26.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः जहां महादेव मंडा बन जाते हैं और अंगारे फूल

आदिवासी अपने देवता को विराट और विहंगम में सोचता है. यह इन्हें खुशियां देने के साथ ही दुख से बचाता है. विश्वास और आस्था का यह ऐसा स्थापित साक्ष्य है, जो परंपरा बन गई है. मंडा पूजा में झारखंड के आदिवासियों के अंगारों पर खुशी से मचलने का राज भी ऐसी ही कोई परंपरा है या इसमें छिपा है कोई दर्शन….

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः सचमुच सावन के शिव की छटा निराली है. चारों ओर फैली हरियाली के बीच केसरिया परिधान में निकलते कांवरियों की कतार हर ओर हर-हर, बम-बम से दिशाएं गुंजा रही हैं. सावन में महादेव की बरसती महिमा बटोरने की शास्त्रीय परंपरा के पथ पर चलते श्रद्धालु शिव की भक्ति में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाह रहे हैं. पर पहाड़, जंगल और कंदराओं में विचरण करने वाले शिव की भक्ति में राजपथ पर चलने वाले कांवरिये जब भाव-विभोर हो रहे हैं तो वनों और पर्वत के साथ अपनापा का जीवन जीने वाले आदिवासी कहां पीछे रहने वाले हैं. 

झारखंड का आदिवासी शिवलोकःआदिवासियों के मंडा की क्या है फिलॉसफी 

झारखंड के आदिवासियों के लिए तो देवाधिदेव महादेव उनके प्यारे मंडा हैं. जो उनके ग्राम देवता के रूप में हर गांव के बाहर महादेव मांड़ा में विराजमान हैं. हर दुख, मुसीबत, बीमारी में ये बचाते हैं. विश्वास और आस्था का यह ऐसा स्थापित साक्ष्य है, जो परंपरा बन गई है. मंडा की महिमा पाने के लिए आदिवासी 11 दिनों का कठोर व्रत करते हैं. फिर अंगारों पर खुशी से मचलते हुए चलते हैं. पर दहकते अंगारे मंडा भक्तों के लिए फूल से शीतल कैसे बन जाते हैं? जवाब में आदिवासी विद्वान और पूर्व विधायक शिवशंकर उरांव प्रभात खबर से कहते हैं कि इस चमत्कार का अनुभव आदिवासी दर्शन में छिपा है. अंगारों से चलकर जब हम मंडा भावलोक में प्रवेश करते हैं तो हमारी अनुभूतियां सब तकलीफों और पीड़ाओं से मुक्त हो जाती हैं. अंगारों पर चलना दरअसल सत्य के पक्ष में चलना है और सत्य के पक्ष में होना है. सत्याचरण करना है. अंगारों के बहाने सत्य की राह चलकर ही आदिवासी मंडा को पाना चाहते हैं. 

Shiv Shankar Urao
झारखंड का आदिवासी शिवलोकः जहां महादेव मंडा बन जाते हैं और अंगारे फूल 3

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः कैसे शुरू हुई परंपरा, बताने में क्यों चूक रहा इतिहास

अक्षय तृतीया से लेकर जेठ पूर्णिमा तक झारखंड के छोटानागपुर इलाके के दक्षिणी और पूर्वी भाग में मंडा पूजा अलग-अलग समय में आयोजित की जाती है. इस पूरे वातावरण का हिस्सा बनना, खामोशी से एक-एक अभिप्राय को देखना, समझना और एक-एक कर जानने के अनुभव अनूठे हैं. यह सचमुच लोकचेतना के व्यापक विस्तार की यात्रा है. पर कठिन व्रत के साथ 11 दिनों तक श्रद्धा के सागर में डुबकी लगाते श्रद्धालु भक्ति का जो मोती चुनते हैं, आखिर उसका स्रोत कहां है? इस सवाल के सामने शास्त्र मौन हो जाते हैं. परंपरा इतनी पुरानी है कि इतिहास का चमत्कारिक आलोक भी गहन अतीत के पार के उस काल बिंदु को देखने में चूक जाता है. 

झारखंड को नागभूमि कहा जााता है. मुंडाओं ने यहां आने पर इस झारखंड को नाग दिसुम कह कर संबोधित किया. आदिवासी आस्था में नाग प्रिय महादेव की प्रिय भूमि झारखंड है. इस राज्य में शास्त्रीय आख्यान के प्रतिमान प्रतीक बाबा वैद्यनाथ से लेकर बाबा बासुकीनाथ तक तो लोक आस्था में रचे-बसे बूढ़ा महादेव से लेकर टांगीनाथ महादेव तक सर्वत्र विराजमान हैं. महादेव मांड़ा तो अधिकतर गांव में हैं. डॉ. गिरिधारी राम गौंझू अपने एक लेख में कहते हैं कि मंडा पर्व शुरू होने के बारे में असुरों से जुड़ी कथा प्रचलित है. परंतु, भक्तों के लिए इसका स्रोत जानने से अधिक आस्था का पक्ष प्रबल है. 

