Chandrashekhar Azad: स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष समर में अपनी आहुति देने वाले आज़ाद, जिन्होंने मजदूरी की, कपड़े धोए लेकिन झुके नहीं

Chandrashekhar Azad: भारत को गुलामी की दासता से मुक्त कराने में असंख्य वीरों ने अपना बलिदान दिया है. उनमें से एक चंद्रशेखर आज़ाद भी थे. उनके जीवन में सबसे खास बात यह थी कि वे अंग्रजों की पकड़ में नहीं आए. लेकिन यह रास्ता कभी आसान नहीं रहा. जानिए आजादी के इस दीवाने के बारे में दस बड़ी बातें.

By Anant Narayan Shukla | January 24, 2025 4:26 PM

Chandrashekhar Azad: 26 जनवरी 1950 भारतीय इतिहास में दर्ज केवल एक तारीख मात्र नहीं है. यह मानव इतिहास की दासता के विरुद्ध लड़ी गई सबसे लंबी लड़ाई की जीत का निशान है. इस तारीख को गरीब और कुचले हुए राष्ट्र की चेतना की वह उत्कट जिजीविषा ने 200 साल से चले रहे रक्त बलिदान का सर्वोच्च शिखर ‘संविधान’ पूर्ण रूप से प्राप्त किया था. सम विधान; जिसमें 1 निवाले के लिए हाड़तोड़ मेहनत करने वाले को भी वही स्थान प्राप्त है, जो सेकंडों में करोड़ों खर्च कर देता है. संविधान मात्र एक दस्तावेज नहीं है, यह करोड़ों पूर्वजों के खून, पसीने, और अथक परिश्रम से सींची गई भविष्य का राग है, जिसमें आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल उल्लास भरी गई थी. आम व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए इसी तरह के शत कोटि बलिदानियों में एक नाम जो काल बाह्य नहीं किया जा सकता वह है चंद्रशेखर तिवारी उर्फ चंद्रशेखर ‘आज़ाद’.

बाल्यावस्था से ही आज़ादी के दीवाने चंद्रशेखर ने पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं वाली कहावत को चरितार्थ किया था. जब स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी आहुति देने के संघर्ष समर में कूद पड़े. मात्र 15 वर्ष की आयु में बनारस में अपनी गिरफ्तारी दे दी. आईसीएस खरेघाट के सामने जब उनकी पेशी की गई, वहां उनसे तीन सवाल पूछे गए-

नाम?

आज़ाद

पिता का नाम?

स्वाधीन.

घर?

जेलखाना.

इतनी निडरता से जवाब देने के लिए उन्हें 15 बेंतों की सज़ा सुनाई गई. दस बेंतों तक उन्होंने वन्दे मातरम का नारा लगाया और फिर ‘महात्मा गाँधी की जय’ का जयकारा एकाकार किया. जेलर सरदार गंडा सिंह चंद्रशेखर से इतने प्रभावित हुए कि सजा के बाद आज़ाद को घर ले गए और दूध पिलाया. इसके बाद चंद्रशेखर को डॉ. संपूर्णानंद ने आज़ाद नाम से संबोधित किया और वे फिर इसी नाम से प्रसिद्ध हो गए. लेकिन सिर्फ यही एक कारण नहीं रहा कि उनका नाम आज़ाद पड़ा; अपने तमाम अन्य क्रांतिकारियों के उलट वे कभी अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आये.

चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा, प्रयागराज. इमेज- सोशल मीडिया.

