Diplomat Muchkund Dubey: वे दुनिया के महान कूटनीतिज्ञ थे. पर कूटनीति की मेज से उठते ही वे अपने मन, वचन और कर्म से चालाकी हटा देते थे. विदेश नीति की बिसात पर चतुर चालें चलते हुए भी उनका दिल समाज के अंतिम आदमी के लिए धड़कता था. झारखंड के देवघर जिले का सिमरिया तो मुचकुंद दूबे के रोम-रोम में बसता था. यह कहते हुए भारत के पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा रुंआसे हो जाते हैं.
प्रभात खबर से बात करते हुए यशवंत सिन्हा कहते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद बनी नई विश्व व्यवस्था को लेकर दुनिया में अफरातफरी का आलम था. 1990-91 के उस कठिन दौर में विदेश सचिव रहते हुए मुचकुंद दूबे ने भारत के रणनीतिक महत्व का पाठ दुनिया को इतनी होशियारी से पढ़ाया कि सभी उनके कायल हो गए. मैं उस समय देश का वित्त मंत्री था. इसलिए हमलोगों ने साथ मिलकर कई अंतर्राष्ट्रीय दुरभि संधियों की काट निकाली थी. हालांकि मैं उन्हें छात्र जीवन से ही जानता था. वे पटना कॉलेज में मुझसे दो साल सीनियर थे.
कभी गोड्डा से लोकसभा चुनाव लड़ने का मिला था ऑफर
मुचकुंद दूबे के लिए सियासत सामाजिक बदलाव का महत्वपूर्ण माध्यम था. उनसे लंबे समय तक जुड़े रहे पटना क़ॉलेज के पूर्व प्राचार्य नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें गोड्डा से लोकसभा चुनाव लड़ने का ऑफर दिया था. दूबे जी भी इसे लेकर गंभीर थे. बाद में किसी मसले पर उनका मन बदल गया और उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता तक नहीं ली.
मार्क्सशीट भेज देने पर पटना यूनिवर्सिटी के टॉपरों को भेजते थे पैसा
पटना कॉलेज के हॉस्टल में कमरा मिल जाने पर भी मुचकुंद दूबे का संधर्ष कम नहीं होता है. पिता जयगोविंद दूबे वैध का काम कर किसी तरह घर का खर्च चलाते थे. वे बेटे की पढ़ाई के लिए पटना पैसा नहीं भेज पाते थे. इस कारण मुचकुंद दूबे के खाने के लाले पड़ जाते थे. बाद में सहपाठियों ने इस समस्या का समाधान निकाला. उनसे लंबे समय तक जुड़े रहे सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सिंह कहते हैं कि सामूहिक रूप से चंदा जमा कर सहपाठी दूबे जी के मेस का खर्च निकाला करते थे. मुचकुंद दूबे ताउम्र इसका कर्ज चुकाते रहे. पटना यूनिवर्सिटी के जो टॉपर उन्हें अपना मार्क्सशीट भेज देते थे, उसे वे कुछ न कुछ पैसा मनीऑर्डर करते रहते थे.
पैसे बिना कॉलेज के बरामदे में डेढ़ महीने काटी रात
पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य नवल किशोऱ चौधऱी कहते हैं कि गुरबत का जो अहसास मुचकुंद दूबे ने झेला है, शायद ही उनके कद के किसी दूसरे व्यक्ति ने झेला हो. वे जसीडीह से चलकर जब पटना पहुंचते हैं और पटना क़ॉलेज में नामांकन लेते हैं तो उन्हें सिर छिपाने के लिए भी कोई ठिकाना नहीं मिलता है. आखिर में दूबे जी पटना कॉ़ेलेज के एक बरामदे में डेढ़ महीने रात बीताते हैं. फिर जब हॉस्टल में कमरा मिलता है तो वे शिफ्ट हो जाते हैं.
सोते-जागते देखते थे केवल समान शिक्षा का सपना
वे यौवन के मध्यान्ह में ही ऐश्वर्य के शिखर पर पहुंच गए थे. पर उसमें लिप्त नहीं हुए थे. जरा सी छुट्टी मिलते ही पटना चले आते थे और बिहार में शिक्षा की गैरबराबरी कैेसे मिटे, इसके लिए योजना बनाते थे. यह कहते हुए राइट टू एजूकेशन कार्यकर्ता अनिल राय यह बताते हैं कि सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें बिहार सरकार ने समान शिक्षा आय़ोग का अध्य़क्ष बनाया. उस आयोग की व्यापक रिपोर्ट भी आई. लेकिन उस रिपोर्ट के लागू नहीं होने से वे व्यथित रहते थे. वे शिक्षा में समान अवसर की मांग को जनांदोलन बनाने के लिए दिन-रात लगे रहते थे.
लालन फकीर की गीतों का हिंदी-अग्रेजी में किया अनुवाद
रणनीतिक विशेषज्ञ, अर्थशास्त्र के धुरंधर और समान शिक्षा के पैरोकार होने पर भी मुचकुंद दूबे का मन साहित्य में खूब रमता था. राइट टू एजुकेशन फोरम से जुड़े मित्ररंजन कहते हैं कि उन्होंने बांग्ला के महान लालन फकीर की गीतों का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद कर उसे विश्व फलक पर मशहूर कर दिया. इस पुस्तक का लोकार्पण प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में हुआ था.
जब झारखंड के गवर्नर ने शपथ-ग्रहण में ‘पाकिस्तानी संविधान’ के शब्द दोहराए