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गुरु पूर्णिमाः RSS किस गुरु की करता है पूजा? हिंदुओं को कितना स्वीकार ?

आखिर आरएसएस का गुरु कौन है? हिंदू परंपरा या सनातन समाज को यह कितना स्वीकार है? क्या आरएसएस के गुरु पर आम हिंदुओं की भी श्रद्धा है?

By Mukesh Balyogi | July 21, 2024 9:11 PM
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गुरु पूर्णिमा पर आपके कानों में कहीं से यह आवाज आ सकती है…

विश्व गुरु तव अर्चना मे भेंट अर्पण क्या करें

जब कि तन मन धन तुम्हारे, और पूजन क्या करें……

यह सुनकर आप यह मत मान लीजिएगा कि कहीं पर विश्वगुरु मतलब भारत की पूजा हो रही है. जरूर आरएसएस के स्वयंसेवक अपने गुरु की पूजा कर रहे होंगे. सामान्य बुद्धि में तो विश्वगुरु भारत को ही कहा जाता है. आरएसएस भी भारत को विश्वगुरु कहता है. पर विश्वगुरु भारत से अलग भी आरएसएस का एक गुरु है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि खुद को राष्ट्रवादी और भारतभक्त कहने वाला संगठन विश्वगुरु भारत के अलावा और किस गुरु की पूजा करता है?

RSS के स्वयंसेवक गोलवलकर को भी गुरु जी कहते हैं 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नजदीक से नहीं जानने वालों की धारणा है कि गुरु गोलवलकर को ही आरएसएस के स्वयंसेवक गुरु मानते हैं. पर सच्चाई अलग है. राजनीतिक और बौद्धिक हलके में आरएसएस के विचारों को गुरु गोलवलकर के नाम से कोट करने और स्वयंसेवकों के बीच गोलवलकर को गुरु जी कहे जाने के कारण यह धारणा बनी है. गोलवलकर दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक(चीफ) थे. उनका पूरा नाम माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक ढांचे के विकास में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई थी. उन्हें संघ के सिद्धांतकार के तौर पर भी जाना जाता है. 

मनुष्य में बुराई हो सकती है, हमेशा गुरु सा आदर्श नहीं हो सकता

RSS के प्रचार साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि मनुष्य बुराइयों का शिकार हो सकता है. ऐसी स्थिति में वह हर समय प्रेरणा का स्रोत नहीं हो सकता. इसलिए मनुष्य को संघ के स्वयंसेवकों के लिए गुरु बनाना खतरे से खाली नहीं है. इस कारण संघ की स्थापना के शुरुआती दिनों में ही व्यक्ति की जगह किसी महान प्रतीक को गुरु के रूप में पूजने पर सहमति बनी. काफी विचार मंथन के बाद खास आकृति वाले भगवा(केसरिया) ध्वज को गुरु के रूप में अपना लिया गया. शिवसेना का झंडा भी इसी से मिलता-जुलता है. महाराष्ट्र की लोक परंपरा में धार्मिक प्रतीक के रूप में इसे अपनाने का पुराना इतिहास रहा है. कहा जाता है कि मराठा शासक शिवाजी और उनके वंशजों ने भी इसे ही राजध्वज के तौर पर अपनाया था. 

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भगवा ध्वज क्या हिंदुओं का एकमात्र धर्मध्वज है?

क्या आरएसएस का भगवा ध्वज समस्त हिंदुओं का धर्मध्वज है? इस  सवाल के जवाब में आरएसएस के प्रचारक रहे अखिल भारतीय संत समिति के महामंत्री स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती ने प्रभात खबर को बताया कि भगवा यानी केसरिया रंग पर तो सभी हिंदुओं की श्रद्धा है. हिंदू दुनिया में कहीं भी हो, किसी आध्यात्मिक परंपरा का अनुसरण करते हों, उनके धर्मध्वज का रंग तो यही रहता है. हिंदू राजा भी भगवा रंग की ही विजय पताका फहराते थे. सर्वस्व समर्पण का रंग केसरिया या भगवा होने के कारण संन्यासी भी केसरिया बाना ही धारण करते हैं. हालांकि अलग-अलग इलाकों में हिंदुओं के विजय  पताकाओं की आकृति पहले भी अलग थी, धर्म पताकाएं आज भी अलग हैं. धर्म ध्वज भी अलग-अलग संन्यास या दार्शनिक परंपरा के तहत अलग-अलग रहते हैं. इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ध्वजा को भी हिंदुओं के धर्मध्वज की अनवरत श्रृंखला का एक हिस्सा ही मानना चाहिए.

