सवसार से सरना धर्म कोड तक, जानें क्या है मुंडा समाज में धर्म के मायने
History of Munda Tribes : झारखंड के आदिवासियों का धर्म क्या है? यह बड़ा सवाल आदिवासियों के सामने तब आया, जब अंग्रेज भारत आए और उन्होंने आदिवासियों के सामने यह सवाल रखा. इससे पहले आदिवासी अपने धर्म और संस्कारों के साथ खुश थे. अंग्रेजों ने ही आदिवासियों को एनिमिस्टिक रिलिजन से जोड़ा.
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History of Munda Tribes 11 : धर्म क्या है? क्या आप एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं? अगर नहीं तो आप किस ईश्वर को सर्वोपरि मानते हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका सीधा जवाब देने में मुंडा समाज के लोग संकोच करते हैं. आखिर क्या वजह है कि मुंडा समाज के लोग धर्म से जुड़े इन सवालों का जवाब देने में खुद को सहज नहीं पाते?
मुंडा समाज और आदिवासियों के बीच धर्म
झारखंड के आदिवासी खासकर मुंडा समाज के लोग यह मानते हैं कि सिंगबोगा ने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना की है. उरांव जनजाति में धर्मेश ने और संतालों के बीच यह मान्यता है कि लुगु बुरु ने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना की है. मुंडा जनजाति के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा हैं, जिन्हें अदृश्य माना जाता है. उनकी कोई आकृति नहीं है, लेकिन मुंडा यह मानते हैं कि सिंगबोंगा की वजह से ही यह सृष्टि है. लेकिन मुंडा समाज में सिंगबोंगा ही एकमात्र देवता नहीं हैं. मुंडा समाज के पाहन सुखराम बताते हैं कि सिंगबोगा हमारे सर्वोच्च देवता हैं, लेकिन हम कई देवताओं की भी पूजा करते हैं. हमारे समाज में यह मान्यता है कि चाहे मदरा मुंडा हों या रीसा मुंडा, अगर वे अपने गांव और सीमान में बस सके और सुरक्षित रहे तो उसके पीछे पहाड़ और नदी देवता का आशीर्वाद है. इनकी कृपा से ही खेती होती है और इन्हें नाराज करने का बुरा प्रभाव समाज पर पड़ता है. इसलिए मुंडा समाज जहां भी रहता है, वो पहाड़ देवता, नदी देवता, ग्राम देवता और अन्य देवताओं की पूजा करता है और उनका आशीर्वाद प्राप्त करता है.
मुंडा आदिवासियों के देवी– देवता
- सिंगबोंगा–सृष्टि के रचियता
- बुरू बोंगा–पहाड़ के देवता
- इकिर बोंगा–नदी की देवी
- देवि बोंगा–ग्राम देवता
- बा जयर–सरहुल की देवी
- जयर एरा/ एंगा– सृष्टि की देवी
- नागे एरा–पानी की देवी
- अआ: कुटि सेकरि बोंगा- घर के आंगन के देवता
स्वर्ग–नर्क की परिकल्पना मुंडा समाज में नहीं है : गुंजल इकिर मुंडा
मुंडा समाज के बुद्धिजीवी गुंजल इकिर मुंडा का कहना है कि आदिवासियों के बीच स्वर्ग–नर्क की परिकल्पना नहीं है. हम इसमें विश्वास नहीं रखते हैं. आदिवासी समाज उन चीजों पर ज्यादा भरोसा करता है, जो उनके सामने होते हैं. जैसे अगर उन्हें यह कहा जाता है कि यह पहाड़ है और यह देवता है तो हम उसपर भरोसा करते हैं. पहाड़ दृश्य रूप में हमारे सामने है और वह हमारी रक्षा भी करता है. कुछ इसी तरह की सोच नदी के साथ भी है. नदी से खेती के लिए पानी मिलता है और आदिवासियों का जीवन उसपर निर्भर है. हम प्रकृति पूजक हैं और प्रकृति के तमाम स्वरूपों में धर्म को तलाशते हैं और वही हमारे देवता हैं. मुंडा समाज अवसर के हिसाब से विभिन्न देवी–देवताओं की पूजा करता है और उनके प्रति अपने सम्मान को दर्शाता है.
क्या है मुंडा आदिवासी का धर्म?
