‘उम्बुल आदेर’ के जरिए मृत्यु के बाद आत्मा को घर वापस बुलाते हैं मुंडा आदिवासी, विदा नहीं करते
History of Munda Tribes : मुंडा आदिवासी यह मानते हैं कि आत्मा अमर है. यह वर्तमान और अतीत के बीच संबंध स्थापित करने में उनकी मदद करता है. उनकी मान्यता है कि शरीर से आत्मा एक छेद के जरिए निकल जाती है, लेकिन वह मौजूद रहती है नष्ट नहीं होती. उसी आत्मा को वापस घर बुलाने और अपने साथ रखने के लिए मुंडा आदिवासी ‘उम्बुल आदेर’ की परंपरा को निभाते हैं, जो उनके अनिवार्य रिवाजों में शामिल है.
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History of Munda Tribes 12 : क्या मृत्यु के बाद जीवन है? मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ क्या होता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिसके जवाब में अधिकांश लोगों की रुचि रहती है. प्राचीन काल से आधुनिक काल तक हर सभ्यता के लोगों ने मौत के बाद जीवन की कल्पना की है और उसके अनुसार उनका व्यवहार भी दिखता है. मुंडा समाज में भी मौत के बाद जीवन की कल्पना है और उसके अनुसार ही उनके समाज में एक परंपरा प्राचीन काल से मौजूद है, जिसे छाया अंदर करना कहते हैं. चूंकि आत्मा को अमर माना जाता है, इसलिए मुंडा आदिवासी उस आत्मा को मौत के बाद भी अपने परिवार में वापस लेकर आते हैं.
क्या है छाया अंदर करने की परंपरा ‘उम्बुल आदेर’
मुंडा आदिवासी यह मानते हैं कि आत्मा अमर है. शरीर का जब अंत हो जाता है, तो उसे मुंडा आदिवासी या तो दफना देते हैं या फिर उसे जलाने की भी परंपरा है. यह परिवार की क्षमता पर निर्भर करता है. अंतिम संस्कार के बाद उम्बुल आदेर की परंपरा निभाई जाती है, जिसमें मृत व्यक्ति को दोबारा से घर बुलाया जाता है. इस परंपरा में परिवार और गांव का सहयोग होता है और सभी मिलकर इस परंपरा को निभाते हैं. मुंडा आदिवासियों में उम्बुल आदेर की परंपरा उस दिन भी निभाई जा सकती है, जिस दिन व्यक्ति की मौत हुई है, या फिर इसे चांद के आधार पर तीन दिन या सात दिन के अंदर भी किया जाता है.
उम्बुल आदेर की परंपरा में मृत व्यक्ति को दिया जाता है घर
झारखंड के तमाम आदिवासी समाज में छाया अंदर करने यानी आत्मा को वापस घर बुलाने की परंपरा है. मुंडा समाज भी इसी परंपरा को मानता है और इस परंपरा को निभाने के लिए सबसे पहले मृत व्यक्ति के लिए घर बनाया जाता है. सुखराम पाहन बताते हैं कि हमारे इलाके में उम्बुल आदेर की परंपरा उसी दिन निभाई जाती है, जिस दिन व्यक्ति की मौत हुई है. इसके लिए मृतक के परिजन और गांव वाले उस जगह पर जाते हैं, जहां मृतक के लिए घर बनाया जाता है. यह वह स्थान होता है, जहां शवयात्रा के दौरान शव को पहली बार रखा जाता है. उस स्थान पर 3 केंदू की डाली और पुआल के जरिए मृतक के लिए घर बनाया जाता है. वहां एक घड़ा रखा जाता है. फिर वहां आग लगा दी जाती है और मृत व्यक्ति को बुलाया जाता है. उसके बाद कोंडा यानी पुरखों के स्थान में आगे की परंपरा की जाती है और आत्मा को घर वापस बुला लिया जाता है.