Giridhari Ram Gaunjhu
झारखंड का आदिवासी शिवलोकः जहां महादेव मंडा बन जाते हैं और अंगारे फूल 4

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः तपस्या की पवित्रता से रखते हैं मंडा का व्रत 

मंडा पर्व के 11-12 दिनों के व्रत के दौरान मांस, मछली, मदिरा का सेवन पूर्णतः वर्जित रहता है. दूसरे दिन से नौवें दिन तक साड़ी की धोती पहने सभी भगतिया महादेव मांड़ा में माथा टेकने के बाद गांव-गांव, घर-घर घूमकर बच्चों को सामने बिठा कर अपने पैरों से आशीष देते हैं. घर-आंगन, चौराहे पर सभी भगतिया जुड़ कर गाजे-बाजे के साथ नृत्य करते हैं.  नौवें दिन सभी भगतिया पूर्णतः उपवास एवं निर्जला रहकर पूजा में शामिल होते हैं. रात में महादेव मांड़ा स्थल के खुले भाग में लकड़ी का ढेर लगाते हैं. उसे जलाकर अंगार बना देते हैं. उसके ऊपर एक रस्सी टंगी होती है. उसमें पैर फंसाकर उलटे सिर लटकाकर भगतिया लोगों को बारी-बारी से झुलाया जाता है. भगतिया लोगों को नीचे अंगार पर जल रहे धूप के धुएं को अपने शऱीर के भीतर ग्रहण करना होता है. 

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः दहकते अंगारे भयंकर की जगह ऐसे बन जाते हैं प्रियंकर

नौवें दिन दो बजे रात के बाद भगतिया नदी में स्नान कर लौटते हैं. फिर 10 से 15 फीट लंबे आग के ढेर पर से पाट भगता अपनी अंगुली में आग उठाकर महादेव मांड़ा के शिवलिंग पर चढ़ाता है. सभी भगतिया इस अग्नि के चारों ओर गोलाकार खड़े होकर नृत्य करते रहते हैं. इसके बाद पाट भगता आग की इस पूरी लंबाई में इस तरह चलता है, जैसे फूल पर चल रहा हो. इसलिए इसे फूल खुंदी कहते हैं. पाट भगता के बाद सभी भगता बारी-बारी से फूल खुंदी करते हैं. इसे जागरण की रात भी कहते हैं. दसवां दिन मेले का दिन होता है. पाट भगता कांटी के सेज पर सोकर महादेव मांड़ा से झूलन स्थल तक आता है. इस समय पाट भगता लोगों की भीड़ पर गुलइची फूल लुटाता रहता है. इसे शुभ और पवित्र प्रसाद मानकर लोग लपकते हैं और सालभर अपने घरों में सुरक्षित रखते हैं. फिर भगतिया लोगों को 15-20 फीट ऊंची रस्सी से लटकाकर झुलाया जाता है. भगतिया लोगों को झूलने के बाद उतरने वाले लोगों को उनके बलिष्ठ स्वजन कंधे पर बिठाकर घर ले जाते हैं. 11वें दिन मंडा छठी होती है. इसे गणेश की छठी भी कहा जाता है. इसी के साथ पर्व का समापन हो जाता है.

झारखंड का आदिवासी शिवलोकः गैर आदिवासियों के लिए भी होता है उत्सव और आस्था का संगम

मंडा पर्व की भक्ति का प्रकाश अब झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों की परिधि के पार भी फैल रहा है. लंबे समय से झारखंड में रह रहे लोगों के लिए भी यह आस्था और उत्सव के संगम की तरह होता है. शहरी समाज एक ओर जहां इस पर्व के अवसर पर लगने वाले मेलों का लुत्फ उठाता है, वहीं शिव महिमा की भक्ति की शक्ति के आगे शरणागत भी होता है. शहरी सभ्यता में सुविधा का जीवन जीने वाले लोगों के लिए आदिवासी जीवन और उनकी परंपराओं के प्रति आकर्षण की अपनी स्वाभाविकता है. इन्हीं सब अनुभवों और कल्पनाओं के साथ आदिवासी जीवन की विलक्षण मान्यताओं और विश्वासों को अनुभव करते हुए प्रकृति के साथ उनके साहचर्य का अनुकरण करना भी समय की मांग है. 

ALSO READ: Jharkhand Assembly सत्र के दौरान शलाका के लिए परेशान रहते हैं विधायक, क्या होता है शलाका?

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें