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अंकिता रासुरी की कविताएं

अंकिता रासुरी का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले के भरपुरिया गांव में हुआ. इन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नोएडा से पत्रकारिता की पढ़ाई की. फिलहाल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत. वागर्थ, परिकथा, अहा जिंदगी, लमही, साक्षात्कार, तहलका, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित.मेरा मां होना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 11, 2017 5:22 PM
अंकिता रासुरी का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले के भरपुरिया गांव में हुआ. इन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नोएडा से पत्रकारिता की पढ़ाई की. फिलहाल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत. वागर्थ, परिकथा, अहा जिंदगी, लमही, साक्षात्कार, तहलका, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित.

मेरा मां होना
हमारे साझा प्रेम से उपजे
मेरे पेट के भ्रूण को संभालना या उसको नष्ट करना
निर्भर करता है
मेरे होने या न होने की स्थितियों पर
मेरे पेट में बढ़ते भ्रूण का होना
न तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करेगा
ना ही यह तुम्हारी निर्मूल आशंकाओं के अनुरूप
तुम्हें जिंदगी भर बांधे रखने की साजिश है
ना ही ये कोई मां की कोख के होने से उपजा प्रेम है
मेरा मां बनना इस पर निर्भर नहीं करता कि
तुम पिता की जिम्मेदारी लोगे या नहीं
ये निर्भर करता है
अपने शरीर के हिस्से को बचाये रखने की मेरी इच्छा पर
हे मेरे दोस्त हे मेरे प्रेमी
मैं एक नया जीवन जीने की ओर अग्रसर हूं
हमेशा की तरह
क्योंकि मेरा जीवन किसी और का अधूरा हिस्सा नहीं
पेट में उठ रहे दर्द के बीच
मैं सोच रही हूं
कितना प्रेम करती हूं तुमसे
तुम्हारी हर एक मुस्कान से
तुम सच में सबसे अच्छे हो
लेकिन हो तो आखिर पुरुष ही ना
कैसे नहीं सोचूं
मेरे पेट में हमारा बच्चा है
हां हमारा
जितना मेरा ठीक उतना ही तुम्हारा भी
और मैं दर्द से तड़प रही हूं
तुम शायद करते होगे मुझे प्रेम
बहुत रोमांचित होगे होने वाले बच्चे की खातिर
ठीक मेरी ही तरह
लेकिन मेरे हिस्से के दर्द का क्या कुछ कर पाओगे तुम
क्या बांट पाओगे मेरे शरीर का भारीपन
या मेरे हिस्से का खौफ
जानते हो ना जाने कितने ही औरतें मर जाती हैं
बच्चा जनते वक्त
लेकिन तुम ये सब नहीं सोच सकते
खिलखिलाते बच्चे तुम्हें बहुत पसंद हैं
उन सब में शायद तुम कभी नहीं देख पाते
मेरे भीतर चिल्लाहटें
क्योंकि तुम कभी हो ही नहीं सकते एक स्त्री देह
प्रेम में जीती हुई स्त्री
कुछ न कुछ बदलता चला जाता है अंतर्मन के हिस्से में
एक उदास प्रेम करती हुई स्त्री
यकायक को जीने लगती है प्रेम को
कुछ व्यस्तताएं घेर लेती हैं उसे
जिनमें वह खोज लेती है कभी फ्यूंली तो कभी राजुला को
इतिहासों और किंवदंतियों के खानों से
और पुराने किले में जगह तलाशते प्रेमी भी उसे अपने ही लगने लगते हैं
तभी लगता है.. सल्तनतों की दासियां / बेगमें एक बार फिर जागी हैं
एक उदासी और बेख्याली में
और बादशाहों को छोड़कर
दौड़ पड़ती हैं अपने अपने हिस्से के जीवन के लिए
हाथियों की टुकड़ियां के साथ बेजान से पड़े राजा
कर देते हैं समर्पण
और वो प्रेम में जीती हुई स्त्री अकेले ही
कर रही होती है पार
भीड़ भरे रास्तों को.
पुरानी टिहरी यादों में
बांध के पानी में तलाशती मेरी आंखें
कब के डूब चुके घंटाघर और
राजमहल की सीढ़ियों से फिसलते पैरों के निशानों को
