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जसिंता केरकेट्टा की कविताएं

जसिंता केरकेट्टा का जन्म 3 अगस्त 1983 में झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में सारंडा जंगल से सटे मनोहरपुर प्रखंड के खुदपोस गांव में हुआ. 2016 में पहला काव्य-संग्रह ‘अंगोर’ हिंदी-अंग्रेजी में आदिवाणी कोलकाता से प्रकाशित. अंगोर का जर्मन संस्करण हिंदी-जर्मन में प्रकाशित. देश की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. विभिन्न कवियों के कविता-संग्रहों […]

जसिंता केरकेट्टा का जन्म 3 अगस्त 1983 में झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में सारंडा जंगल से सटे मनोहरपुर प्रखंड के खुदपोस गांव में हुआ. 2016 में पहला काव्य-संग्रह ‘अंगोर’ हिंदी-अंग्रेजी में आदिवाणी कोलकाता से प्रकाशित. अंगोर का जर्मन संस्करण हिंदी-जर्मन में प्रकाशित. देश की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. विभिन्न कवियों के कविता-संग्रहों में भी इनकी कविताएं शामिल, इनमें शतदल, रेतपथ, समंदर में सूरज, कलम को तीर बनने दो माटी आदि स्मरणीय हैं. 2017 में प्रभात खबर अखबार द्वारा अपराजिता सम्मान से सम्मानित. 2014 में आदिवासियों के स्थानीय संघर्ष पर उनकी एक रिपोर्ट पर बतौर आदिवासी महिला पत्रकार उन्हें इंडिजिनस वॉयस ऑफ एशिया का रिक्गनिशन अवॉर्ड, एशिया इंडिजिनस पीपुल्स पैक्ट, थाईलैंड की ओर से दिया गया. संप्रति गांव में सामाजिक कार्य के साथ कविता सृजन कर रही हैं.संपर्क : 07250960618,ई़मेल : jcntkerketta7@gmail.com

