सामाजिक सरोकार से रूबरू करातीं अरुण देव की कविताएं

अरुण देव मूलत: उत्तरप्रदेश के रहने वाले हैं. अबतक दो कविता संग्रह ‘क्या तो समय’ भारतीय ज्ञानपीठ से 2004 में और ‘कोई तो जगह हो’ राजकमल प्रकाशन से 2013 में प्रकाशित है. ‘कोई तो जगह हो’ के लिए उन्हें 2013 का राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है. उनकी कविताओं के अनुवाद असमी, कन्नड़, तमिल, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 26, 2017 4:38 PM

अरुण देव मूलत: उत्तरप्रदेश के रहने वाले हैं. अबतक दो कविता संग्रह ‘क्या तो समय’ भारतीय ज्ञानपीठ से 2004 में और ‘कोई तो जगह हो’ राजकमल प्रकाशन से 2013 में प्रकाशित है. ‘कोई तो जगह हो’ के लिए उन्हें 2013 का राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है. उनकी कविताओं के अनुवाद असमी, कन्नड़, तमिल, मराठी, नेपाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं में हुए हैं. संप्रति अरुण देव पिछले छह वर्षों से हिंदी की वेब पत्रिका ‘समालोचन’ का संपादन कर रहे हैं. इन्होंने जेएनयू से शिक्षा प्राप्त की है और एसोसिएट प्रोफेसर भी रहे हैं. इनकी कविताओं में सामाजिक सरोकार बखूबी नजर आता है.