चंद्रशेखर आज़ाद का प्रारंभिक जीवन : घर छोड़ दिया पर माली से माफी नहीं मांगी

23 जुलाई 1906 को झाबुआ जिले के गाँव भावरा में पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर चंद्रशेखर का जन्म हुआ था. वर्तमान मध्य प्रदेश के तहसील अलीराजपुर में उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी को सेवानिवृत्ति के पश्चात सरकारी बागों के संरक्षक के रूप में नियुक्ति मिली थी. आज़ाद का बचपन यहीं पर बीता. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आज़ाद का जन्म उन्नाव जिले के बदरिका गाँव में हुआ था. लेकिन उनकी माता ने इस बात की पुष्टि की थी कि आज़ाद झाबुआ में ही पैदा हुए थे. बहरहाल यह विवाद का विषय नहीं है. आज़ाद की प्रभुता इस बात से ध्रुव होती है जब लगभग 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने पिता द्वारा संरक्षित बगीचे से आम चुराने को लेकर बहस हो गई, पिता ने नाराज होकर आज़ाद को माली से क्षमा मांगने को कहा. लेकिन स्वाधीनता के मतवाले आज़ाद को यह स्वीकार नहीं हुआ और वे घर छोड़कर निकल गए. कहा जाता है कि इसके बाद वे घर लौटे तो केवल एक दिन के लिए और वो भी वर्षों बाद वर्ष 1928 में.

घर छोड़कर निकले तो पहले मुंबई और फिर बनारस, 64 किमी पैदल चले जाते थे

आज़ाद जब घर छोड़कर निकले थे तो वे रात 12 बजे तक घर के बाहर रहे कि शायद पिता उन्हें वापस बुला लें. लेकिन दृढ़ निश्चयी पिता ने ऐसा नहीं किया. इसके बाद तो चंद्रशेखर लगभग 64 किमी की यात्रा करके दाहोद रेलवे स्टेशन पहुंच गए जहां से वे ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुंच गए. अल्पवय चंद्रशेखर ने कुछ समय होटल में मजदूरी की और उसके बाद कुछ समय कपड़े धोने का काम किया. लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा, इसके बाद उन्होंने 15 वर्ष की आयु में बनारस की ओर रुख किया. यहां पहुँच कर उन्होंने अखाड़े की संगत में जुड़ गए और साथ ही संस्कृत की शिक्षा भी शुरू कर दी. शरीर से बलिष्ठ आज़ाद ने बनारस में ही एक बदमाश को कन्या से छेड़छाड़ करने पर जबरदस्त धुलाई की. इसके बाद तो बलशाली आज़ाद का नाम फैल गया. आचार्य नरेंद्र देव ने भी उनके बारे में सुना तो उन्होंने आज़ाद को काशी विद्यापीठ में हिंदी और संस्कृत अध्ययन में लगा दिया. स्वतंत्रता  आंदोलन का उभार उस समय अपने चरम पर था. महात्मा गांधी का उदय भी स्वाधीनता समर में हो चुका था, तो चंद्रशेखर ने भी महात्मा गाँधी की जय का उद्घोष करते हुए उसमें कूद पड़े.

चंद्रशेखर आज़ाद. इमेज- सोशल मीडिया.

अंग्रेजों की पकड़ में कभी नहीं आए आज़ाद

आज़ाद ने अपनी पहली गिरफ्तारी के बाद ही अंग्रेज अधिकारियों से कहा था कि ‘अब तुम मुझे कभी पकड़ नहीं पाओगे’. अपनी मृत्यु तक उन्होंने इस वचन को पूरा किया. एक बार अंग्रेजों से बचने के लिए उन्होंने अपने मित्र के घर पर शरण ली थी. उसी समय पुलिस ने उनके घर पर छापा मार दिया. उनके मित्र ने कहा कि आज़ाद यहां नहीं है लेकिन पुलिस नहीं मानी. आखिरकार उनके मित्र की पत्नी ने जुगत भिड़ाई और आज़ाद को देसी धोती और सिर पर साफा बांध दिया और अपने पति से कहा कि मैं पड़ोस में मिठाई बांटकर आती हूं. उन्होंने आज़ाद को साथ ले लिया. इस तरह पंडित जी अंग्रेज पुलिस को चकमा देकर निकल गए.