राष्ट्रगान बज रहा है
मेरी सोच के भीतर
अचानक बज उठा है राष्ट्रगान
और मैं खड़ा हूं
राष्ट्रद्रोही कहलाने के डर से
सावधान की मुद्रा में.
ठीक इसी समय दीमकों का झुंड
घुस आया है मेरे भीतर
मेरी देह को मि˜ट्टी का टीला समझ
खोखला करता हुआ मुझे
और मैं चीखने में असमर्थ
खड़ा हूं सावधान की मुद्रा में ।
प्रतिरोध की हजारों आवाजें
कमर कस रही हैं
घरों से बाहर निकल आने को
कि ठीक उसी समय
बज उठता है राष्ट्रगान
घरों के भीतर.
जैसे कोई खौफनाक आवाज
हर आदमी के पीछे
गरदन पर बंदूक की नोक टिकाये
गूंजी हो अभी-अभी
जो जहां खड़ा है रूक जाये वहीं
सावधान की मुद्रा में.
राष्ट्रगान बज रहा है
मैं खड़ा हूं तनकर
और दीमकों का झुंड
मेरी देह के अंदर नाच रहा है
हर राजद्रोह से मुक्त.
मुझे कोई ‘ दिवस ‘ चाहिए
सालेन चाहता है
मैं एक बार उसके गांव आऊं
मेरे आने की खबर से
आ जाएगी बिजली, पानी, रास्ता.
मगर मैं क्या करूं
वहां तक पहुंचने के लिए
मुझे कोई दिवस चाहिए.
बिन बरसात तो सालेन भी
रोपा नहीं रोपता
मुझे भी तैयार करने हैं
वहां अपने खेत
जहां लग सकती हो मेरी रणनीति,
फल सकती हो मेरी राजनीति,
उग सकते हों फसल सपनों के,
मैं लगाऊंगा विकास के सपने
सालेन के गांव में
बस, मुझे कोई दिवस चाहिए.
मैं आऊंगा चलकर, देखने
पहाड़ पर बसा सालेन का गांव
दिल्ली से दिखती है थोड़ी धुंधली
उसके घर के पिछवाड़े की जमीन,
मैं साफ कराऊंगा जंगल
ये रोकती है मुझे,
उस तक सीधे पहुंचने से,
हल और हथियार से मैं
मुक्त करूंगा उसके हाथ
तब उगाऊंगा उसके खेतों में
अपने कारखाने और अपने हथियार
मनाऊंगा उसकी
मुक्ति और शहादत एक साथ
बस, मुझे वो दिवस चाहिए .
साहेब! कैसे करोगे खारिज ?
किसी ने नहीं देखा मुझे
किसी ने नहीं देखा मुझे
जब आंगन की मि˜ट्टी को
सीमेंट का कवच पहनाया गया
मैं मि˜ट्टी को समझाता रहा
मजबूत नींव के लिए
जरूरी है उसका मरना,
मगर मैंने देखा
एक-एक कर
फूलों को भी मरते हुए।
उस दिन से
मधुमक्खियों ने छोड़ दिया
मेरे आंगन में उठना-बैठना.
चिड़ियों ने भी मुंह फेर लिया मुझसे.
बारिश और हवा भी
हंसती नहीं अब खुलकर.
अब आंगन में सिर्फ सन्नाटा
धूप सेंकने आता है
और इसे उनकी नियति बताता रहता है.
मैंने फूलों के साथ-साथ उस दिन
मधुमक्खियों, चिड़ियों की भी हत्या की;
मि˜ट्टी बारिश और हवा को तड़पाया.
किसी ने नहीं देखा मुझे
सिर्फ मेरे हाथों की सफाई जानती है
मेरे गुनाह कितने बड़े हैं.
खूंटी पर टंगी फोन की घंटी
फोन की घंटी के साथ
बाजार घुस आया है कमरे में
बैठा रहता है सिरहाने
आधी रात को भी वह
मेरी नींद में बड़बड़ाता है.
हंसता है और कहता है
भीतर ही भीतर मत कुनमुनाना
यह समय है उसका
इसलिए सबसे पहले जरूरी है
फोन की घंटी का सुना जाना.
जंगल-पहाड़ के लोग
टांग देते हैं
फोन की घंटी को खूंटी पर,
सबसे पहले अपना काम निपटाते हैं
फिर फोन को पहाड़ चढ़ाते हैं
जहां हांफती है फोन की घंटी,
जैसे-जैसे सूरज ढलता है
घंटी का स्वर बदलता है
आदमी जरा सा हिलता है
कि फोन गिरते-गिरते संभलता है
डूब जाता है सूरज उस पार
टूट जाते हैं सारे तार.
देख चेहरा
बजार से आये और झल्लाये
फोन की घंटी का
कहते हैं पहाड़ के लोग
भीतर ही भीतर मत कुनमुनाना
जरूरी है सबसे पहले यहां
प्रकृति को सुना जाना.


साहेब! कैसे करोगे खारिज
साहेब !
ओढ़े गये छद्म विषयों की
तुम कर सकते हो अलंकारिक व्याख्या
पर क्या होगा एक दिन जब
शहर आयी जंगल की लड़की
लिख देगी अपनी कविता में सारा सच,
वह सच
जिसे अपनी किताबों के आवरण के नीचे
तुमने छिपाकर रखा है
तुम्हारी घिनौनी भाषा
मंच से तुम्हारे उतरने के बाद
इशारों में जो बोली जाती है
तुम्हारी वे सच्चाइयां
तुम्हें लगता है जो समय के साथ
बदल जाएगी किसी भ्रम में,
साहेब !
एक दिन
जंगल की कोई लड़की
कर देगी तुम्हारी व्याख्याओं को
अपने सच से नंगा,
लिख देगी अपनी कविता में
कैसे तुम्हारे जंगल के रखवालों ने
‘तलाशी’ के नाम पर
खींचे उसके कपड़े,
कैसे दरवाजे तोड़कर
घुस आती है
तुम्हारी फौज उनके घरों में,
कैसे बच्चे थामने लगते हैं
गुल्ली–डंडे की जगह बंदूकें
और कैसे भर आता है
उसके कलेजे में बारूद,
साहेब !
एक दिन
जंगल की हर लड़की
लिखेगी कविता
क्या कहकर खारिज करोगे उन्हें?
क्या कहोगे साहेब?
यही न….
कि यह कविता नहीं
"समाचार" है…..!!

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