकता है़ छोटे आकार के ताराबाई पान में ऐसा संभव नहीं है.
पान की खेती करानेवाले किसान बिपिन बिहारी बताते हैं कि पहले पान की खेती बारह माह होती है़ अब पान की खेती अप्रैल से शुरू होती है. दिसंबर में पाला पड़ते ही खत्म हो जाती है़ कभी- कभी सर्दी में ही दिन इतने गर्म हो जाते हैं कि पान को पनपने में दिक्कत आती है. वहीं दूसरी और महीनों तक बाढ़ टिकी रहने की वजह से पनबाड़ी डूबी रहती है. माधौपुर के सुरेंद्र भगत का कहना है कि अब की सर्दी इतने उतार-चढ़ाव हैं कि पान की खेती करना मुश्किल हो रहा है. बाढ़ का पानी भी सालों भर जमा रहता है. यही वजह है कि अकेले बनौली में 350 एकड़ में होने वाली खेती पचास एकड़ में सिमट गयी है.
दरभंगा और मधुबनी सहित समूचे मिथिला क्षेत्र में 38 गांव में पान की खेती होती है. 38 में से करीब मुश्किल से 15 गांवों में कुछ हद तक ताराबाई और मलतौनी पान की खेती हो रही है. विशेषकर सिंहवाड़ा ,सनहपुर, मनितौली ,तारालाही, हाया घाट और समैसीपुर आदि में विशेष तौर पर इसकी खेती होती है. अन्यथा अधिकतर गांवों में कलकतिया पान की खेती ही ज्यादातर हो रही है क्योंकि पान की दुकानदार इसे बड़े पत्ते की वजह से खरीदते हैं. बनौली गांव के निकट के महेंद्र भगत का कहना है हम लोगों को सामूहिक रूप से चौरसिया कहा जाता है. मूल रूप से हमारी जाति बढ़ई की ही एक उपजाति है, जिसे दरभंगा में भगत और मधुबनी इलाके में राऊत कहा जाता है.
POSTED BY: Thakur Shaktilochan