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दुर्गासप्तशती का विश्लेषण : या देवी सर्वभूतेषु… !!- 5

मां जगदम्बा का देवों के प्रति यह आश्वासन कि:– "एवं यदा यदा बाधादानवेत्था भविष्यति। तदा तदा अवतीर्याऽहं करिष्यामि अरि संक्षयम्। अर्थात् जब जब इस प्रकार दानव प्रबल हो आपके सत्कार्य सम्पादन में बाधक होंगे, आपकी पुकार पर भविष्य में भी अवतरित हो शत्रुओं का संहार करूंगी. आज हमारी (मां के प्रति उपासना) मां के प्रति […]

मां जगदम्बा का देवों के प्रति यह आश्वासन कि:–

"एवं यदा यदा बाधादानवेत्था भविष्यति।

तदा तदा अवतीर्याऽहं करिष्यामि अरि संक्षयम्।

अर्थात् जब जब इस प्रकार दानव प्रबल हो आपके सत्कार्य सम्पादन में बाधक होंगे, आपकी पुकार पर भविष्य में भी अवतरित हो शत्रुओं का संहार करूंगी.

आज हमारी (मां के प्रति उपासना) मां के प्रति पूजा हार्दिक कम, दिखावे की ज्यादा हो गयी है।

आज हम एक पंडाल दस करोड़ की बनाने की क्षमता रखते हैं, पूरे देश में आकलन किया जाय तो सब मिलाकर अरबों खरबों की राशि प्रति वर्ष खर्च होती होगी. पर देवी के क्षुधा रूप का दर्शन ऐसे लोगों द्वारा, शोषित पीड़ितों में न कर पाना, मां की भक्ति से विमुख होना नहीं है क्या !!

देवी दया रूप में हमारे अन्दर क्यों नहीं बसतीं, क्षमा रूप में हम में क्यों नहीं भाषित होतीं।

आज "या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता" क्यो हमें नहीं दिख पातीं। उनका श्रद्धारूप हम से आज दूर क्यों है।

माना पंडाल बनाने एवं अन्यान्य के समायोजन मे भी कुछ लोगों को रोजगार मिलता है, पर ये क्षणिक रोजगार ही दे पाते हैं और नन्प्रोडक्टिभ ही कहलाएंगे.

क्या ही अच्छा हो अगर उस अपार धनराशि से लघु, कुटीर उद्योग से लेकर फूडप्रसेसिंग की, एवं अन्य बड़े उद्योगों का जाल पूरे देश में बिछ जाय कि "या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता" का मां का मूर्तिमान स्वरूप देश के आकाश के पंडाल में सदा के लिए विराजित हो जाये जिसके विसर्जन की हम बात सोच भी न सकें।

शान्ति का मतलब सुख शान्ति! भला कौन इसका विसर्जन करना चाहेगा।

"या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता"

की ओर भी हमारा ध्यान हो, मां की कृपा से "महामाया" की प्रेरणा से हमारी बुद्धि विमल हो-"या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

अब भी हम मोह निद्रा त्यागें!!!

या देवी सर्वभूतेषु… !! 4

सुप्रभातः सर्वेषाम् देव्याः भक्तानाम कृते! नमस्कारश्च!

दुर्गा सप्तशती के अंतर्गत देवी के तीन चरित्रों की चर्चा क्रमशः संक्षेप में की गयी !

तृतीय चरित्र के अंतर्गत राक्षस शुम्भ निशुम्भ के मारे जाने पर एकादश अध्याय में देवों के द्वारा देवी की वृहद् स्तुति की गयी है. उनमें से कुछ श्लोकों की व्याख्या नवरात्रि के दौरान लोकानुकरण के लिए किया जायेगा.

आज इसी क्रम में इन दो श्लोकों को देखें :-

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिया: समस्ता: सकला जगत्सु

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरापरोक्ति:

अर्थात :

देवि! सम्पूर्ण विद्याएं तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरुप हैं. जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारा ही रूप हैं.

हे जगदम्ब! एकमात्र आपसे ही सारा विश्व व्याप्त है. ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नवरात्रि के मध्य सारा देश मां की आराधना में लगा है और इस मान्यता की स्वीकृति अपने मन-मस्तिष्क में सारे लोग बिठा लें तो स्वतः ही स्त्री जाति के प्रति नित हो रहे दुर्व्यवहार एवं उठने वाले कुत्सित भाव विलीन हो जायेंगे. इस श्लोक में इंगित किया गया है कि इस भाव से बढ़ कर मां की कोई स्तुति नहीं हो सकती. हे मां! तुम स्तवन करने योग्य पदार्थ वाणी से भी परे हो अर्थात वाणी से मां की स्तुति संभव नहीं है! ध्यातव्य हो कि हमारे सद् व्यवहार व सदाचरण ही मां की वास्तविक स्तुति हैं !!

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान् सकलानाभीष्टान्

त्यामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता श्रयतां प्रयान्ति

अर्थात :

हे देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सभी भक्तों के रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो. जो लोग तुम्हारी शरण में आ जाते हैं उन पर कोई विपत्ति नहीं आती एवं वे दूसरे मनुष्य को शरण देने वाले बन जाते हैं.

यहां इस श्लोक और श्लोकार्थ पर अगर हम गंभीरता से विचार करें तो यह स्पष्ट ज्ञात हो जायेगा कि हम सब रोग शोक से क्यों पीड़ित हैं. हमें अपने अभीष्ट की सिद्धि में इतनी कठिनाइयां क्यों झेलनी पड़ रही है. दूसरे को आश्रय देने की बात तो दूर, हम स्वयं की उदरपूर्ति में भी असमर्थ हो रहे हैं.

देवी की आराधना हम सब हजारों हज़ार वर्षों से करते चले आ रहे हैं फिर भी हमारी समस्याएं क्यों यथावत हैं, सब मिल इस पर विचार एवं चिंतन करें तो उत्तर स्वमेव प्राप्त हो जायेगा! चरित का मतलब चरित्र है और भक्तों द्वारा देवी की आराधना का अर्थ केवल धूप दीप नैवेद्य समर्पण ही नहीं अपितु उन भावों एवं संस्कारों का अनुकरण ही वास्तविक आराधना है.

अगर हम सचमुच रोग शोक से मुक्ति और दूसरे के लिए आश्रयदाता बनना चाहते हैं तो इस रूप में अपनाएं एवं स्वयं परीक्षण कर लें !

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