काकोरी कार्रवाई में आजाद ने निभाई अहम भूमिका

इसी तरह असहयोग आंदोलन के दौरान 1922 में चौरी-चौरा की घटना हो गई, जिसके बाद गांधी जी ने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा कर दी. इस फैसले से कई युवाओं के साथ चंद्रशेखर आजाद भी काफी आहत और आक्रोशित हो गए. दबंग प्रवित्ति के आज़ाद ने तत्क्षण सशस्त्र क्रांति की ओर स्वयं को उन्मुख कर लिया. आजाद को इसके लिए मनमथ नाथ गुप्ता, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, सचिन्द्रनाथ सान्याल और अशफाक उल्ला खां का साथ मिला. इन लोगों ने मिलकर 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाया था. आज़ाद ने उनके साथ मिलकर लखनऊ में 4 अगस्त 1925 को काकोरी के पास ट्रेन में डकैती की घटना को अंजाम दिया. आज़ादी के लिए चंदा जुटाने में बड़ी मेहनत लगती थी, लेकिन इस घटना बड़ी घटना के बाद इन लोगों के हाथ बड़ी रकम हाथ लगी, जिसका उपयोग भारत की स्वतंत्रता के लिए उपयोग किया जाना था.

ट्रेन में डकैती करने के बाद ठंड भरी सुबह में सभी एक पार्क में आराम करने लगे, लेकिन यह घटना इतनी बड़ी थी कि जिसकी चर्चा आग की तरह फैली. पार्क में ही सुबह के अखबारों में यह खबर बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुई. अशफ़ाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल समेत सभी पकड़े गए, लेकिन आज़ाद अब भी आज़ाद रहे. लूट में मिली रकम को सही जगह पहुंचाने का जिम्मा उन्हीं के कंधे पर था. इसके बाद उन्होंने अज्ञातवास में समय बिताया. आज़ाद पुलिस की नजरों से बचते हुए बनारस पहुंच गए. वो पुलिस के साथ लुका-छिपी का खेल ताउम्र खेलते रहे. पुलिस उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी थी लेकिन वो हर बार पुलिस को चकमा देने में कामयाब हो जाते थे.

अज्ञातवास में भी देश का यह सच्चा सपूत अपने तरह के क्रांतिकारी तैयार करने में जुटा रहा. न्यूज 18 की एक खबर के मुताबिक फिरोजाबाद के इतिहासकार प्रो ए.बी. चौबे ने बताया है कि 1924-25 में वे फिरोजाबाद में भी कई हफ्तों तक रुके. वे फिरोजाबाद के रेलवे लाइन के किनारे बने पेमेश्वर गेट पुल के पास एक अखाड़े में आकर रुके थे. यहां एक गुफा भी है जिसमें छुपकर वे रहा करते थे. इस दौरान वह अखाड़े में आने वाले पहलवानों को कुश्ती के दांव पेच भी सिखाते थे. आजाद जब 19 साल के थे, तब भी उन्होंने ओरछा के जंगलों में क्रांतिकारियों को ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया था.

अपने अज्ञातवास के दौरान आजाद ओरछा के इसी कमरे में रहा करते थे. इमेज सोशल मीडिया.

जब आज़ाद की भगत सिंह से हुई मुलाकात

इन दुस्साहिक कामों के बाद आज़ाद का नाम चारों तरफ फैल गया. एचआरए का नाम तो उससे भी तेज गति से फैला. इस संगठन के सभी प्रमुख नेता पकड़े गए थे, जैसा कि गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रकाशित अपने समाचार पत्र प्रताप में लिखा था, ‘भारत के नौ रत्न गिरफ्तार’. जूनियर क्रांतिकारियों के दिल में आजादी की ज्वाला धधक रही थी. आज़ाद भी चैन से कहां बैठने वाले थे. वे कानपुर में ही अपने मित्र विद्यार्थी जी से मिलने पहुंच गए और यहीं पर उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई, जो 17 साल की उम्र में शादी के डर से घर छोड़ कर निकल गए थे. शहीदे आजम भगत सिंह प्रताप पत्रिका में बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे. दो महान हस्तियों के मिलन ने भारत की आज़ादी की चिंगारी को मशाल बना दिया. इसी कानपुर शहर में आज़ाद को  बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारी मिले.

