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खिलजी के हकीम पड़ते थे नालंदा विश्वविद्यालय के वैद्य से कमजोर, क्या यही बना विध्वंस का कारण

Nalanda University भारत की अमिट पहचान है. मेडिसिन, तर्कशास्त्र, गणित और खास तौर पर बौद्ध सिद्धांतों के बारे में लोग यहां ज्यादा पढ़ने और रिसर्च करने आते थे. इतनी ख्याति पाने वाले विवि को आखिर ध्वस्त क्यों किया गया. इस सवाल का जवाब खोजते हुए हमने इतिहास के कई जानकारों से बात की.

By Aditya kumar | May 8, 2024 12:04 PM
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Nalanda University: बिहार का नालंदा विश्वविद्यालय भारत की अमिट पहचान है. आक्रमणकारियों ने जब यहां के पुस्तकालय को जलाया तो इतनी किताबें थी कि इसे राख होने में तीन महीने लग गए. द्वार पंडितों से शास्त्रार्थ में विजयी होने के बाद ही इस विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलता था. पर बौद्धिक श्रेष्ठता के इतने ऊंचे प्रतिमान कायम कर चुके इस विश्वविद्यालय का पतन क्यों हुआ ? क्य़ा ज्ञान की चरम ऊंचाईयों को लगातार छूते जाना इसके विध्वंस का कारण बना?

कहीं उन्नत चिकित्सा शास्त्र नालंदा के धराशायी होने का कारण तो नहीं

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की स्थापना से भी लगभग 650 साल पहले नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 427 ईस्वी में हुई थी. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी आज भी चल रही है और दुनिया के श्रेष्ठ शैक्षिक केंद्रों में से एक है. वहीं नालंदा केवल खंडहर है और देखने वालों की पारखी निगाहों में दर्द का ही अहसास कराता है. इसे नष्ट करने के मकसद के पीछे तो कई कहानी है. परंतु, विद्वानों का कहना है कि बददिमाग बख्तियार खिलजी को इस विश्वविद्यालय़ की बौद्धिक श्रेष्ठता से जलन थी. नालंदा विश्वविद्यालय पर शोध करने वाले प्रो. अवध किशोर प्रसाद प्रभात खबर से बातचीत में कहते हैं कि एक बार बख्तियार खिलजी बीमार पड़ा. अपने हकीमों के इलाज से वह चंगा नहीं हो सका. इसी बीच नालंदा विश्वविद्यालय के चिकित्सा गुरुओं के अपनाए नुस्खों से वह चंगा हो गया. बख्तियार खिलजी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने ज्ञान की इस पूरी परंपरा को ही मिटा देने की ठानी और 750 साल से अधिक समय से चल रहे अकादमिक महानता के केंद्र को जमींदोज कर दिया. प्रो. अवध किशोर प्रसाद कहते हैं कि यहां मौजूद पुस्तकों में वैसी बीमारियों का भी इलाज था, जिसके बारे में यूनानी लोगों को पता नहीं था. खिलजी को इस बात का बुरा लगा था कि उसके हकीमों के पास नालंदा विश्वविद्यालय जैसी तकनीक क्यों नहीं है.

”नालंदा विश्वविद्यालय में चिकित्साशास्त्र की उन्नत पढ़ाई का होना ही उसके विध्वंस का कारण बना और इसी कारण से बख्तियार खिलजी ने नालंदा विवि को आग के हवाले कर दिया.”
प्रो. अवध किशोर प्रसाद, इतिहासकार

आखिर ऐसा क्या है भारतीय चिकित्सा प्रणाली में

भारत में चिकित्सा शास्त्र आध्यात्मिक दर्शन के अध्ययन का ही हिस्सा रहा है. इसे 16 महाविद्याओं में एक महाविद्या और 64 महाकलाओं में एक महाकला कहा गया है. आयुर्वेद को उप वेद भी कहा जाता है. देव पुरुषों और ऋषियों में भी कई का नाम आदर्श चिकित्सक के रूप में लिया जाता है. यहां तक कि प्राचीन काल से ही औषधि प्रणाली के लिए चरक संहिता और सर्जरी के लिए सुश्रूत संहिता की पढ़ाई होती रही है. इस कारण भारत में चिकित्सा शास्त्र लगातार तकनीकी श्रेष्ठता को प्राप्त करता गया. नालंदा के विद्वानों ने खिलजी का उपचार भी बड़ी ही चालाकी से किया था.

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आर्किटेक्चर, मेटलर्जी और केमेस्ट्री में भी पीछे नहीं था Nalanda University

‘हम लोगों को जो भी बौद्ध ज्ञान मिला, वो सब नालंदा से आया था’, यह बयान तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने एक बार दिया था. बात अगर यूनिवर्सिटी की करें तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से करीब 500 साल पहले मठ की तर्ज पर यह विश्वविद्यालय दर्शन और धर्म को लेकर लंबे समय तक एशिया की संस्कृति को गढ़ता रहा. यहां गणित, तर्क शास्त्र और खगोल विज्ञान के अलावा चिकित्सा शास्त्र भी बहुत ही विस्तार से पढ़ाया जाता था. नामांकन मिलने के बाद धर्मपाल और शीलभद्र जैसे प्रतिष्ठित बौद्ध आचार्यों के अधीन सैकड़ों शिक्षकों से शिक्षा मिलती थी. नालंदा विश्वविद्यालय में स्थापत्य कला और धातु कला की पढ़ाई होती थी, जिसका प्रचार-प्रसार विदेशों में भी हुआ. रसायन विद्या के मामलों में भी यह उत्कृष्ट केंद्र था.

