UNION BUDGET 2024 में झारखंड को क्य़ा चाहिए? पहली बार नहीं बता पाएंगे जन अर्थशास्त्री रमेश शरण
UNION BUDGET 2024:आगामी 23 जुलाई को पेश होने जा रहे केंद्रीय आम बजट की तैयारी शुरू हो चुकी है. इस बजट में झारखंड को क्या चाहिए, यह बताने के लिए पहली बार पब्लिक एजेंडा के केंद्र में जन अर्थशास्त्री रमेश शरण नहीं होंगे.
UNION BUDGET 2024: झारखंड को क्या चाहिए ? सवाल अगर रोजगार, विकास और समृद्धि के सपनों से जुड़ा हो, अथवा देश में प्रदेश की आर्थिक हिस्सेदारी से संबंधित हो, जवाब केवल जन अर्थशास्त्री रमेश शरण के पास होता था. राज्य की हर सरकार के लिए केंद्र से मांगों का मसौदा तैयार करने के लिए रमेश शरण का सहारा लेना पड़ता था. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के नेता अर्थव्यवस्था के मसले पर अपने बयानों में बौद्धिक गंभीरता की धार देने के लिए रमेश शरण की बाट जोहते थे.
पत्रकारों को भी अगर पॉलिटिक्स, पॉलिसी और ग्राउंड रियलिटी के ताने-बाने में अर्थव्यस्था की स्टोरी का जनपक्षधर प्लॉट रचना होता था तो उसके लिए भी विशेषज्ञता का सिंगल विंडो सॉल्यूशन रमेश शरण के पास ही था. सही समय पर सधे आंकड़ों और सटीक जुमलों के साथ इकोनॉमिक स्टोरी का मारक एंगल बताने में रमेश शरण को महारथ हासिल थी. केंंद्र से झारखंड की मांग, कर में हिस्सेदारी और राज्य के संसाधनों में केंद्र से हकदारी की उनकी जमीनी व्याख्या किसी को भी चकित कर देती थी. छह दिन पहले निधन के कारण यह पहली बार होगा जब केंद्रीय बजट में झारखंड को क्या चाहिए? इस सवाल का जवाब देने के लिए पब्लिक एजेंडा के केंद्र में रमेश शरण नहीं होंगे.
यूं ही हासिल नहीं था झारखंडियत और आदिवासियत के आर्थिक प्रवक्ता का दर्जा
वरिष्ठ पत्रकार फैसल अनुराग कहते हैं कि रमेश शरण के द रमेश शरण बनने की कहानी 1990 के दशक में अलग झारखंड राज्य बनाने के आंदोलन में आर्थिक सिद्धांतकार के तौर पर शुरू होती है. झारखंडी अस्मिता के अर्थशास्त्र को उन्होंने देश के बड़े-बड़े थिंक टैंक के सामने और राष्ट्रीय स्तर के बौद्धिक मंच पर काफी तार्किकता के साथ रखा. इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली(ईपीडब्लू) और सोशल चेंज जैसे जर्नल में इस विषय पर उनके कई शोध-पत्र प्रकाशित हुए. उस दौर में अतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही आर्थिक घटनाएं डंकल प्रस्ताव, गैट, ट्रिप्स आदि के संदर्भ में आदिवासिय़ों की परेशानी की व्याख्या कर जब वे अलग झारखंड राज्य की प्रासंगिकता का तर्क प्रस्तुत करते थे तो सुनने वाले चकित रह जाते थे.
केवल कागज की लेखी नहीं, आंखन देखी ने दिलाई मुकाम
विश्वविख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज कहते हैं कि रमेश शरण किताबी ज्ञान की सीमा से बाहर निकल चुके थे. उन्हें जमीन पर उतरकर नंगी आंखों से अर्थव्यवस्था की सच्चाई देखना ज्यादा पसंद था. इसके लिए जनांदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती थी. मनरेगा, राइट टू फूड जैसे अभियानों के लिए रमेश जी ने जमीनी स्तर पर आंकड़ों का दस्तावेजीकरण किया. आदिवासी समाज की कठिनाइयों से रूबरू होते थे, उसका दस्तावेजीकरण करते थे और फिर समाधान की दिशा में पहल करते थे.
झारखंड के लिए वैकल्पिक अर्थनीति तैयार की
जंगल बचाओ आंदोलन के प्रमुख डॉ. संजय बसुमल्लिक कहते हैं कि झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद इसकी विकास प्रक्रिया को लेकर सवाल उठ रहे थे. आम धारणा थी कि झारखंड का विकास खान और खनिज के आधार पर ही हो सकता है. रमेश शरण का साफ कहना था कि इससे लाखों लोगों का विस्थापन होगा. इंसान की बलि चढ़ाकर तय की गई विकास की दूरी किसी काम की नहीं होगी. वे पूरे झारखंड को खदान बना देने के खिलाफ थे. इसलिए उन्होंने झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के सामने वैकल्पिक अर्थनीति का मसौदा भी पेश किया था.
झारखंड के साथ हुए आर्थिक अन्याय की भरपाई चाहते थे
रमेश शरण के दामाद, प्रबंधन विशेषज्ञ और बेस्ट सेलर पुस्तकों में शामिल ‘बिहारः द ब्रोकेन प्रॉमिसेज’ के लेखक मृत्युंजय शर्मा कहते हैं कि फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी(मालभाड़ा समानीकरण की नीति) ने बिहार को पिछड़ेपन की अंधी गली में धकेल दिया. इस कारण दूसरे राज्य काफी आगे निकल गए और संयुक्त बिहार(झारखंड भी शामिल) के पास विकास की दौड़ में पिछड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं था. रमेश शरण जी झारखंड के साथ इस ऐतिहासिक अन्याय से हुए नुकसान की भरपाई चाहते थे.