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कहीं महाराष्ट्रियन उप राष्ट्रवाद का प्रतीक तो नहीं

प्रसिद्ध विद्वान और आरएसएस पर इमर्जिंग हिंदू फोर्सेस नामक पुस्तक लिखने वाले फादर प्रकाश लुईस प्रभात खबर से कहते हैं कि दरअसल भगवा ध्वज को गुरु, धर्म ध्वज, राष्ट्रीय ध्वज के समकक्ष और राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में प्रचारित करना हिंदुत्व की पुरानी वैचारिक परियोजना का हिस्सा है, जो अब परवान चढ़ रही है. यह भू-सांस्कृतिक अवधारणा को भू-राजनीतिक अवधारणा से जोड़ने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोशिशों का नतीजा है. इसकी जड़ें महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक के अभियानों में जाती है. सार्वजनिक गणेशोत्सव इसकी पहली कड़ी थी. इसके जरिये घरों में अपनाई जाने वाली स्थानीय धार्मिक परंपरा को राष्ट्रीय महत्व दिलाने की कोशिश की गई. आरएसएस भगवा ध्वज की जिस आकृति को अपनाता है, उसे शिवाजी का झंडा कहा जाता है. इस कारण शिवसेना का झंडा भी यही है. महाराष्ट्र के दूसरे धार्मिक संगठन भी इसे अपनाते हैं. महाराष्ट्र और कहीं-कहीं तेलंगाना के मंदिरों में भी इसे देखा जाता है. पर उस खास इलाके के बाहर कहीं भी आरएसएस की खास आकृति वाले भगवा ध्वज की धार्मिक या सामाजिक मान्यता नहीं है. 

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क्या बिना देहधारी हिंदू परंपरा में गुरु हो सकता है?

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अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया 

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः

(गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आंखें खोलकर मुझे घोर अज्ञान से बाहर निकाला. उस गुरु को प्रणाम है.)

ऊपर दिए गए श्लोक से साफ है कि गुरु जो ज्ञान देकर अज्ञान से बाहर निकाले. यह काम तो देहधारी गुरु ही कर सकता है. इसलिए आरएसएस का गुरु जो देहधारी नहीं है, क्या गुरु की इस कसौटी पर खऱा उतरता है? जवाब में विश्व हिंदू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव रहे डॉ. प्रवीण भाई तोगड़िया कहते हैं कि आखिर सगुण ब्रह्म के साथ ही निर्गुण ब्रह्म की साधना का भी विधान है. ओम् ईश्वरीय शक्ति है, पर अपौरुषेय य़ानी बिना देह के है.

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भगवा ध्वज हिंदुत्व के इतिहास का हिस्सा है या मिथक का ?

भगवा ध्वज का इतिहास कितना पुराना है ? कहीं ये मिथकों की  कल्पना से सृजित तो नहीं है? वामपंथी विचारक और भाकपा माले के मुखपत्र समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय प्रभात खबर से बातचीत में कहते हैं कि आरएसएस ने मिथक, इतिहास और यथार्थ का घालमेल कर सत्य और असत्य के बीच की विभाजन रेखा तक को मिटाने की कोशिश की है. इसका असर हिंदू धर्म की विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों और अलग-अलग विचार परंपरा तक पर देखी जा रही है. भगवा ध्वज के मिथक को भी आरएसएस की ओर से इसी तरह पहले इतिहास और अब भारत और भारतीयता के एकमात्र सांस्कृतिक प्रतीक यहां तक कि राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर भी  थोपने की कोशिश की जा रही है. 