मुंडा आदिवासी या तमाम अन्य आदिवासियों का धर्म क्या है? यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि आदिवासी यह मानते हैं कि उनका धर्म अलग है. मुंडा समाज के बुद्धिजीवी डाॅ रामदयाल मुंडा ने अपनी किताब –‘आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल’ में लिखा है कि भारत के आदिवासी सबसे प्राचीन समुदाय हैं. जब आर्य भारत आए, तो उन्होंने यहां अन्य जातियों के लोगों को पाया. उन्होंने लिखा है कि संस्कृत साहित्य में जिन्हें असुर, निषाद, दस्यु, वानर और राक्षस कहकर संबोधित किया गया है, वही आदिवासी हैं. चूंकि आर्यों ने इन जातियों को हराकर अपने लिए यहां जगह बनाई, इसलिए वे इन जातियों के लोगों पर अपना रौब दिखाते हुए उनके बारे में कुछ भी लिखते हैं. आदिवासियों के धर्म के बारे में डाॅ राम दयाल मुंडा ने लिखा है कि जनगणना के दौरान आदिवासियों के धर्म आदिधर्म की उपेक्षा की गई और उसकी जगह हिंदू या अन्य धर्म का विकल्प ही रखा गया. जिसकी वजह से आदिवासियों ने अपने धर्म के स्थान पर हिंदू का विकल्प अपनाया. जबकि सच्चाई यह है कि आदिवासियों का अपना अलग धर्म और देवी–देवता हैं, मुंडा आदिवासी अपने देवी–देवताओं की पूजा करते हैं और उनकी अपनी पूजा पद्धति भी है. मुंडा आदिवासी हर पूजा–पाठ को सामूहिकता में करते हैं, हालांकि उनके अपने घर में भी पूजा स्थल होता है और वहां पूजा विधि भी होती है, लेकिन पूजा का महत्व समाज के साथ ही ज्यादा है.
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आदिवासी क्यों नहीं हैं हिंदू?
गुंजल इकिर मुंडा बताते हैं कि हिंदुओं में एक वर्ण व्यवस्था है, जिसके तहत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आते हैं. अब इस जाति व्यवस्था में आदिवासी कहां फिट बैठेंगे? वे कहते हैं कि रामदयाल मुंडा ने भी अपनी किताब में इस प्रश्न को उठाया है और कहा है कि आखिर आदिवासी जिसका धर्म सबसे प्राचीन है, वह खुद को इसमें शामिल क्यों करेगा, जब उसे वह मान–सम्मान नहीं मिलेगा. इसलिए आदिवासी अपने आदिधर्म को ही अपना मानते हैं.
सवसार से सरना धर्म कोड तक क्या है आदिवासी समाज के धर्म की सच्चाई
प्राचीन काल तक आदिवासियों के धर्म का कोई नामकरण नहीं हुआ था. वे अपने धर्म और संस्कार के साथ जी रहे थे, लेकिन जब ब्रिटिश भारत आए, तो उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि आदिवासियों का धर्म क्या है? क्या वे हिंदू हैं, मुस्लिम हैं या फिर किसी अन्य धर्म के मानने वाले हैं. उस वक्त आदिवासियों के धर्म या पंथ को एनिमिज्म का नाम दिया. चूंकि आदिवासी प्रकृतिपूजक थे इसलिए उन्होंने आदिवासियों के धर्म को जीववाद से प्रभावित माना, जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा सिर्फ मनुष्यों में नहीं बल्कि सभी जीव–जंतु , वनस्पतियों और चट्टानों में भी होती है. उसके बाद एक शब्द आया सवसार जिसका अर्थ भौतिकवादी होना था. चूंकि मुंडा और तमाम आदिवासी समाज भौतिक चीजों में ही ज्यादा यकीन करते थे, इसलिए उनके धर्म के लिए सवसार शब्द का प्रयोग हुआ और आदिवासियों ने इसे स्वीकार भी कर लिया है कि हां हम सवसार हैं. लेकिन जैसे–जैसे आदिवासी अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने लगा, उसके अंदर अपने धर्म को लेकर और जिज्ञासा हुई और अंतत: एक स्वीकार्य शब्द उनके बीच प्रचलन में आ गया वह है सरना धर्म. गुंजल मुंडा बताते हैं कि सरना हमारा बस एक पूजा स्थल है, इससे हमारे धर्म की पूरी व्याख्या संभव नहीं है, लेकिन सरना शब्द आदिवासियों के लिए अपनी भाषा का शब्द था, इसलिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया. वर्तमान समय में झारखंड के तमाम आदिवासी इसी धर्म को मान्यता देने की मांग करते हैं, ताकि उनके आदिधर्म को पहचान मिल सके और उन्हें धर्म में अन्य का विकल्प ना भरना पड़े.
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