कैसे दिखते थे आजाद

चंद्रशेखर आज़ाद की जितनी भी वास्तविक फ़ोटो उपलब्ध हैं, उनमें वे गर्वित ही नज़र आते हैं. गठा हुआ शरीर, चौड़ी छाती और रौबदार दोनों तरफ से उठी हुई मूंछें. उनके चेहरे पर चेचक के गहरे दाग भी थे. इतिहासकारों ने लिखा है कि उनकी आँखें बड़ी भावुक थीं, जिन्हें देख कर कोई यह कह नहीं सकता था कि यह किसी आज़ादी की मतवाले की आँखें हैं. उनकी आँखें किसी कवि और समुद्र की तरह शांत और सुकून देने वाली थीं, लेकिन अंदर ही अंदर उनमें अथाह हलचल मची रहती थी. 5.6 फ़ीट के नाटे कद वाले चंद्रशेखर बलिष्ठ शरीर वाले थे. उनकी हड्डियों में में बल और हाथ लोहे जैसे मज़बूत थे. वो दिन में सैकड़ों दंडबैठक किया करते थे. उन्हें अपने शरीर पर मालिश करने का बहुत शौक था. अखाड़े की आदत ने उन्हें संभवतः अंदर से और भी मजबूत बनाया था. 

आजाद की एकमात्र इमेज, जिसमें वे सशरीर दिखे. इमेज- सोशल मीडिया.

आज़ाद भेष बदलने में थे माहिर

साथी क्रांतिकारी शिव वर्मा ने अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ द फ़ेलो रिवोल्यूशनरीज़’ में उनका वर्णन करते हुए लिखा है कि चंद्रशेखर समय के अनुसार कई तरह के कपड़े पहनते थे. कभी कभी जब वो धोती कमीज़ और कभी बनियान पहनते थे तो लोग उनको धनवान सेठ समझते थे. कभी-कभी वो कुली का भेष भी बना लेते थे. सिर पर लाल कपड़ा और फटे-पुराने कपड़े पहनकर निकलते थे तो पसीने की बू आती थी. दाहिनी बाँह में पीतल का बिल्ला इतना सच प्रतीत होता था कि लोग उनको सामान उठाने के लिए भी कह देते थे.

कभी कभार वो शर्ट, शॉर्ट्स, हैट और बूट पहन लेते थे तो पुलिस वाले भी उनको कोई अधिकारी समझकर सेल्यूट करते थे. इतना ही नहीं वो जोगिया वस्त्र पहनकर माथे पर भस्म लगा लेते थे तो लोग उन्हें संन्यासी समझ कर उनके चरण स्पर्श करने को दौड़ पड़ते थे. लेकिन अपने जीवन के अंत समय में आज़ाद ज्यादातर धोती कुर्ता और जैकेट पहनते थे ताकि वो अपना बमतुल बुखारा पिस्तौल आसानी से छिपा सकें. मशहूर क्रांतिकारी दुर्गा देवी और आज़ाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की दुर्गा भाभी ने लिखा है कि आज़ाद कभी भी बिस्तर पर नहीं सोते थे. वो अधिकतर समय ज़मीन पर पुराने अख़बार बिछाकर सो जाते थे. वो खाने के बहुत शौकीन नहीं थे. लेकिन खिचड़ी उन्हें बेहद पसंद थी.

