आदिवासियत को स्थापित कर सांस्कृतिक पुनर्जागरण लाने वाले हीरो राम दयाल मुंडा

Dr Ram Dayal Munda : 23 अगस्त 1939 को राम दयाल मुंडा का जन्म रांची जिले के तमाड़ क्षेत्र अंतर्गत दिउड़ी गांव में हुआ था. राम दयाल मुंडा को बचपन से ही इस तरह का माहौल मिला कि उनके साहित्यिक गुण उभरकर सामने आए. राम दयाल मुंडा ने आदिवासी समाज और राष्ट्र के लिए कई ऐसे काम किए जिनके लिए ना सिर्फ आदिवासी समाज बल्कि पूरी मानवता ऋणी रहेगी.

By Rajneesh Anand | August 23, 2024 3:41 PM
an image

Dr Ram Dayal Munda : डाॅ राम दयाल मुंडा आदिवासी समाज के एक ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी बौद्धिकता के बल पर ना सिर्फ देश बल्कि विदेश में भी जगह बनाई. उन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया और आदिवासी समाज को अपनी जड़ों से मजबूती से जुड़कर रहना सिखाया. 23 अगस्त 1939 को राम दयाल मुंडा का जन्म रांची जिले के तमाड़ क्षेत्र अंतर्गत दिउड़ी गांव में हुआ था. राम दयाल मुंडा को बचपन से ही इस तरह का माहौल मिला कि उनके साहित्यिक गुण उभरकर सामने आए. राम दयाल मुंडा ने आदिवासी समाज और राष्ट्र के लिए कई ऐसे काम किए जिनके लिए ना सिर्फ आदिवासी समाज बल्कि पूरी मानवता ऋणी रहेगी.

मुंडारी रामायण और प्रीति पाला कृष्ण काव्य का हिंदी में अनुवाद

प्रभात खबर के साथ बातचीत में प्रसिद्ध साहित्यकार रणेंद्र ने बताया कि अगर डाॅ राम दयाल मुंडा के योगदानों को याद करें तो सबसे पहले याद आता है मुंडारी रामायण और प्रीति पाला कृष्ण काव्य का हिंदी में अनुवाद. उन्होंने मुंडारी कविताओं का संकलन करके उसका अनुवाद किया. वे मुंडारी के पहले कवि थे जिन्होंने तुकबंदी या कहें कि छंद को छोड़कर रचनाएं की. उनकी कविताओं में आधुनिकता का बोध तो था, लेकिन वे अपनी जड़ों से जुड़े थे. 

सरहुल जुलूस के जरिए सांस्कृतिक आंदोलन

राम दयाल मुंडा के योगदानों की चर्चा करें, तो कभी ना भूलने वाली चीज है सरहुल को व्यापकता देना. सरहुल के जुलूस की शुरुआत रांची में भले ही कार्तिक उरांव ने की थी, लेकिन उसे विस्तार देने का काम राम दयाल मुंडा ने किया. शुरुआत में लोग सरहुल के जुलूस में शामिल नहीं होना चाहते थे, वे संकोच करते थे, लेकिन जब उन्होंने यह देखा कि एक अमेरिका का प्रोफेसर रांची की सड़कों पर उतरा है वह भी धोती और कुर्ते में और मांदर बजा रहा है, तो उनके मन में गौरव का भाव जागा और धीरे-धीरे इस भाव का विस्तार हुआ. यह बड़ी बात नहीं है कि आज लाखों लोग सरहुल की जुलूस में शामिल होते हैं, बड़ी बात यह है कि जुलूस अब गौरव का विषय है और यह आदिवासियत का विस्तार है. यह एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसने आदिवासियों को अपनी जड़ों से जोड़ा. वे लोग जो काम करने सिमडेगा, महुआडांड और अन्य क्षेत्रों से रांची आए थे, उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी जो जड़ों से दूर हो रही थी, उन्हें जड़ों से जोड़ा. यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण था. 

Also Read : कोई व्यक्ति क्यों करता है एक महिला से दरिंदगी? क्या है इसके पीछे का मनोविज्ञान

राम दयाल मुंडा के सरहुल गीतों में सामुदायिकता का भाव तो था, अपने समाज के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत के महान लोगों के प्रति भी कृतज्ञता थी. उनके गीतों में महात्मा गांधी, भगत सिंह, कार्ल मार्क्स और आइंस्टीन भी पुरखा के रूप में मौजूद थे और वे सबको अपने साथ एक दोना में खाने का निमंत्रण देते हैं. यह भाव बहुत सुंदर और व्यापक है.

