मिथिलेश, पटना. विरासत के लिए संघर्ष की कहानियां पौराणिक तो हैं ही, ऐतिहासिक भी हैं. वर्तमान भी इससे अछूता नहीं है. बिहार की राजनीति में परिवारिक विरासत कोई नयी बात नहीं है. दर्जन भर से अधिक ऐसे परिवार हैं, जिनके परिजनों की इंट्री राजनीति में पिता और पितामह के नाम पर हुई है.
कुछ ऐसे अपवाद भी हुए, जब एक भाई को चुनाव लड़ने को टिकट मिला तो दूसरे ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया. पर, राजनीति को नयी दिशा देने वाले बिहार में विरासत की जंग दिलचस्प होती जा रही है, जिसमें महाभारत के पात्रों के नाम पर एक दूसरे पर प्रहार किये जा रहे हैं. ताजा राजनीतिक विवाद दो बड़े राजनीतिक परिवारों के बीच सामने आया है.
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के बेटों तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव के बीच पावर की लड़ाई सतह पर आ गयी है. दूसरी ओर लोजपा प्रमुख रहे रामविलास पासवान का परिवार है, जहां उनके बेटे चिराग पासवान को अपने चाचा पशुपति कुमार पारस से राजनीतिक चुनौती मिल रही है. लालू के दोनों बेटों के बीच विवाद की नीवं छह साल पहले 2015 में ही पड़ गयी थी, जब महागठबंधन सरकार में छोटे भाई तेजस्वी यादव को सरकार में नंबर दो का दर्जा मिला और वह सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाये गये.
उनके बड़े भाई तेजप्रताप यादव की हैसियत एक सामान्य मंत्री की रही. ज्यों-ज्यों समय आगे बढ़ता गया, पार्टी में तेजस्वी का कद बढ़ता गया. 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी महागठबंधन पार्ट-2 के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बने. इधर, तेजस्वी की तुलना में तेजप्रताव को पार्टी में अधिक भाव नहीं मिला.
अब तक चुप रहे तेज प्रताप ने 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान अपने बगावती तेवर से पार्टी को हिला दिया था. जहानाबाद में राजद के उम्मीदवार सुरेंद्र यादव उतने ही वोटों से पराजित हुए, जितने वोट तेजप्रताप समर्थित उम्मीदवार को मिले. शिवहर लोकसभा सीट पर भी करीब-करीब यही स्थिति रही.
पारिवारिक सूत्रों के मुताबिक तेज प्रताप अपने माता-पिता लालू-राबड़ी के दुलारे पुत्र हैं. यही कारण है कि तेजस्वी में पार्टी का भविष्य देखा गया, लेकिन तेज प्रताप को रोकने की हिम्मत दल के किसी नेता में नहीं हुई. उनकी जिद के कारण रामचंद्र पूर्वे को प्रदेश अध्यक्ष पद गवानी पड़ी. मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह को कई मौके पर कड़वे घूंट पीकर रह जाना पड़ा.
माना जा रहा है कि इस बार तेज प्रताप ने अपने उग्र तेवर को कंट्रोल नहीं किया तो उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. पहले ही वह पार्टी में अलग-थलग पड़ चुके हैं. बहनों ने भी उन्हें अनुशासन के दायरे में रहने की सलाह दी है. पिता लालू प्रसाद के स्वस्थ होने के बाद इस मसले पर कोई बड़ा फैसला लिया जा सकता है.
तेज प्रताप ने पिछले 24 घंटे से कोई बगावती बोल नहीं बोला है. इससे संदेश चला गया है कि राजद अब और नुकसान नहीं सह सकता है. साफ है कि राजद परिवार की अंदरूनी सियासत धीरे-धीरे शांत हो रही है. यह तय माना जा रहा है कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने पार्टी को सख्त संदेश दे दिया है, अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जायेगी, चाहे वह कोई भी हो.
पारिवारिक राजनीति में ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है. तामिलनाडु में द्रविड़ राजनीति के धुरी रहे नेता करुणानिधि भी लालू प्रसाद की भांति पारिवारिक कलह में फंस गये थे. उनके भी दो बेटे हैं. करुणानिधि ने छोटे बेटे स्टॉलिन को आगे बढ़ाया. बड़ा बेटा अलागिरि ने अपने को उपेक्षित समझा. बाद में उन्होंने छोटे भाई के खिलाफ बोलना शुरू किया. अंत में उन्हें पार्टी त्यागनी पड़ी थी. हालांकि, राजद में अभी इस तरह की स्थिति नहीं है.
लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी मृत्यु के बाद भाई और भतीजे के रास्ते अलग हो जायेंगे. हालांकि, उन्होंने बेटे चिराग पासवान को अपना उत्तराधिकारी पहले ही घोषित कर दिया था.
उस समय छोटे भाई पशुपति कुमार पारस तो चुप रह गये, लेकिन रामविलास पासवान की मौत के साल भर भी नहीं बीते, पारस ने चिराग को पीछे छोड़ दिया और छह में पांच सासंदों के समर्थन से पार्टी के नेता भी बने और केंद्र में मंत्री भी बनाये गये. लोजपा की राजनीतिक ताकत पारस या चिराग के पास होगी, इसकी वास्तविक जानकारी चुनाव के दौरान दिखायी देगा, जब पासवान वोटरों का रूझान सामने आयेगा.
60 के दशक में कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री रहे डा चंद्रिका राम के बड़े बेटे अनिल कुमार सांसद व विधायक रहे हैं. इस बार उनके छोटे भाई व रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी रहे सुनील कुमार को जदयू से विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया गया. जब यह बात बड़े भाई को मालूम हुई, तो उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया.
अनिल कुमार 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर गोपालगंज जिले के भोरे सीट से जीत कर विधायक बने थे. अब इसी सीट पर जदयू के टिकट से चुनाव जीत कर छोटे भाई राज्य सरकार में मंत्री हैं.
Posted by Ashish Jha