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हां मैं निराश हूं
आज़ादी के सत्तर साल बाद भी बाढ़ से मरते हैं हजारों लोग
हर साल सूखे से कुम्हलाकर धरती पर गिर जाती है एक बड़ी आबादी
अगस्त में सैकड़ों बच्चे मरते ही हैं
जैसे पतझड़ में गिरते हों पीले पत्ते
लाखों बच्चे शिक्षा के नाम पर ऐसी जगह भेजे जाते हैं जहां एक फूल नहीं खिल सकता
इलाज़ के नाम पर करोड़ों लोग बस मुक्ति की प्रतीक्षा करते हैं
अपनी अंतिम इच्छा पर निकले 70 साल के बूढ़े को
नहीं मिलती जगह किसी ट्रेन में
प्रारंभिक जरूरतों के लिए भटकते 17 साल के तमाम लड़के उसमें ठूंसे हुए हैं
उनके लिए भी कहीं कोई जगह नहीं है
हर खेत के नीचे एक किसान का शव है
जंगल में हर पेड़ पर लटका हुआ मिलेगा एक आदिवासी
कीचड़ में फंसी है मनुष्य की अपनी ही एक प्रजाति
कस्बे से गांव को लौटती सड़क पर बच्चों को खींचती हांफती औरते मिलेंगी
उनके खून में लोहा नहीं है
नहीं है उनके घर में कैल्सियम
ओसारे में खाट पर लेटे नवयुवकों को नहीं मिलता खाने में प्रोटीन
उन्हें सालों से जीने की वजह नहीं मिल रही है
उनका श्रम बाज़ार में नीलामी के भी लायक नहीं रहा
कारखाने स्वचालित मशीनों से आबाद हैं
जुलूसों में धर्मपताकाएं हैं
अधर्म की घोषणा करते पापियों से भर गयी है हर एक जगह
जो चमक है वह अब चुभती है
जो भंगिमाएं दमक रही हैं बड़ी अश्लील हैं यार
घोषणाएं खोखली हैं
हर गली बंद है
हर रास्ते पर संदेह
चौराहे पर दिशाहीनता
मेरी निराशा की सड़क के अंतिम सिरे पर
हमारी सतत निराशाओं से जन्मा एक तानाशाह खड़ा है
यह और निराश करता है मुझे
सभ्यता में अब सिर्फ बेचना, खरीदना, भोगना और फेंकना रह गया है.
हां मैं निराश हूं.
तुम करते हो प्यार
इसी शोर के बीच
इसी भीड़ के मध्य
इसी आपाधापी में
रौशनी के मद्धिम पड़ने से पहले
कह दो कि तुम्हें मुहब्बत है
इस नश्वर दुनिया से
हर पल बदलते, नए होते क्षणिक सुखों से
सुख में दुःख का बहता दरिया, दरिया के किनारों से
अभी अभी जन्मी चमकती आंखों से
तुतलाती ध्वनियों से
तुम्हें प्यार है कहो
निराशा और संशय से कांपते दिन के मटमैले पन्ने पर लिख दो
इश्क
बारिश के रुकने
बाढ़ के उतरने
तूफान के थमने पर नहीं
डगमगाती कश्ती के बीच तुम कहो कि तुम्हें प्यार है
आंखों से कह दो
अपनी देह से जिसे अभी-अभी प्रेम ने गढ़ा है
कंठ से जहां आवाज की शक्ल भींग कर राग में बदल गयी है
चाक की मिटटी से संवरता कलश कहता है मिटटी से, चाक से, आग और कुम्हार से
कह सकते हो तुम भी
अकलेपन में उलझी अधूरेपन की इस लंबी रात में सुबह की प्रतीक्षा नहीं
उठो रौशनी की तरह अभी
कहो अपने आप से कि तुम करते हो प्यार
फूलों से, वृक्षों से, घासों से, ओस से, हिरन से, शेर से
मछलियों से
इस पृथ्वी से करते हो प्यार
आतंक और भय की लंबी दीवार पर जब तुम लिखोगे प्यार
तुम्हें ताकत मिलेगी इनसे लड़ने की
हां तुम करते हो प्यार.
मिलना किसी स्त्री की तरह
तुम जो भेजते हो मैसेज बाक्स में गुलदस्ते
टैग किये रहते हो दिल फरेब नगमों में मुझे
घड़ी घड़ी बदलते हो तस्वीरें इज़हार की कोमलता से झुकी हुईं
पोस्ट करते हो कविताएं प्रेम के शुरूआती दिनों की उन्माद से भरी, मीठी
मुझे बताओ स्त्री को तुम देखते कैसे हो
कभी देखी है उसकी आज़ादी
उसका इंकार सुना है कभी
उसके मना करने के ऐन वक्त तुमने कैसे रियेक्ट किया
क्या तुम आहत हुए धधकते हुए छिटक पड़ने को आतुर
मुझे बताओ गली सुनसान में कोई स्त्री जब अकेली पड़ जाये
क्या चलता है तुम्हारे मन में
क्या लिफ्ट में तुम्हें देख कोई लडकी सहम कर अपनी मंजिल से पहले उतर गयी
भीड़ भरी बसों में अपने को बचाती स्त्रियों के लिए क्या तुमने कभी कोई सीट छोड़ी
युद्धों से वीरान देश, दंगों में जलते मोहल्ले
भागती, रौंदी जाती रक्तरंजित स्त्री के लिए
क्या एक पुरुष होने पर तुम्हें कभी लज्जा आई
कितनी लड़कियों ने तुम्हारी घूरती नजर से घबराकर अपनी आभा मंद कर ली
कभी पकाई है किसी स्त्री के लिए रोटी, जली ही सही
उस के लिए कभी रोये फूटफूट कर
मेरी रूचि तुम्हारे प्रोफाइल फोटो में नहीं है डियर
बराबरी और खुदमुख्तारी ऐसे अंगारे हैं
जिनसे अभी भी दहकने लगता है पुरुष
सुलग उठती है संस्कृति
और धुंआ उठने लगता है धर्मों से
मैं समझती हूं अभी तुम्हें इसका अभ्यास नहीं है
तुमने अपनी फर्माबरदार मां को देखा है
दबने वाली बहनों के बीच बड़े हुए हो
तुम्हें एक ऐसी स्त्री दे दी गयी है जो घर चलाने की विवशता में
सहती और चुप रहती है
तुम्हें वात्सल्य मिला, स्नेह मिला, देह मिली
पर प्रेम नहीं मिला किसी स्त्री का
मुझे कभी मिलना तो इस तरह मिलना जैसे कोई स्त्री मिलती है किसी से.
अलग – अलग
जब वे साथ थे
हमेशा साथ- साथ रहे
रंग, स्वाद, धुन और किताबें
साथ रहीं ट्रेनें
पहाड़ियां और घास
तमाम सर्द रातों में वे एक थे
गर्म हवाओं के बीच वे इतने एक थे की पसीने का स्वाद भी एक हो गया था
वे निर्वस्त्र होकर और एक हो जाते
कि पता नहीं चलता किसकी त्वचा कहां से शुरू हो रही है
जब हुए अलग
साथ रहने की यातना उनके साथ अलग-अलग गयी
चोटों के निशान दोनों के अलग- अलग थे
लथपथ थे दोनों के मन अलग-अलग
अलग- अलग बची रह गयी आत्महत्या की इच्छा
हत्या की हद तक वे दोनों अलग- अलग पहुंचे थे
वर्षों अलग-अलग रहने के बाद
वे अलग हुए
तमाम आशंकाओं से
साथ-साथ इस तरह हुआ अलग-अलग.
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