Explainer : अविश्वास प्रस्ताव के वक्त स्पीकर के पास होता है निर्णायक वोट, जानें 18वीं लोकसभा में पद का महत्व
लोकसभा स्पीकर का पद काफी गरिमापूर्ण होता है. उनके पास सदन की कार्यवाही को संचालित करने की तमाम प्रशासनिक शक्तियां होती हैं. साथ ही वे निष्पक्ष होकर कई मैच्योर फैसले भी लेते हैं.
Lok Sabha Speaker : लोकसभा के स्पीकर पद का चुनाव बुधवार 26 जून को हुआ. यह चुनाव देश में लगभग 49 साल बाद हुआ, क्योंकि इससे पहले सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहमति लोकसभा अध्यक्ष के पद को लेकर बन जाती थी. 18वीं लोकसभा में यह सहमति नहीं बन पाई क्योंकि विपक्ष ने एक सुर में यह कहा कि वे लोकसभा के स्पीकर के पद को लेकर सत्ता पक्ष के उम्मीदवार ओम बिरला का समर्थन करेंगे, बशर्ते कि विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद दिया जाए. लेकिन एनडीए की ओर से यह कहा गया कि समर्थन देने से पहले ही इस तरह की शर्त लगाना उचित नहीं है,परिणाम यह हुआ कि विपक्ष ने अपना उम्मीदवार अध्यक्ष पद के लिए उतार दिया और लगभग 49 साल बाद लोकसभा के अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ.
कब-कब हो चुका है लोकसभा स्पीकर का चुनाव?
परंपरा के अनुसार लोकसभा अध्यक्ष के पद पर सत्ता पक्ष का ही कोई व्यक्ति आसीन होता है और उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को मिलता है. कई बार अपवाद भी हुए हैं जिसकी वजह से सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हुआ है. 1952 में जब देश में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए और लोकसभा गठित हुई तो स्पीकर के पद को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने संविधान सभा के सदस्य रहे जीवी मावलंकर के नाम का प्रस्ताव रखा, लेकिन विपक्ष ने उनके नाम पर अपनी सहमति नहीं जताई और शंकर शांताराम मोरे को चुनाव में उतारा. कांग्रेस के पास पर्याप्त बहुमत था, इसलिए मोरे चुनाव हार गए.
1967 में कांग्रेस के नीलम संजीव रेड्डी और विपक्ष के उम्मीदवार टी विश्वनाथन के बीच मुकाबला हुआ था. रेड्डी को 278 और विश्वनाथन को 207 वोट मिले थे. इमरजेंसी के बाद 1976 में भी लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव को लेकर मत विभाजन की स्थिति बनी थी. इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ाया था. उस वक्त भी कांग्रेस के बलिराम भगत और बीजेपी के जगन्नाथ राव जोशी के बीच मुकाबला हुआ था, चुनाव के दौरान पक्ष में 344 और विपक्ष में 58 वोट पड़े थे.
लोकसभा स्पीकर का पद इतना महत्वपूर्ण क्यों?
लोकसभा अध्यक्ष का पद बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि अध्यक्ष यानी स्पीकर के हाथों में ही लोकसभा को संचालित करने की शक्तियां होती हैं. सदन का एजेंडा वह तय करते हैं. किस मुद्दे पर चर्चा होगी, किस मुद्दे पर मत विभाजन होगा, यह तमाम शक्तियां स्पीकर के पास होती हैं. धन विधेयक को निर्धारित करने की शक्तियां भी उसी के पास होती हैं. सदन का संचालन सही तरीके से हो यह तय करना भी स्पीकर का ही काम होता है.
वो सांसदों को दंडित भी कर सकता है. स्पीकर के कार्यों और उनके अधिकारों पर बात करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ रीना नंद ने बताया कि स्पीकर के पास लोकसभा की कार्यवाही को संचालित करने की तमाम प्रशासनिक शक्तियां होती हैं. वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि सभी पार्टियों के साथ न्याय हो. कई बार स्पीकर को स्वविवेक से कई मैच्योर फैसले भी लेने होते हैं, यही वजह है कि संसद के वरिष्ठ और गरिमा से परिपूर्ण व्यक्ति को ही इस पद के लिए उपयुक्त माना जाता है.
वह कहती हैं कि अगर सदन में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जाए और मतदान में पक्ष और विपक्ष का वोट एक समान यानी बराबर हो जाए तो स्पीकर के पास यह अधिकार होता है कि वे निर्णायक वोट दें. यह खास अधिकार स्पीकर के पद को बहुत ही महत्वपूर्ण बना देता है. सामान्य स्थिति में स्पीकर को वोट देने का अधिकार नहीं होता है, वे केवल मत समता की स्थिति में ही मतदान कर सकते हैं.
18वीं लोकसभा में इतना महत्वपूर्ण क्यों है स्पीकर का पद
प्रभात खबर के कार्यकारी संपादक अनुज सिन्हा ने बताया कि 18वीं लोकसभा में किसी भी दल को बहुमत नहीं है, इसलिए स्पीकर का पद बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. अगर किसी भी तरह का दल-बदल होता है, तो अंतिम निर्णय का अधिकार स्पीकर के पास होगा. इसके अलावा किसी विषय पर किस नियम के तहत बहस कराना है और नहीं कराना है, यह निर्णय करने का अधिकार भी उनके पास है. कई बार विपक्ष किसी खास नियम के तहत बहस कराने की मांग करता है जिसमें मतदान का प्रावधान हो. लेकिन यह स्पीकर का विशेष अधिकार है कि वह किस नियम के तहत बहस कराएगा और किसके तहत नहीं. इन वजहों से इस बार की लोकसभा में स्पीकर का पद बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है.
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