साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर गगन गिल ने निर्मल वर्मा को किया याद, नोबेल पुरस्कार पर कही ये बड़ी बात
Sahitya Akademi Award : 19 नवंबर 1959 को दिल्ली में जन्मी गगन गिल ने एक दशक से ज्यादा का समय पत्रकारिता को दिया है. उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया समूह व संडे ऑब्जर्वर के लिए काम किया. 1984 में उन्हें भारत भूषण पुरस्कार मिला. गगन गिल ने अनुवाद के क्षेत्र में भी बहुत काम किया है. उनका एक बहुत ही खास परिचय यह भी है कि वह हिंदी के प्रख्यात लेखक निर्मल वर्मा की पत्नी हैं.
Sahitya Akademi Award : ‘‘मैं जब तक आई बाहर… एकांत से अपने… बदल चुका था…रंग दुनिया का.’’ इन पंक्तियों को सार्थक करता है हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका गगन गिल को उनके कविता संग्रह ‘मैं जबतक आई बाहर’ के लिए दिया गया वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी पुरस्कार. पेशे से पत्रकार गगन गिल को वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. गगन गिल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलना उनकी मेहनत को सार्थक करता है. उन्होंने स्त्री मन की पीड़ा को बहुत ही संतुलित तरीके से कविताओं का रूप दिया और साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाई. अब तक उनके पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जबकि गद्य में उल्लेखनीय नाम ”दिल्ली में उनींदे”, ”अवाक” और ”देह की मुंडेर” है. साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर प्रभात खबर के साथ गगन गिल ने बातचीत की. पढ़ें, छोटी लेकिन प्रभावशाली बातचीत.
साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर आपको बहुत बधाई गगन जी? प्रतिक्रिया क्या देंगी?
शुक्रिया. प्रतिक्रिया क्या कहूं, खुश हूं. कृतज्ञ हूं कि जो लोग एक कोने में बैठे रहते हैं, हमारा समाज उनकी भी गिनती कर लेता है. इससे सुखद संयोग और क्या हो सकता है.
पाठकों के लिए बताएं कि ‘मैं जबतक आई बाहर’ के जरिए आप क्या कहना चाहती हैं?
किसी भी कविता संग्रह या कविताओं में एक लेखक अपने जीवन में जिससे गुजरता है उसे बताता हुआ या सीखता हुआ आगे जाता है. जीवन जो काम नहीं कर पाता, हमें शब्दों में सिखाने का वो काम साहित्य करता है. हालांकि, जो कविताएं मैंने लिखी है, उसपर क्या कहूं?
अगर निर्मल वर्मा जी होते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? क्या वे अपनी प्रतिक्रिया आपकी रचनाओं पर देते थे?
निर्मल जी मेरी रचनाओं पर प्रतिक्रिया तो देते थे और वे मुझसे काफी निराश भी रहते थे. उनका यह कहना था कि मैं समय नष्ट करती हूं और अपने काम को बहुत गंभीरता से नहीं करती हूं. आज अगर निर्मल जी होते तो बेशक वे बहुत खुश होते. मुझे जब पुरस्कार की सूचना मिली, तो सबसे पहले निर्मल जी का ही ध्यान आया. मुझे निर्मल जी और अपने माता-पिता की बहुत याद आई. राम कुमार जी बहुत याद आए. ये वो लोग थे, जिनके साथ मैं अपनी रचनाओं की चर्चा करती थी. इन्हें बताती थी कि लेखन में समस्याएं क्या हैं? जैसे मन में कुछ और चल रहा है और लिखने में कुछ और सामने आ रहा है, तो लेखन में परफेक्शन कैसे आए. ऐसे में अगर कुछ छोटी-मोटी परफेक्शन अर्जित की या कोई सम्मान मिलता है, तो इनकी याद आना स्वाभाविक है. आप जो लिखते हैं, उसका क्या मूल्य है, यह खुद को पता नहीं चलता है. लेकिन, जब ऐसे पुरस्कार मिलते हैं, तो ढाढ़स मिलता है और बल मिलता है, खासकर, मेरे जैसे अकेले व्यक्ति को तो लगता है कि हम जो कर रहे थे वो सही रास्ते पर ही था.
कविता लेखन में चुनौतियां क्या है?
कविता की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि आपने अपने भाव को ठीक-ठीक भाषा में पकड़ा या नहीं. जब आप किसी संवेग से गुजरते हैं, असहनीय क्षण से गुजरते हैं और फिर जब आप उसे शब्दों में व्यक्त करते हैं, तो शब्द इस तरह के हों कि वे ना तो कम हों ना ज्यादा और ना ही गलत या स्थूल शब्द हों. वे ऐसे होने चाहिए, जो निशाने पर जाकर लगे. आजकल इस तरह की बातें कही और सुनी नहीं जाती हैं पर मुझे ऐसा लगता है कि कविताओं में कुछ ना कुछ तो दैवीय होता है. शायद गद्य लिखना सांसारिक समय में रहकर संभव है, लेकिन कविता बिलकुल अलग जगह की चीज है और कविता लिखने के लिए आपको अलग जगह जाना होता है. अच्छी सामाजिक कविताएं भी किसी दूसर जगह पहुंचकर और लौटकर ही लिखी गई हैं.
आज के जमाने में जो कविताएं लिखी जा रही हैं, उनका भविष्य कैसा है?
देखिए, मैं इस विषय पर कुछ कहने की अधिकारी खुद को नहीं समझती हूं, लेकिन एक साहित्य की पाठक के तौर पर मैं इतना कहूंगी कि किसी भी समय में सैकड़ों लोग लिखते हैं. उनका लेखन कैसा है, यह समय तय करेगा. लेखकों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि कौन प्रासंगिक रहेगा और कौन नहीं. हम यह तय नहीं कर सकते हैं, ना ही हमारे समय के आलोचक यह तय कर सकते हैं. इसलिए लेखकों को अपना काम करते रहना चाहिए. समय यह तय करेगा कि किसके लेखन में कितनी गुणवत्ता है और कौन रद्दी में जाने लायक है.
हिंदी में इतने महान लेखक और कवि हुए लेकिन आज तक किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, इसकी मूल वजह क्या है?
मैं यह मानती हूं कि हमारा साहित्य उच्च कोटि का है. मैं जब भी खुद को प्रेरित करना चाहती हूं, तो मैं अपने देश का साहित्य पढ़ती हूं. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के लेखकों को नोबेल ना मिलने की सबसे बड़ी वजह है अच्छे अनुवादों की कमी. भारतीय भाषाओं के संस्कार अलग हैं, यूरोपीय भाषाओं के संस्कार अलग हैं. मैंने अनुवाद पर भी कुछ काम किया है. इसलिए मैं यह कह सकती हूं कि भारतीय भाषाओं में इतने लेयर्स हैं कि वे यूरोपीय भाषाओं में नहीं आती हैं. यह एक बुनियादी समस्या है. यही वजह है कि हमारे साहित्य का अनुवाद बहुत ही अधकच्चे तरीके से किया गया है. इसलिए अगर पुरस्कारों के बारे में सोचना है, तो प्रकाशकों को अच्छे अनुवादकों की खोज करनी चाहिए. अनुवाद उनसे ही कराना चाहिए, जिसकी वह मातृभाषा हो, जैसे अंग्रेजी में कराना हो तो अंग्रेजी मातृभाषा हो और अगर फ्रेंच में कराना है, तो फ्रेंच ही अनुवादक की मातृभाषा हो.
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