भात और उरद दाल देकर आत्मा को बुलाया जाता है घर
केंद्रीय मंत्री और दिग्गज आदिवासी नेता कड़िया मुंडा की बेटी चंद्रावती सारू ने बताया कि मुंडा समाज आत्म को अमर मानता है और उम्बुल आदेर की परंपरा चांद के आधार पर की जाती है, यह क्षेत्र के हिसाब से थोड़ा अलग हो सकती है. चंद्रावती बताती हैं कि शवयात्रा के वक्त शव को मसान पहुंचने से पहले तीन बार रखा जाता है, जिस स्थान पर पहली बार शव को रखा जाता है, उसी स्थान से उम्बुल आदेर की शुरुआत होती है. घर के लोग और गांव के लोग उस स्थान पर जाते हैं और मृत व्यक्ति के लिए वहां घर बनाया जाता है. इसमें केंदू की डाली का प्रयोग होता है और सउड़ी घास से घर को बनाया जाता है. सउड़ी घास नहीं होने पर पुआल का प्रयोग होता है. यहां एक घड़ा रखा जाता है, यह वही घड़ा होता है, जिसका प्रयोग पानी से शव को पोंछने के लिए किया जाता है. इसमें पानी लेकर मसान भी जाते हैं और उसे ही मृतक के लिए घर बनाने में भी प्रयोग किया जाता है. जो व्यक्ति मृतक को अग्नि देता है, वह घड़े को डंडे से पिटता है. फिर वहां आग लगा दी जाती है और चावल छींटा जाता है. उपस्थित लोग मृतक को संबोधित करते हुए यह आवाज लगाते हैं कि आइए आपके लिए घर बना दिया है, जो जल रहा है. आइए इसे बचाइए. यह प्रक्रिया तीन बार की जाती है और फिर सभी शांत हो जाते हैं, उसके बाद सभी घर आते हैं. घर वापसी के वक्त लोहे को बजाया जाता है.
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रात को पुरखों के स्थान यानी कोंडा में राख को फटका जाता है, उसके बाद मृतक के लिए भात और उरद का दाल बनाकर रखा जाता है और दोना में पानी भी दिया जाता है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि आत्मा को घर बुलाया जा रहा है और उसके लिए भोजन की व्यवस्था की गई है. फिर अंधेरा कर दिया जाता है, घर के कुछ लोग अंदर रहते हैं, फिर गांव के लोग बाहर से आवाज लगाते हैं, मृतक का नाम लेते हुए कि क्या यह उसका घर है, हम बहुत दूर से आए हैं, साथ में अनाज और बकरी भी लाए हैं, दरवाजा खोलें. आवाज लगाने वाले लोग मुंडाओं के नवरत्नगढ़ के गांव डोयासगढ़ का जिक्र भी करते हैं कि वे वहां से आए हैं, आवाज तीन बार लगाई जाती है, फिर घर के लोग यह कहते हैं कि कौन आया है और फिर कुछ बातें होती हैं और घर की बत्ती जलाकर दरवाजे को खोला जाता है और यह देखा जाता है कि भोजन जिसे ढंक कर रखा गया है, उसका क्या हुआ. कई बार पानी कम हो जाता है भोजन भी कम होता है और राख पर निशान भी बन जाते हैं, जिनके आधार पर यह तय किया जाता है कि आत्मा का प्रवेश घर में हो गया है.
मुंडा समाज में पुरखों का महत्व देवता की तरह
बुद्धिजीवी गुंजल इकिर मुंडा बताते हैं कि मुंडा समाज में पुरखों का महत्व बहुत अधिक है, क्योंकि यह समाज यह मानता है कि पुरखे उनके साथ ही हमेशा रहते हैं. वे यह नहीं मानते कि कर्मों के आधार पर पुरखे स्वर्ग या नर्क लोग जाते हैं. यही वजह है कि समाज में उम्बुल आदेर का महत्व बहुत अधिक है. यह समाज का पुरखों से संबंध पुख्ता करता है. मुंडा समाज अपने घर में पुरखों के लिए एक स्थान सुरक्षित रखता है, जहां बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित रहता है. उस स्थान पर चप्पल पहनकर भी जाना मना होता है. मुंडा आदिवासी किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में देवताओं के साथ ही अपने पुरखों को भी आमंत्रित करते हैं. उनकी यह मान्यता है कि पुरखों के आशीर्वाद के बिना कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता है. अनुष्ठान के वक्त जितने पुरखों का नाम याद होता है उन्हें नाम से आमंत्रित किया जाता है और उसके बाद के पुरखों को बिना नाम के ही आमंत्रित किया जाता है.
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