जब सांडर्स की हत्या के बाद आज़ाद ने साथियों को बचाया

भगत सिंह छोटी सी उम्र में ही क्रांति के ककहरे से शोधार्थी और फिर प्रोफेसर जैसी विलक्षण ज्ञान अर्जित कर चुके थे. उन्होंने 1928 में दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया और आज़ाद को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया. आज़ाद ने इसको बखूबी निभाया भी. इस दल ने अपने गठन के बाद भारतीय इतिहास की सबसे चर्चित घटना को अंजाम दिया जब साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई. योजना तैयार हो गई कि भगत सिंह लाला लाजपत राय पर लाठी चलवाने वाले स्कॉट को गोली से मारेंगे. राजगुरु पीछे रहेंगे और भगत सिंह को कवर देंगे. अगर हमले के बाद कोई इनका पीछा करता है तो पंडितजी उर्फ आज़ाद उससे निपटेंगे. लेकिन स्कॉट की जगह सांडर्स मारा गया. 

भगत सिंह की गोली से सांडर्स वहीं लुढ़क गया. लेकिन स्कॉट की गाड़ी चलाने वाले चानन सिंह ने राजगुरु और भगत सिंह को दौड़ा लिया. राजगुरु ने उसको एक तेज लात भी मारी, लेकिन उसने पीछा करना नहीं छोड़ा. इसके बाद आज़ाद ने मोर्चा संभाला और चानन सिंह को दहाड़ते हुए रुकने का आदेश दिया. लेकिन अंग्रेजों की नौकरी करने वाला सिपाही कहाँ मानने वाला था. आखिरकार आज़ाद ने तीसरी चेतवानी के बाद चानन सिंह को गोलियों से ढेर कर दिया. असीम साहस के धनी तीनों वीर पहले साइकिल और फिर कार से घटनास्थल से ओझल हो गए.

आज़ाद का बमतुल बुखारा पिस्तौल

आज़ाद को अपनी पिस्तौल से बहुत लगाव था. उन्होंने उसका नाम रखा था बमतुल बुखारा. यह ऐसी बंदूक थी जिसमें फायर करने पर धुंआ नहीं निकलता था. यह कोल्ट कंपनी की .32 बोर की हैमरलेस सेमी आटोमेटिक पिस्तौल थी जिसमें एक बार में आठ गोलियां डाली जा सकती थीं. अंग्रेजों को इस बंदूक से बड़ा डर लगता था, क्योंकि गोलियां किस तरफ से चल रही हैं, इसका पता ही नहीं चलता था. 1903 में बनी इस पिस्टल के फायर की दूरी 25-30 यार्ड तक थी. अंग्रेज अफसर सर जॉन नॉट बावर आज़ाद की मृत्यु के बाद बमतुल बुखारा को इंग्लैंड ले गया. आजादी के बाद आज़ाद की प्रिय पिस्तौल बमतुल बुखारा को वापस लाने के लिए प्रयास शुरू हुए. इलाहाबाद में स्थित संग्रहालय के निदेशक सुनील गुप्ता बताते हैं कि आजादी मिलने के बाद 1976 में पिस्टल भारत सरकार को सौंप दी गई थी. तब से यह इलाहाबाद म्यूजियम में सुरक्षित रखी है और म्यूजियम की शोभा बढ़ा रही है. आज़ाद वीथिका का निर्माण कर सरकार ने इस बंदूक को अब लोगों को देखने के लिए खोल दिया है, आप म्यूज़ियम में जाकर इस ऐतिहासिक बंदूक को देख सकते हैं.

आजाद की व्यकितगत पिस्तौल. इमेज जॉय: भट्टाचार्य (सोशल मीडिया x).

सेट्रल असेंबली में खुद बम फेंकना चाहते थे आज़ाद

इसके बाद तो अंग्रेज हुकूमत पर इन लोगों को पकड़ने का भूत सवार हो गया. यह जानते हुए भी इस तिकड़ी ने फिर एक और असीम साहस दिखाया. सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकना. भगत सिंह का वह प्रसिद्ध कथा भी यहीं आया था, “बहरों को सुनाना है तो आवाज़ तेज करनी पड़ती है.” लेकिन कहा जाता है कि इस काम को करने के लिए आज़ाद सबसे ज्यादा उद्द्यत थे. हालांकि भगत सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे और जब भगत सिंह ने कहा कि यह काम वे करेंगे तो आज़ाद तैयार नहीं हुए. आखिरकार बातों के धनी भगत सिंह ने सबको मना लिया. 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने उस समय बम फेंका जब जॉर्ज शूस्टर ने एक बिल पर बोलना शुरू किया. आज़ाद, भगवती चरण, सुखदेव और वैशम्पायन भी असेंबली के अंदर थे. आज़ाद ने हाथ से इशारा किया और जोरदार धमाका हुआ. सभी क्रांतिकारियों ने इंकलाब जिंदाबाद के नारा लगाकर पर्चे उड़ाना शुरू कर दिया. सभी मतवाले पकड़े गए, लेकिन आज़ाद फिर आज़ाद ही रहे. इसके बाद वे झांसी लौट आए.

‘आजाद’ चंद्रशेखर ने इलाहाबाद में ली अंतिम सांस

भगत सिंह और अन्य साथियों को लाहौर जेल में रखा गया था. चंद्रशेखर आज़ाद ने क्रांतिकारियों को छुड़ाने के भरपूर प्रयास किया. इसी सिलसिले में वे प्रयागराज तब के इलाहाबाद पहुंच गए. 27 फरवरी 1931 को आज़ाद अपने दोस्त यशपाल और सुखदेव राज से मुलाकात करने के लिए अल्फ्रेड पार्क पहुंच गए. यहीं पर उन्हें किसी ने देख लिया और पुलिस को उनकी सूचना दे दी. मिनट भर भी न बीते थे कि अंग्रेज सिपाही वहां आ पहुंचे. एक अंग्रेज सिपाही ने आज़ाद से पूछा कौन हो तुम? सतर्क आज़ाद ने तुरंत अपनी पिस्तौल निकालकर फायर कर दिया. आज़ाद ने अपना बचपन मध्य प्रदेश के भीलों के बीच गुजरा था, जहां उन्होंने तीर धनुष से निशाना लगाना सीखा था. वही कला यहां काम आई. आज़ाद को गिरफ्तार करने के लिए आये पुलिस अधिकारी नॉट बावर और विश्वेश्वर सिंह को गाली से छलनी कर दिया. पेड़ के पीछे छुपकर उन्होंने कुल पांच गोलियां दागीं और सबकी सब निशाने पर लगीं. लेकिन इसी क्रम में उन्हें भी तीन गोलियां लग चुकी थीं. आखिरकार जब उनके बमतुल बुखारा में केवल एक गोली बची तो उन्होंने इसे अपनी कनपटी पर सटाकर चला दिया. भारत माँ को अंग्रेज दासता से मुक्त करने वाला उन्मुक्त सिपाही अंत तक गुलामी की जंजीरों से मुक्त रहा. काल कवलित आज़ाद का खौफ इतना था कि उनके मरने के बाद भी नॉट बावर की हिम्मत नहीं हुई कि वो उनके पास जा सके. उसने अपने एक सिपाही को आदेश दिया कि जाओ देखो आज़ाद जीवित तो नहीं हैं, उनके पैरों पर गोली चलाओ. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन आईजी हॉलिंस ने ‘मेन ओनली’ पत्रिका के अक्तूबर, 1958 के अंक में लिखा कि आज़ाद जैसा निशानेबाज उन्होंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा.

