Controversy On Dinkar As National Poet : राष्ट्रकवि की कसौटी पर कितने खरे हैं दिनकर? क्यों उठते हैं विवाद?
रामधारी सिंह दिनकर के काव्यों में विद्यापति की श्रृंगारिकता, भूषण की ओजस्विता और तुलसी की लोकमंंगलकारी चेतना का समन्वय एकसाथ मिलता है. उनकी 116वीं जयंती पर हम जानेंगे की राष्ट्रकवि की उपाधि पाने के वे कितने योग्य थे.पढ़िए पड़ताल करती खास रिपोर्ट…
Controversy On Dinkar As National Poet : 23 सितबंर को हिंदी के शिखर कवियों में से एक रामधारी सिंह दिनकर की 116वीं जयंती है. वे हिंदी साहित्याकाश के जगमगाते नक्षत्र हैं. उनकी ज्ञान साधना से हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ और दिनकर को जीते जी काफी सम्मान भी मिला. मैथिली शरण गुप्त के अलावा दिनकर हिंदी के एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिन्हें जनमानस ने राष्ट्रकवि की उपाधि भी दी. उनके काव्यों में राष्ट्रीय गौरव की गूंज दूर तक जाती है.
दिनकर ने परशुराम और गांधी तथा नेहरू और जयप्रकाश नारायण जैसे लोकचेतना की अलग-अलग राह के राही में राष्ट्रीय नायकत्व की तलाश की है, जो कई बार बौद्धिकता के स्तर पर विरोधाभासी भी दिखता है. कई बार ऐसे विरोधाभास को लेकर दिनकर पर सवाल भी उठाए जाते हैं.
Controversy On Dinkar As National Poet : दिनकर को राष्ट्रकवि कहना कितना उचित?
लेखक और विचारक डॉ. प्रेम कुमार मणि यह सवाल पूछे जाने पर साहित्यकार अज्ञेय के एक मजाक का हवाला देते हैं- अज्ञेय जी कहते थे कि हिंदी में मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि हैं. रामधारी सिंह दिनकर उप राष्ट्रकवि हैं. प्रभाकर माचवे परराष्ट्र कवि और धर्मवीर भारती धृतराष्ट्र कवि हैं.
डॉ. मणि कहते हैं कि राष्ट्रकवि की उपाधि होना किसी कवि का महानता का परिचायक नहीं है. देश की दूसरी भाषाओं में तो किसी को राष्ट्रकवि नहीं कहा जाता है, तो क्या वहां बड़े लेखक और साहित्यकार नहीं हुए हैं. दिनकर जी का मैं काफी सम्मान करता हूं. उनकी प्रतिभा का मैं कायल हूं. परंतु, बौद्धिक ईमानदारी बरतते हुए अगर कहा जाय तो दिनकर के साहित्य पर मेरे कई सवाल हैं, ठीक उसी तरह राष्ट्रकवि की उपाधि पर भी हैं.
Controversy On Dinkar As National Poet : राष्ट्रीय चेतना की हुंकार भरी, इसलिए दिनकर राष्ट्रकवि हैं ?
बीआरए बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. प्रमोद कुमार सिंह कहते हैं कि उस समय भारत के एक राष्ट्र होने पर ही संदेह व्यक्त किया जाता था. अगर कुछ बुद्धिजीवी भारत के एक राष्ट्र होने का समर्थन भी करते थे तो उनके दिमाग में पश्चिम के नेशन-स्टेट की कल्पना थी. यानी कई राजनीतिक इकाइयों का एकीकरण कर एक प्रशासन के तहत लाया गया भू-भाग. भारत के राष्ट्र होने की अवधारणा इन सबसे अलग है. यह विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक इकाई है.
दिनकर ने भारत के सनातन राष्ट्र होने की अवधारणा को मजबूती के साथ आगे बढ़ाया. आदि शंकराचार्य और दूसरे महापुरुषों द्वारा भारत की जिस राष्ट्रीयता की अवधारणा को सदियों तक पोषित किया गया था, उसे दिनकर ने आधुनिक संदर्भ में सैद्धांतिक आधार देकर लोगों में अपने राष्ट्र के प्रति गौरव का बोध भरा. इससे भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई को काफी ताकत मिली.
Controversy On Dinkar As National Poet : क्या दिनकर का राष्ट्रबोध अपरिपक्व है?
