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क्या है जातीय जनगणना के फायदे और नुकसान, जानिये सरदार पटेल ने जतायी थी क्या आशंका

जातीय जनगणना को लेकर देश में राजनीति तेज है. बिहार में इसको लेकर एक जून को सर्वदलीय बैठक होनेवाली है. यह एक ऐसा मुद्दा हैं, जो देश में समय-समय पर नेताओं द्वारा उठाया जाता है. एक तबका चाहता है कि देश में जाति जनगणना हो. दूसरा इसका विरोध करता है.

पटना. जातीय जनगणना को लेकर देश में राजनीति तेज है. बिहार में इसको लेकर एक जून को सर्वदलीय बैठक होनेवाली है. यह एक ऐसा मुद्दा हैं, जो देश में समय-समय पर नेताओं द्वारा उठाया जाता है. एक तबका चाहता है कि देश में जाति जनगणना हो. दूसरा इसका विरोध करता है. पार्टीगत बात करें तो देश की सत्ता में रही दो बड़ी पार्टी कांग्रेस और भाजपा इसके खिलाफ रही है, जबकि छोटी पार्टियां खासकर जातिगत लामबंद होनेवाली पार्टियां इसकी मांग लगातार करती रही हैं.

जातीय जनगणना क्या है

भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है. इससे सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है. किस तबके को कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन हिस्सेदारी से वंचित रहा, इन सब बातों का पता चलता है. कई नेताओं की मांग है कि जब देश में जनगणना की जाए तो इस दौरान लोगों से उनकी जाति भी पूछी जाए. इससे हमें देश की आबादी के बारे में तो पता चलेगा ही, साथ ही इस बात के जानकारी भी मिलेगी कि देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते है. सीधे शब्दों में कहे तो जाति के आधार पर लोगों की गणना करना ही जातीय जनगणना कहलाता है.

1931 में हुई थी आखिरी बार जातीय जनगणना

भारत में आखिरी बार जातीय जनगणना साल 1931 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान हुई थी. आजाद भारत में कभी भी जातीय जनगणना नहीं हुई है. हालाँकि जातीय जनगणना एक ऐसी मांग है, जिसे समय-समय पर कई नेताओं द्वारा उठाया जा चुका है. वैसे देखा जाए तो साल 1941 में भी जाति जनगणना हुई, लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किये गये. इसके अलावा साल 2011 में यूपीए के शासनकाल में भी जातीय जनगणना हुई थी, लेकिन रिपोर्ट में कमियां बता कर उसे जारी ही नहीं किया गया था.

क्या हैं जातीय जनगणना के क्या

जातीय जनगणना के फायदों को लेकर नेताओं के अपने-अपने तर्क है. कुछ नेताओं का कहना है कि जातीय जनगणना से हमें यह पता चल सकेगा कि देश में कौन जाति अभी भी पिछड़ेपन की शिकार है. यह आंकड़ा पता चलने से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है. इसके अलावा यह भी तर्क दिया जाता है कि जातीय जनगणना से किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की वास्तविक का पता चल पाएगा. इससे उन जातियों के लिए विकास की योजनाएं बनाने में आसानी होगी.

क्या हैं जातीय जनगणना के नुकसान

जातीय जनगणना के केवल फायदे ही नहीं, इसके नुकसान भी हैं. जानकारों का मानना है कि जातीय जनगणना से देश को कोई तरह के नुकसान हो सकते है. इसको देखते हुए ही ब्रिटिश सरकार और बाद में आजाद भारत की सरकारों से इस मांग को मानने से इनकार किया. उनका कहना है कि यदि किसी समाज को पता चलेगा कि देश में उनकी संख्या घट रही हैं, तो उस समाज के लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन अपनाना छोड़ सकते हैं. इससे देश की आबादी में तेजी से इजाफा होगा. इसके अलावा जातीय जनगणना से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने का खतरा भी रहता है. साल 1951 में भी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने यही बात कहकर जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था.

जातीय जनगणना के पीछे की राजनीतिक खेल

जातीय जनगणना के पीछे कुल मिलाकर राजनीतिक खेल है. साल 2010 में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में जातिगत जनगणना की मांग की थी, लेकिन अब सरकार में आने के बाद भाजपा सरकार जातीय जनगणना से पीछे हटती दिखायी दे रही है. कांग्रेस सरकार ने भी साल 2011 में शरद पवार, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के दबाव में जातीय जनगणना करवायी, लेकिन उसके आंकड़े ही जारी नहीं किये. दूसरी तरफ कई प्रदेशों में क्षेत्रीय साल जाति की राजनीति करते है. ऐसे में जातीय जनगणना से हिन्दू समाज जाति में विभाजित हो जाता है तो इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को होगा और भाजपा को बड़ा नुकसान होगा.

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