झारखंड : दुमका में कमल और तीर-धनुष नहीं, आ-सार और उप़ल बाहा की है लड़ाई, पार्टियां कर रही खास तैयारी
झारखंड के दुमका लोकसभा सीट पर कमल और तीर-कमान की नहीं बल्कि उप़ल बाहा और आ-सार की लड़ाई है. लोहरदगा संसदीय क्षेत्र में पुंडरी और खेक्खा के बीच चुनावी दंगल और सिंहभूम लोकसभा सीट पर सलुकड्बा और सर-अ:सर के बीच रण होगा. लोकसभा चुनाव के दौरान अगर आपने यह शब्द पहली बार सुने है तो आइए समझते है क्या है इसका मतलब और महत्व
Loksabha Election 2024 : चुनावी बिगुल फूंका जा चुका है. पार्टियों की तरफ से प्रचार के लिए अलग -अलग तरीके अपनाए जा रहे हैं. बैनर-पैमप्लेट के अलावा इस बार के चुनाव में सभी पार्टियां गाना भी बना रही हैं. एनडीए और I.N.D.I.A. गठबंधन के बीच इस चुनावी दंगल में बाजी कौन मारेगा यह तो चार जून को पता चलेगा. बात अगर झारखंड की करें तो यहां भी चुनाव प्रचार में सभी राजनीतिक दल पूरे दमखम से लगे हुए है. लेकिन, क्या आपको पता है झारखंड के दुमका लोकसभा सीट पर कमल और तीर-कमान की नहीं बल्कि उप़ल बाहा और आ-सार की लड़ाई है. लोहरदगा संसदीय क्षेत्र में पुंडरी और खेक्खा के बीच चुनावी दंगल और सिंहभूम लोकसभा सीट पर सलुकड्बा और सर-अ:सर के बीच रण होगा. ऐसा संभव है कि अधिकतर लोग इसका मतलब ना जानते हो, तो आइए चर्चा करते हैं और समझते है कि आखिर ये है क्या?
Loksabha Election 2024 : लोकल टच देखने की कोशिश
ये सभी शब्द कुछ और नहीं बल्कि, कमल, तीर-धनुष, पंजा और केला ही हैं. बीजेपी, आजसू, कांग्रेस और जेएमएम के चुनावी चिन्ह को जनजातीय भाषा में इन नामों से जाना जाता है. दुमका की सड़कों पर अगर आप निकलते है तो चुनाव प्रचार संबंधित पोस्टर-बैनर में जाहिर तौर पर आपको कमल की तस्वीर के नीचे उप़ल बाहा और तीर-कमान की तस्वीर के साथ आ-सार लिखा हुआ मिलेगा. कारण, संताली में इन दोनों चिन्हों को इसी नाम से जाना जाता है. ऐसे में सभी राजनीतिक दल वोट साधने के लिए इन भाषाओं में ही ज्यादा चुनाव प्रचार करते मिलेंगे. लोग भी कहते हैं कि जो हमारी भाषा को समझता है वहीं हमारी परेशानी समझेगा, इसलिए चुनावी गाने हो या पोस्टर हर जगह आपको एक लोकल टच देखने को जरूर मिलेगा.
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झारखंड की करीब 28 प्रतिशत आबादी जनजातीय
झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां की करीब 28 प्रतिशत आबादी जनजातीय लोगों की है. यहां के इलाकों में अलग-अलग जनजातीय भाषाएं बोली जाती है. पार्टियां अब प्रयास कर रही है कि लोगों को लोकल कनेक्ट देते हुए अपनी ओर खींचा जाए. इसके लिए प्रचार के दौरान जनजातीय भाषाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है. कुल 9 क्षेत्रीय जनजातीय भाषा झारखंड के कई जिलों में बोली जाती है जिसमें मुंडारी, खड़िया, कुड़ुख, संताली, हो, नागपुरी, कुरमाली समेत अन्य भाषाएं हैं. इन भाषाओं में कमल, पंजा, तीर-कमान और केला को क्या कहा जाता है? आइए जानते हैं…
जनजातीय भाषाओं में कमल, पंजा, तीर-धनुष, केला का नाम
नागपुरी, कुरमाली, पंच परगनिया और खोरठा में इन चारों को एक ही नाम से जाना जाता है जो हिंदी से मिलता-जुलता है.