धुंधली पड़ चुकी स्मृतियों की दुनिया से
फिर भी चला आता है कोई चुपचाप कहता हुआ
यहीं कहीं ढेरों खिलौनों की दुकानें पड़ी हैं
सिंगोरी मिठाई से के पत्ते यही कहीं होंगे बिखरे हुए
रंगबिरंगी फ्राक के कुछ चिथड़े जरूर नजर आ रहे तैरते हुए
बांध के चमकीले पानी में
एक बचपन और जवानी को जोड़ते हुए
पानी को देखती हूं
और मेरी कल्पनाएं पसारने लगती हैं पांव
एक खूबसूरती तैर जाती हैं आंखों के कोरों पर
चलती सूमो से नीचे की ओर निहारती नजंरें
डूब जाना चाहती हैं
पानी में टिमटिमाते तारों से प्रकाश में
ओह यह कितना बड़ा छलावा है
पूरी एक सभ्यता को डुबो चुके इस पानी में
में भी दिखने लगता है जीवन
मुआवजा
एक भैंस और दो गाय मरे थे अबके चौमासा साबू चाचा की छान में
पिछले साल मर गयीं थी तीन बकरियां
बाकी बची हुई एक बकरी को खुद ही मारकर खा गये
सुना है प्रधान चाचा ने दिलवाया है मुआवजा
प्रतापु चाचा के वर्षों पुराने टूटे पड़े खंडहर पर
उनके एक और नये मकान की छत के लिए
और साबू चाचा के कमजोर हाथ
खुद ही कर रहे हैं चिनाई छज्जे की
क्योंकि पत्थर तोड़ते हाथ नहीं ला पाये
शाम को कच्ची ही सही एक थैली दारू
और भामा चाची के पास था ही कहां वक्त कि वो
प्रधान चाची के खेतों मे रोप पाती नाज को
बूढी सास को छोड़कर.
साहस
बहुत आसान है पहाड़ की वादियों मे थिरकती किसी सुंदरी को गढ़ना अपनी कल्पनाओं में
पेंटिंग्स या कविताओं मे रचते हुये
उसमें स्वयं को बिसरा लेना
पर क्या कोई रच पाया है अपने एहसासों में
मुझ जैसी स्त्रियों को जिनकी देह लगती है किसी सूखे पेड़ का अवशेष
हफ्तों बिना कंघी तेल के बाल लगते हैं
मानो कभी सुलझे ही न हों
जिनके हाथों का खुरदुरापन लगता हो किसी सूखे खेत का प्रतिरूप
और खेतों की धूल मिट्टी जिनके हाथों को ही मटमैला कर गयी है
घास लकड़ी का गट्ठर लिये घंटों चली करती हैं अक्सर
नंगे पांव भी झुलसते हुये सिसकते हुये
इतनी भी फुर्सत नहीं कि सहला सकें अपने जख्मों को बैठकर
और व्यस्त है ऐसे कार्यों में जिनका कोई सम्मान भी नहीं करता
ये सब हमने अपने लिये नहीं
उनके लिये किया है जिनको दिखती है
मेरी देह की कुरूपता
हमारी तपस्या नहीं
क्या तुम में अब भी साहस है कर सको एक ऐसी स्त्री से प्रेम
जो अब तुम्हारे सामने है इस बदले हुये रूप के साथ
ना तुम, ना मैं, ना समंदर
लैम्प पोस्ट की लाइट पड़ती है आंखों पर
बीड़ी का एक कश
उतरता है गले से
बिखरा हुआ कमरा और बिखर जाता है
कहीं कुछ भी तो नहीं ना आंसू ना शब्द
बस एक कड़कती देह है
जो अकड़ती जा रही है
उफ कितनी बड़ी बेवकूफी है
न जाने के क्यों भगवान याद आता है अचानक
और उसी क्रम में एक गाली भी इस शब्द के लिए
उतनी ही गालियां इस लिजलिजे प्रेम के लिए
एक दो तीन
प्यार है या सर्कस का टिकट
मैंने प्रेम किया इसकी तमाम बेवकूफियों के साथ
मैंन सोचा क्या एक स्त्री वाकई में कर लेती है कुछ समझौते
एक चुप्पी जो टूट कर कह सकती थी बहुत कुछ
वह चुप्पी चुप्पी ही बनी रह जाती है
एक निर्मम खयाल आता है पूरी निर्ममता के साथ
दुनिया को कर दूं तब्दील एक पुरुष वेश्यालय में
एक ओर झनझनाता है हाथ
एक खयाल जो जूझता है खत्म हो जाने और फिर से बन जाने के बीच
एक खयाल जो जिंदगी को कह देना चाहता है अलविदा
है ही क्या रखा इन खाली हो चुकी हथेलियों में
ना चांदनी रात
ना खुला आसमान
खेत ना जंगल ना पहाड़
ना तुम ना मैं ना समंदर
ना जिंदगी
बस पीछे छूट चुके घर
के ठीक सामने वाले पहाड़
पर चढ़ने और उतरने की एक तीव्र इच्छा
एक ऐसी इच्छा जो खत्म हो जाएगी
अपनी पूरी क्रूरता के साथ

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