झारखंड का स्वास्थ्य विभाग राज्य को टीबी मुक्त करने की कई योजनाओं पर काम कर रहा है. इसलिए टीबी के संदेह वाले मरीजों के थूक के नमूनों की जांच तेज करने की योजना बनाई गई. अभी तक सहिया के माध्यम से इस काम को कराया जाता है.
एक मरीज के नमूने को ग्राम-पंचायत स्थित स्वास्थ्य केंद्र या उपकेंद्र से जांच केंद्र या प्रखंड स्थित बड़े अस्पताल तक पहुंचाने के लिए 50 रुपये सहिया को दिए जाते हैं. इससे कई गुना अधिक खर्च सहिया को आने-जाने में ही हो जाते हैं.
ऐसी स्थिति में थूक के नमूने को जांच केंद्र तक पहुंचाने के लिए सहिया उत्साहित नहीं रहती है. लंबे समय तक सैंपल गांव या पंचायत में ही पड़े रह जाते हैं. इस कारण असली मकसद पूरा नहीं हो पाता है. टीबी मरीजों की पहचान में भी देरी होती है.
स्वास्थ्य विभाग ने डाक विभाग के साथ क्या किया एमओयू
टीबी के संदिग्ध मरीजों की जांच में हो रही देरी से निपटने की योजना झारखंड के स्वास्थ्य विभाग ने बनाई. इसका जिम्मा डाक विभाग को देने का फैसला किया गया. झारखंड के स्वास्थ्य विभाग और डाक विभाग के बीच साल 2023 के जुलाई में बाजाप्ता करार(एमओयू) हुआ.
करार के तहत डाकिये को गांव में स्थित स्वास्थ्य केंद्रों या उपकेंद्रों से संदिग्ध मरीजों के थूक के सैंपल संग्रह करने थे. उन्हें प्रखंड या अनुमंडल मुख्यालय स्थित जांच केंद्रों में जाकर जमा करना था. जांच की रिपोर्ट भी डाकिये को नमूने संग्रह करने वाले स्वास्थ्य केंद्र या उपकेंद्र के पास पहुंचाने थे.
जांच में मामला गंभीर पाए जाने पर उसे जिला या राज्य मुख्यालय स्थित टीबी जांच केंद्र तक पहुंचाना था. इस काम को भी डाक विभाग को ही डाकिये के माध्यम से अंजाम देना था. ऐसे हर नमूने को जांच केंद्र तक पहुंचाने और उसकी रिपोर्ट नमूना संग्रह करने वाले स्वास्थ्य केंद्र तक भेजने के लिए तय राशि का करार भी डाक विभाग और स्वास्थ्य विभाग के बीच हो गया.
झारखंड के स्वास्थ्य विभाग और डाक विभाग के बीच कहां फंसा पेच
करार के बाद स्वास्थ्य विभाग और डाक विभाग दोनों के बीच जल्दी ही काम शुरू करने पर सहमति बनी. इस बीच डाक विभाग के अधिकारियों को इलहाम हुआ कि करार के मुताबिक स्वास्थ्य विभाग को सेवा तो देनी है, पर स्वास्थ्य विभाग हमारे ग्राहकों की किस कैटेगेरी में आएगा. लगे हाथों कागजी घोड़ा दौड़ाया गया.
झारखंड के स्वास्स्थ्य विभाग की ओर से राज्य यक्ष्मा पदाधिकारी को जवाब देने के लिए कहा गया. उस समय के राज्य यक्ष्मा पदाधिकारी को कुछ नहीं सूझा. उन्होंने अपने वरीय पदाधिकारियों से मार्गदर्शन मांगा. वरीय पदाधिकारियों ने इसके लिए स्वास्थ्य विभाग के तत्कालीन सचिव से अनुमति मांगी.
स्वास्थ्य विभाग और डाक विभाग के अधिकारियों के बीच इस अहम मसले को सुलझाने के लिए बैठकों का दौर भी चलता रहा. इस बीच डाक विभाग के झारखंड स्थित अधिकारी भी अपने उच्चाधिकारियों से परामर्श करते रहे. दिल्ली से इसे सुलझाने की गुहार लगाई गई. वहां की फाइलें खंगाली गई. दूसरी राज्य सरकारों से इस तरह के करार के मामलों की पड़ताल की गई.
नियम की कसौटी पर जांचने के बाद सुलझा मामला
डाक विभाग और झारखंड के स्वास्थ्य विभाग दोनों के अधिकारी कायदों की किताबें पढ़ते रहे. अंत में यह समझ बनी की राज्य का स्वास्थ्य विभाग तो किसी भी कीमत पर इंडिविजुअल कस्टमर यानी निजी ग्राहक नहीं नहीं हो सकता है. तो फिर क्या है? स्वास्थ्य विभाग ने डाक विभाग को इत्तला कर दिया.
डाक विभाग के अधिकारियों ने आपस में सलाह कर तय किया कि क्यों न स्वास्थ्य विभाग को कॉरपोरेट कस्टमर यानी कंपनी मान लें. डाक विभाग ने यह प्रस्ताव झारखंड के स्वास्थ्य विभाग को भेजा. स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने फिर से झारखंड सरकार के कायदों की किताबें पलटी.
अधिनियम, परिनियम, नियम सभी की कसौटी पर जांचने के बाद डाक विभाग के प्रस्ताव में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं जान पड़ी. इस प्रस्ताव पर सहमति देने का फैसला किया गया. जवाबी पत्र डाक विभाग को भेज दिया गया. जल्दी ही डाक विभाग से इसे अमल में लाने के लिए कहा गया है. शुरूआत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर केवल रांची जिले में इसे लागू किया जाएगा. बाद में राज्य के दूसरे जिलों को इससे जोड़ा जाएगा.
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