राम दयाल मुंडा को अपनी जड़ों पर गर्व था

राम दयाल मुंडा के बेटे गुंजल इकिर मुंडा का कहना है कि उनके पिता ना सिर्फ आदिवासी समाज के तौर तरीकों और उसकी जड़ों पर यकीन करते थे और उसपर गर्व करते थे, बल्कि यह उनके व्यवहार में दिखता भी था. गुंजल इकिर मुंडा ने कहा कि कई लोग बातें करते हैं लेकिन व्यवहार में उसे नहीं लाते हैं, लेकिन मेरे पिताजी पहले अपनाते थे तब उसके विस्तार की बात करते थे. वे चाहे देश में रहे या फिर विदेश में कभी भी अपनी जड़ों से दूर नहीं हुए. अपने काल के वे पहले व्यक्ति होंगे जिन्होंने विदेश में जाकर पढ़ाई करने के बावजूद अपने जड़ों को नहीं छोड़ा और भावी पीढ़ी को भी यह सिखाया कि किस तरह अपनी जड़ों से जुड़कर रहा जाता है. उन्होंने युवाओं को यह बताया कि आदिवासियत का प्रस्तुतीकरण किस तरह करना है.

रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी भाषा विभाग की स्थापना

राम दयाल मुंडा सांस्कृतिक पुनर्जागरण लेकर आए. उन्होंने अपने नेतृत्व में रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी भाषा विभाग की स्थापना करवाई. यह उस समय पूरे देश में पहला विभाग था, जहां आदिवासी भाषाओं की पढ़ाई होती थी. उनका यह मानना था कि आदिवासियत का विकास तभी संभव है जब संस्कृति और साहित्य की चीजों का दस्तावेजीकरण हो. मौखिक चीजें नष्ट हो जाती है और आदिवासियों का अधिकतर साहित्य और धार्मिक चीजें मौखिक ही थीं. उन्होंने अपने प्रयासों से सबसे पहले धार्मिक मंत्रों और पूजा पद्धति का दस्तावेजीकरण किया और ‘आदि धर्म’ नामक किताब हिंदी और मुंडारी में लिखी जिसमें मुंडा आदिवासियों की पूजा पद्धति, गीत और मंत्र सुरक्षित हैं. इस पुस्तक में शादी-विवाह, पर्व  और श्राद्ध कर्म का विधान लिखित है.

आदिवासी संगीत का ओपेरा स्टाइल में प्रस्तुतीकरण

राम दयाल मुंडा ने मुंडा लोककथाओं का संकलन करके उसका हिंदी में अनुवाद किया. जब वे 10वीं कक्षा में पढ़ते थे तो जगदीश त्रिगुणायत के साथ 1950 में लोककथाओं पर काम किया. उन्होंने लोक कथाओं का लेखन किया, तो उसका थीम इस प्रकार का रखा ताकि आदिवासियत का विस्तार हो और लोग अपनी जड़ों से जुड़ें. कला संस्कृति के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया और आदिवासी संस्कृति को विश्व के सामने लाने का काम किया. उन्होंने अपने लोगों को सिखाया कि जब आप स्टेज पर परफाॅर्म करते हैं तो कैसे सुंदर प्रस्तुतीकरण हो सकता है, ताकि लोग आपकी चीजों को समझें और उनसे जुड़ें. 

उन्होंने आदिवासी संगीत का ओपेरा स्टाइल में प्रस्तुतीकरण करवाया. उन्होंने पाइका नृत्य का भी प्रसार करवाया और छऊ नृत्य के थीम पर काम किया. उन्होंने इसके थीम को इस तरह विकसित किया कि आदिवासी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया जा सके. उनकी यह कोशिश थी कि आदिवासी समाज हमेशा अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़ा रहे. आदिवासी भाषा विभाग उनका स्वप्न था जिसका उद्देश्य शिक्षा को रोजगार से जोड़ना था. आज की पीढ़ी अगर आदिवासियत पर गर्व कर रही है, तो उसका श्रेय पिताजी को जाता है.

Also Read : मुस्लिम विवाह और तलाक का रजिस्ट्रेशन जरूरी होगा, तो क्या रस्मों और रिवाजों पर पड़ेगा असर? क्या कहते हैं मुस्लिम धर्म गुरु …

FAQ राम दयाल मुंडा का जन्म कब हुआ था?

राम दयाल मुंडा का जन्म 23 अगस्त 1939 को हुआ था.

राम दयाल मुंडा किस विश्वविद्यालय के वीसी रहे थे?

राम दयाल मुंडा रांची विश्वविद्यालय के वीसी रहे थे.

Exit mobile version