डॉ. प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि ‘संस्कृति के चार अध्याय’ दिनकर की एक उत्कृष्ट कृति है. इसे भारतीय राष्ट्रीयता का गौरव बोध जागृत करने के लिए लिखा गया था. इसके पहले ही पृष्ठ पर रवींद्र नाथ टैगोर की एक कविता है-
हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्रविड़-चीन,
शक-हूण-दल, पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन।
(अर्थात आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान और मुगल सभी भारतीयता के शरीर में विलीन हो गए)
इससे साफ है कि दिनकर रवींद्रनाथ टैगोर की इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत अलग-अलग संस्कृतियों से मिलकर बना है. वही दिनकर परशुराम की प्रतीक्षा लिखकर भारत के राष्ट्र नायक के रूप में परशुराम को स्थापित करने की कोशिश करते हैं.
मणि के मुताबिक, परशुराम हिंदू मिथकों के प्रतिनिधि नायक हैं, वे समस्त भारतीयता के प्रतीक पुरुष नहीं हो सकते हैं. उसमें भी परशुराम जिस तरह से क्षत्रिय राजाओं के हंता के रूप में ख्याति प्राप्त करते हैं, उसे लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार नहीं किया सकता है. यहां दिनकर का खंडित और विरोधाभासी राष्ट्रबोध स्पष्ट दिख रहा है. इससे साफ है कि दिनकर का राष्ट्रबोध अपरिपक्व है.
दिनकर बिहार के रहने वाले थे, इसके बावजूद उनकी कविताओं से बुद्ध गायब हैं और बुद्ध के बिना भारत की राष्ट्रीयता की तस्वीर कैसी बनेगी, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि रश्मिरथी लिखकर तो दिनकर ने समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों का सम्मान उनकी जाति की जगह उनकी प्रतिभा के आधार पर करने के विचार के साथ झकझोर दिया. परंतु, दिनकर की अधिकतर कविताएं मुझे प्रभावित नहीं कर पाती हैं. उन्होंने महाभारत के आधार पर कुरुक्षेत्र लिखकर मिथकों के संदेश को प्रसारित किया, परंतु कुरुक्षेत्र में समकालीन समाज से कोई संवाद नहीं दिखता है.
वहीं धर्मवीर भारती लिखित महाभारत पर आधारित उपन्यास अंधा युग की विषय-वस्तु कुरुक्षेत्र से कहींं अधिक श्रेष्ठ है. दिनकर की मेरी आलोचना को अपने पिता से होने वाली शिकायत की तरह ही देखा जाना चाहिए. मैं मानता हूं कि उनकी विराट प्रतिभा से कहीं अधिक श्रेष्ठ साहित्य सृजित हो सकते थे.
Controversy On Dinkar As National Poet : दिनकर की हर कृति में राष्ट्र के लिए मर-मिटने की हुंकार है
डॉ. प्रमोद कुमार सिंह कहते हैं कि दिनकर की कृतियों में जो एक स्वर कॉमन है- वह है राष्ट्र के लिए मर-मिटने की हुंकार. यहां तक कि उर्वशी जैसे श्रृंगारिक काव्य ग्रंथ में भी भारत के एक राष्ट्र होने का स्वरूप है. परशुराम की प्रतीक्षा उन्होंने कोई ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए नहीं लिखी. बल्कि आजादी के बाद झंझावातों में घिरे देश को कैसा नायक चाहिए, इसकी तलाश दिनकर को परशुराम पर जाकर खत्म होती प्रतीत होती है. यहां परशुराम केवल प्रतीक हैं.
परशुराम संपूर्ण ऐतिहासिक भारतीयता के प्रतिनिधि हैं. यहां रवींद्र नाथ ठाकुर के राष्ट्र की अवधारणा के समर्थन से दिनकर का कोई विरोधाभास नहीं है. दिनकर राष्ट्र नायक के रूप में किसे देखना चाहते हैं, यह तो उनकी जनतंत्र का जन्म कविता में स्पष्ट है….
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो की जनता आती है।
प्रमोद जी कहते हैं कि परशुराम की प्रतीक्षा लिखने पर उस समय के बड़े कांग्रेस नेताओं ने दिनकर के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बयान देकर दिनकर पर राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ लोगों को भड़काने तक का आरोप लगाया. तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री उमाशंकर दीक्षित भी कुपित हुए. उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों के सिलेबस से दिनकर की पुस्तकें हटाई जाने लगीं. लेकिन दिनकर का ध्येय तो उनकी ही इन पंक्तियों से समझा जा सकता है:
विष का सदा लहू में संचार मांगता हूं
बेचैन जिंदगी का मैं प्यार मांगता हूं
प्यारे स्वदेश के हित वरदान मांगता हूं
तेरी दया विपद् में भगवान मांगता हूं।
जिस कवि का हर शब्द राष्ट्र के लिए समर्पित रहा, उसे राष्ट्रकवि कहने में गुनाह कैसा?
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