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क्या भगवा ध्वज कभी नहीं हो सकता राष्ट्रध्वज

समाजवादी विचारक रघु ठाकुर प्रभात खबर से बातचीत में कहते हैं कि भगवा ध्वज की चर्चा वैदिक काल में कहीं नहीं मिलती है. इसकी शुरूआत शंकराचार्य संस्था के अस्त्तित्व में आने के बाद से है. उस समय भी हिंदू धर्म के अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग ध्वज थे. अयोध्या के संन्यासी पुराने समय में सफेद ध्वज लगाते थे. जो युद्धविहीनता और शांति का प्रतीक था. बाद में ब्रह्मचारियों ने भगवा वस्त्र इसलिए पहनना शुरू किया, क्योंकि भगवा रंग के वस्त्र में कम गर्मी लगती थी. भगवा ध्वज को तो एकमात्र गुरु भी नहीं कहा जा सकता है. क्योंकि पूरी सनातन परपंरा में कहीं एक गुरु की कल्पना ही नहीं है. अवतारों के भी कई-कई गुरु हैं. गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु अगर माना गया है तो इसलिए कि उनके शब्दों से हमें ज्ञान मिलता है. लेकिन झंडा और डंडा किसी का गुरु नहीं हो सकता है.  इसे महाराष्ट्रियन उपराष्ट्रवाद का प्रतीक कहना भी गलत होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी देशभक्तों की लंबी परंपरा रही है. महाराष्ट्र में भारत के राष्ट्रीय मूल्यों के साथ जीने वाले महापुरुषों की कतारें हैं. वहां उपराष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता है. दूसरी ओर अगर देखा जाय तो देश के दूसरे राज्यों की तरह वहां भी भौगोलिक विभाजन के आधार पर अलग-अलग प्रकृति वाले मराठवाड़ा, कोंकण और विदर्भ जैसे इलाके हैं.

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आरएसएस की विश्वदृष्टि को समझने में कहीं गलती तो नहीं 

भगवा रंग यानी केसरिया रंग और केसरिया ध्वज पर आम हिंदुओं की श्रद्धा निर्विवाद है. केसरिया रंग तो भारत के राष्ट्रीय ध्वज की सबसे ऊपर की पट्टी का भी है. इसके बावजूद आरएसएस के भगवा ध्वज को लेकर लगातार विवाद होते रहे हैं. इसका कारण कहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विश्वदृष्टि(worldview) को समझने में आलोचकों की भूल तो नहीं. कई बार यह भी सामने आता है कि आरएसएस के आलोचक दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवकर की किताब ‘विचार नवनीत’ को पकड़कर बैठ गए हैं. आरएसएस की काट के लिए इसी किताब से उद्धरण उठाकर बौद्धिक विमर्श के लिए उछाल देते हैं. जबकि आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस  के समय समावेशीकरण के स्तर पर लिए गए क्रांतिकारी फैसले राजनीतिक विमर्श से सर्वथा ओझल हैं. इसका एक कारण यह भी जान पड़ता है कि आरएसएस के ज्यादातर साहित्य या दस्तावेज संस्कृतनिष्ठ हिंदी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में हैं. इनमें से अधिकतर के अंग्रेजी में अनुवाद भी नहीं हुए हैं. देश में कथित बौद्धिक वातावरण बनाने वाले अधिकतर अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों के हाथ संस्कृतनिष्ठ हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में तंग हैं. वामपंथी विद्वान एजाज अहमद के एक लेख से इसकी झांकी मिलती है.

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उत्तर गोलवलकर दस्तावेजों पर संघ के आलोचक कम करते हैं चर्चा

समाजशास्त्री अभय कुमार दुबे अपने एक लेख में कहते हैं कि प्रचलित समझ संघ परिवार की विचार-यात्रा को खुली आंखों से देखने से इनकार करती है. इसलिए वह संघ की परिवर्तनशील कार्यक्रमगत संहिताओं की गहरी और विस्तृत समझ से वंचित रह जाती है. संघ परिवार को देखने-समझने की यह दृष्टि दिन दस्तावेजों पर आधारित है, वे पचास साल या उससे भी ज्यादा पुराने हैं. संघ एकचालकानुवर्तित्व से सहचालकानुवर्तित्व पर जा चुका है, पर अभी भी संघ को एकचालकानुवर्तित्व के सवाल पर घेरा जाता है. यह विमर्श संघ के उत्तर गोलवलकर दस्तावेजों को पढ़ने के लिए भी तैयार नहीं है. चूंकि संघ की वैचारिक गतिकी को समझने से इनकार किया जा रहा है. इसलिए उसकी नई राजनीति भी संज्ञान से बाहर चली गई है. 

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