- कमल : कमल
- पंजा : हाथ
- तीर-धनुष : तीर धनुष
- केला : केरा
उसी परिवेश में पले है हमारे कार्यकर्ता- JMM
आखिर चुनाव प्रचार के समय भाषा कितनी बड़ी भूमिका निभाती है और इसके लिए राजनीतिक दल क्या-क्या तैयारी करते हैं, इस सवाल का जवाब खोजते हुए प्रभात खबर संवाददाता ने झारखंड की चार प्रमुख पार्टियों से बात की, तो उन्होंने भी इस विषय पर बेबाकी से जवाब दिया. सभी दल के नेताओं ने इस बात पर हामी भरी कि जनजातीय भाषा का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में करने से अपनत्व का एहसास होता है, साथ ही प्रत्याशी की बात जनता और जनता की बात प्रत्याशी समझ पाते हैं. जेमएम प्रवक्ता तनुज खत्री ने कहा कि हमारी पार्टी झारखंड की ही है. झारखंड के हर जिले में हमारे कार्यकर्ता उसी परिवेश और संस्कृति में पलते-बढ़ते हुए नेता बने हैं. ऐसे में चुनाव के दौरान जब हम उम्मीदवार उतारते हैं तो इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह उसी क्षेत्र के हों. वहां की जनजातीय भाषा को हमारे नेता बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं, इसलिए हमें परेशानी नहीं होती है और अलग तैयारी नहीं करनी पड़ती है.
”जनजातीय भाषा का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में करने से अपनत्व का एहसास होता है”
क्षेत्रीय भाषा में गाना बनाकर प्रचार- BJP
वहीं, बीजेपी प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव ने भी कहा कि उम्मीदवार के उसी क्षेत्र से रहने से लोगों की भावना को हम समझ पाते हैं. उन्होंने कहा कि भले ही हम राष्ट्रीय पार्टी हैं लेकिन, झारखंड के हरेक क्षेत्रीय भाषा का हम सम्मान करते हैं और उसे विकसित करने के लिए हर जरूरी कदम उठाते हैं. उन्होंने बताया कि कैसे चुनाव प्रचार के समय पार्टी की तरफ से जो गीत-संगीत या स्लोगन बनाए जाते हैं वह उसी जनजातीय भाषा में होते हैं.
”चुनाव प्रचार के समय पार्टी की तरफ से जो गीत-संगीत या स्लोगन बनाए जाते हैं वह उसी जनजातीय भाषा में होते हैं”
प्रचार में जनजातीय भाषा को तवज्जो- कांग्रेस
कांग्रेस झारखंड प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने भी कहा कि ज्यादातर जगहों के उम्मीदवार उसी क्षेत्र से जुड़े होते हैं और उसी भाषा का इस्तेमाल बोलचाल के लिए करते है. जो पार्टी कार्यकर्ता होते है वो भी उसी प्रखंड के होते है और हमारे उम्मीदवार के साथ प्रचार के दौरान होते है, इसलिए हमारी बात लोगों को समझा पाने में सफल होते हैं. साथ ही डिजिटल माध्यम से जो प्रचार होता है उसमें भी हम जनजातीय भाषा को तवज्जो देते है. उनके लहजे में और उनकी भाषा में गाना बनता है और उम्मीदवार की बात लोगों को आसानी से समझाने की कोशिश होती है.
”डिजिटल माध्यम से जो प्रचार होता है उसमें भी हम जनजातीय भाषा को तवज्जो देते है.”
प्रचार तंत्र के माध्यम से अपनी भाषा में प्रचार – आजसू
आजसू के केंद्रीय प्रवक्ता देवशरण भगत ने भी इसपर खुल कर अपनी राय रखी. उन्होंने कहा कि आजकल पैमप्लेट कम बंटते है लेकिन उसमें स्थानीय भाषा में लेखन होता है. गाना, भाषण और प्रचार तंत्र के माध्यम से अपनी भाषा में प्रचार होता है, ऐसे संवाद करने से लोग जल्दी समझ पाते हैं और उन्हें अपनेपन का एहसास होता है. कई बार उम्मीदवारों की ओर से जनजातीय भाषा, संस्कृति और रीति-रिवाज को बचाने की बात कई बार कही जाती है, क्योंकि ये एक बड़ा मुद्दा है. लेकिन, यह केवल चुनावी मुद्दा बनकर ना रह जाए ये भी देखने वाली बात है.