इलाहाबाद में वह स्थान जहां आज़ाद को गोली लगी. इमेज- सोशल मीडिया

बलिदान स्थल पर जलने लगे दिए और अगरबत्तियां

अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दू छात्रावास के पास ही था. आज़ाद और भगत सिंह वहां पर एकाध बार जा चुके थे. उनकी मौत की खबर चारों ओर फैलने लगी. यूनिवर्सिटी के छात्रों ने वहां पर डेरा डाल दिया. आनन फानन में अंग्रेज सरकार ने मजिस्ट्रेट रहमान बख़्श और ठाकुर महेंद्रपाल सिंह के सामने चंद्रशेखर आज़ाद के पार्थिव शरीर का निरीक्षण करवाया. कहा जाता है आज़ाद की जेब से 448 रुपये मिले. इसके बाद लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड के साथ उनके दो सहयोगी डॉक्टर गेड और डॉक्टर राधेमोहन लाल ने माटी के सपूत के शव का पोस्टमॉर्टम किया. इस बीच काफी समय निकल गया और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन पोस्टमार्टम हाउस पहुंच गए. उन्होंने आज़ाद का शव लेने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेजों ने रसूलाबाद घाट पर उनकी चिता को अग्नि दे दी. जब आज़ाद का शव आधा जल चुका था तब उनके परिवार के ही एक सदस्य शिव विनायक मिश्र वहां पहुंचे और उन्होंने दोबारा चिता को मुखाग्नि दी. कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि आज़ाद की चिता जब जल रही थी तो पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ कमला नेहरू और इंदिरा गांधी भी वहां मौजूद थीं.

जब चंद्रशेखर आजाद को गोली लगी उसके बाद का दृश्य. इमेज- सोशल मीडिया

स्वाधीन भारत राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने में जिस महान सपूत ने अपना बलिदान दिया था, इलाहाबाद शहर ने उसकी वैसा ही सम्मान दिया. शहर भर में जुलूस निकाले गए. उनकी अस्थियों पर पुष्पवर्षा की गई. उस दिन पूरे शहर में हड़ताल की गई. उनके जुलूस पर एक काली तख्त रखी गई और आज के टंडन पार्क पर यह समाप्त हुई. यहां पर उनके अनन्य दोस्त और क्रांतिकारी गुरु शचीन्द्र सान्याल की पत्नी ने गर्वीला भाषण देते हुए कहा, “जिस प्रकार खुदीराम बोस की भस्म को तावीज बना कर बच्चों को पहनाने के लिए उनकी अंत्येष्टि पर लोग एकत्रित हुए थे, उसी प्रकार मैं उसी भावना से भाई आज़ाद की भस्म की एक चुटकी लेने आयी हूँ.” इसी जुलूस के बाद कई लोग उन अस्थियों की भस्म अपने साथ ले गए, उनमें से एक आचार्य नरेंद्र देव भी थे, जिन्होंने 15 साल के उस बालक को नायक बनाया था, जो स्वाभिमान के लिए अपना घर छोड़कर निकला था.

चंद्रशेखर आजाद और उनकी चिता की राख वाला पात्र. इमेज- सोशल मीडिया.

जिस पेड़ के नीचे चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु हुई थी लोग वहां जाकर माथा टिकाने लगे. फूल मालाएं चढ़ने लगीं. दीपक जलाए जाने लगे, लोगों ने जगह जगह ‘आज़ाद’ का निशान उत्कीर्ण कर दिया. यह सब ब्रिटिश हुकूमत को बिल्कुल भी नहीं जमा. अंग्रेज आज़ाद का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे. इसलिए जिस पेड़ के नीचे आज़ाद की मृत्यु हुई थी, उसको उन्होंने कटवा दिया. आज़ाद के प्रति लोगों में अथाह सम्मान था. इसीलिए उनकी मौत के 9 साल बाद वहां पर बाबा राघवदास ने 1939 में एक और जामुन का पेड़ लगाया. लेकिन वह भी कुछ सालों में गिर गया. आखिर में आज़ाद भारत में उस पार्क का ही नाम चंद्रशेखर आज़ाद पार्क रख दिया गया. शहर के बीचोबीच इस शानदार पार्क मसान उनकी आदमकद प्रतिमा लगाई गई और आजादी के दीवाने आज़ाद को समुचित सम्मान दिया गया. भारत सरकार ने भारत माता के इस महान सपूत की स्मृति में 1988 में डाक टिकट भी जारी किया.

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