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परिसर का भी दुनिया के वर्तमान विश्वविद्यालयों से था अधिक विस्तार

नालंदा विश्वविद्यालय में केवल ज्ञान के आयामों का ही विस्तार नहीं था, बल्कि इसका परिसर भी अभी दुनिया में बड़े माने जाने वाले काफी बड़े विश्वविद्यालयों से अधिक विशाल था. दिखने वाली 23 हेक्टेयर की साइट पूरे परिसर का छोटा सा अंश है. यहां का डिजाइन ऐसा था कि दूसरे संस्थानों ने भी इसे अपनाया. बाहर से यह पूरी तरह से किले जैसा था. इसे बनाने में इस्तेमाल हुए प्लास्टर की तकनीक ने थाईलैंड की स्थापत्य कला पर असर डाला और धातु कला तिब्बत और मलाया प्रायद्वीप तक पहुंची.

फिर खड़ा क्यों नहीं हुआ नालंदा

नांलदा विश्वविद्यालय के ध्वंस के कारणों के दूसरे पहलू पर भी पटना स्थित ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के प्रो. राजीव कमल प्रकाश डालते हैं. राजीव कमल कहते हैं कि आखिर नालंदा विश्वविद्यालय के ध्वंस का स्थानीय स्तर पर प्रतिरोध क्यों नहीं हुआ. वे इसे हिंदू-बौद्ध संस्कृति के आपसी प्रतिरोध के परिणाम के रूप में भी आशंका जाहिर करते हैं. शायद इसलिए ही नालंदा जीवंत होने की जगह केवल धरोहर बन कर रह गया है. वे सवाल भी करते हैं कि आखिर नालंदा का फिर से उद्धार क्यों नहीं हुआ?

”अगर खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया तो बाद में यहां के शासकों ने उसे दुबारा बनाने की कोशिश क्यों नहीं की. कहीं यह भारतीय धर्मों के आपसी प्रतिरोध का कारण तो नहीं.”
प्रो. राजीव कमल, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट

क्या फिर जिंदा हो सकता है नालंदा?

नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर हर दर्शनार्थी को एक महान विद्या-केंद्र के शव के रूप में दिखते हैं. सबकी अंतरात्मा एक ही सवाल करती है कि क्या कोई ऐसा मंत्र है, जिसकी साधना से इस शव में जान फूंककर नालंदा को फिर से जीवंत विश्वविद्यालय बनाया जा सके. नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी की स्थापना के समय तो यही दावा किया गया था कि वह प्राचीन विश्वविद्यालय का ही नया अवतार होगा. उसी तरह की अकादमिक संरचना और श्रेष्ठता होगी. लेकिन ऐसा होना संभव नहीं दिख रहा है. नए विश्वविद्यालय के पास विद्वान शिक्षक, देश-विदेश के बच्चे और बहुत सारी सुविधाएं तो जरूर हैं, लेकिन वो ख्याति अभी तक नहीं मिल पाई है. नालंदा विश्वविद्यालय एक वक्त दुनियाभर में शिक्षा का पसंदीदा केंद्र था. वैसी ख्याति के लिए आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ भी तो चाहिए.

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नालंदा आज अगर होता तो क्या होता ?

लाख टके का सवाल यह है कि नालंदा को खोकर भारत ने क्या खोया? नालंदा अगर होता तो भारत क्या पाता? नालंदा को खोकर भारत ने केवल पढ़ाई का केंद्र ही नहीं खोया, बल्कि दुनिया के मानस से अपनी महानता भी बिसरा दी. महाशक्ति और विश्वगुरु का दर्जा भी खोया. आज अगर नालंदा विश्वविद्यालय होता तो भारत को इसकी अकादमिक श्रेष्ठता के कारण अपने विश्वगुरु के दर्जे को बार-बार याद नहीं कराना पड़ता. दुनिय़ा के 18 बौद्ध देशों और आधे दर्जन हिंदू बहुल देशों का यह सांस्कृतिक मिलन बिंदु होता. यहां तक कि अनायास ही भारत की सॉफ्ट डिप्लोमेसी की धमक दुनिया में फैल चुकी होती.

हिपोक्रेटिक ओथ की जगह ले चुका होता चरक शपथ?

आज अगर नालंदा विश्वविद्यालय होता तो संभव है कि डॉक्टर्स हिपोक्रेटिक ओथ की जगह कहीं चरक शपथ ले रहे होते. जी हां, नालंदा विश्वविद्यालय में उन्नत चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई की कोई सानी नहीं थी. ऐसे में वर्तमान में जो विदेशी संस्कृति को मानते हुए भारत में व्हाइट कोट सेरेमनी के दौरान हिपोक्रेटिक ओथ लिया जाता है, वह न होकर चरक शपथ लेने की संस्कृति हो सकती थी. हिपोक्रेटिक ओथ में यह शपथ ली जाती है कि अपने पद का दुरुपयोग न करते हुए वह मरीजों की सेवा करने को अपना धर्म मानेंगे. वहीं, चरक शपथ के मुताबिक- ना अपने लिए और ना ही विश्व के किसी वस्तु या फायदे के लिए, बल्कि सिर्फ इंसानियत की पीड़ा को खत्म करने के लिए मैं अपने मरीजों का इलाज करूंगा.

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