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दुर्गासप्तशती का विश्लेषण या देवी सर्वभूतेषु… !! ८

-सत्यनारायण पांडेय- सुप्रभातः सर्वेषां शारदीय, बासन्तिके, वर्षपर्यन्तं वा जीवनपर्यन्तं देव्याः पूजन तत्परे सांसारिकजनानां कृते। प्रिय बन्धुगण! दशमीपर्यंत मां की प्रीति एवं आपकी सेवा में कुछ निवेदन करते रहने का मेरा संकल्प है। इसी क्रम में कुछ और श्लोकों के मनन का क्रम चलेगा आज भी! मां शरणागत वत्सल हैं, वे दया का सागर हैं, जगत्जननी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 28, 2017 10:25 AM
-सत्यनारायण पांडेय-
सुप्रभातः सर्वेषां शारदीय, बासन्तिके, वर्षपर्यन्तं वा जीवनपर्यन्तं देव्याः पूजन तत्परे सांसारिकजनानां कृते।
प्रिय बन्धुगण! दशमीपर्यंत मां की प्रीति एवं आपकी सेवा में कुछ निवेदन करते रहने का मेरा संकल्प है। इसी क्रम में कुछ और श्लोकों के मनन का क्रम चलेगा आज भी!
मां शरणागत वत्सल हैं, वे दया का सागर हैं, जगत्जननी हैं वे. उनके पास सकल कष्टों का निवारण है. भक्तिभाव से प्रसन्न हो वे अभीष्ट वर प्रदान कर हमारा लोक परलोक तार देती हैं. ऐसी करुणामयी मां के होते हुए हम दीन, हीन और असहाय कैसे हो सकते हैं. हमारी दीनता का कारण हम स्वयं हैं. हम अपनी क्षमताएं तो भूल ही चुके हैं. मां के प्रति हमारा समर्पण भी इस चकाचौंध में कहीं खो गया है. देवी की प्रेरणा से यह खोया हुआ सौभाग्य लौटे और हम मन से आराधना में लीन हो सकें. अगर आराधना सच्ची होगी तो हमसे दैनंदिन होने वाले कुकृत्य एवं स्वार्थपरक भावनाएं स्वतः दूर हो जायेंगी. हम माता से वरदान पाने के अधिकारी होंगे ठीक उसी तरह जैसे मां से वैश्य ने वरदान प्राप्त किया था :-
वैश्‍यवर्य त्वया यश्‍च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥ १३ वां अध्याय
अर्थात्! वैश्यवर्य! तुमने भी जिस वर को मुझसे प्राप्त करने की इच्छा की है, उसे देती हूं. तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान प्राप्त होगा.
कहते हैं, प्रार्थना के द्वारा वो वास्तु क्या मांगनी जो नाशवान हो. वैश्य ने अपने लिए मोक्ष मांगा. संसार से विरक्त उसके हृदय ने माता से वो निधि मांगी जो हमारे मनुष्य योनी का अंतिम सत्य व मंजिल है.
सोऽपि वैश्‍यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्‌गविच्युतिकारकम्॥१८॥
[ वैश्य का चित्त संसार की ऒर से खिन्न एवं विरक्त हो चुका था और वे बड़े बुद्धिमान थे अत: उस समय उन्होंने तो ममता और अहंता रूप आसक्ति का नाश करने वाला ज्ञान मांगा।
ज्ञान रुपी अमृत का पान करने का सुअवसर जिसे मिल जाए वह सकल तुच्छ अवधारणाओं से छूट जाता है. हम भी मां की आराधना में यूं लीन हों कि सांसारिक आसक्तियां हमसे छूट जायें और हम भक्तिपूर्वक देवी को हृदय में बसाये हुए सांसारिक कर्तव्यों का समुचित निर्वाह कर सकें!
या देवी सर्वभूतेषु… !! ७
मां का वचन है देवताओं की स्तुति से प्रसन्न हो कर कहती हैं —
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥३७॥
***
देवा ऊचु:॥३८॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥३९॥
अर्थात्! देवी कहती हैं, "हे सुर गण! जो वर चाहे मांगो मैं जगत के उपकार के लिए वह वर प्रदान करूंगी", जिसपर देवता गण एकस्वर में कहते हैं "हे अखिलेश्वरी! तीनों लोकों के सभी संकटों का शमन करो एवं शत्रुओं से रक्षा का वर प्रदान करो".
और भी, सबसे कठिन स्थिति में —
भूयश्‍च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभि: संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥
अर्थात्! बारिश न होने पर मुनियों की स्तुति के प्रभाव से अयोनिजा रूप में प्रगट होऊँगी. फिर देवी कहती हैं कि मैं बारिश न होने तक अपनी देह पर उत्पन्न प्राणदायक शाकों से सारे संसार का भरण पोषण करूंगी
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्‌भवै:।
भरिष्यामि सुरा: शाकैरावृष्टे: प्राणधारकै:॥४८॥
अर्थात्, जगन्माता (अपने पुत्र-पुत्रियों) मात्र मनुष्यों के लिए ही नहीं अपितु "प्राणधारकै:" हर प्राणधारक को आश्वाशन दे रही हैं और वहीं संग्रह की प्रवृत्ति वाले हम सब, अकाल पड़ने पर आपत विपत में खिलाने का दावा करने वालों के सामने, आधी आबादी भूखे सो रही है! क्या हम क्षमा के पात्र हैं जगदंबा की नजरों में ?!! सोचें तो सही…
या देवी सर्वभूतेषु…6 !!
हम सबों ने देखा ,तीन प्रमुख पात्र ही सप्तशती की कथा के विस्तारक हैं–राजा सुरथ, समाधि नाम वैश्य और मेधा नाम ऋषि।
केवल कुंजिका के तौर पर–"यथा नाम तथागुण" को ध्यान में रखें—ऋषि मेधा हैं (मेधा, बुद्ध, संसिद्ध ज्ञान के मूर्तरूप)
राजा सुरथ (जिनका सु+रथ है–धर्मानुकूल शासन व्यवस्था वाला)
समाधिनाम वैश्य (सम्यक्+धी=बुद्धि युक्त)
यही लोक कल्याण के तीन मुख्य आस्पद हैं।
आज की दुरावस्था के कारणों को हम खुद समझें और निवारण के आस्पद हम खुद बनने की चेष्टा भी करें तो, जगदम्बा अपनी प्रतिज्ञानुसार तो सहायतार्थ खड़ी ही हैं–
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गपवर्गदा।। ५/१३।।
हे राजन्! उन्हीं (जगदम्बा) के शरण में जाओ ,वही आराधना, पूजन से मनुष्य मात्र को भोग, ऐश्वर्य, यहां तक कि धर्मपूर्वक संयमित जीवन धारण करने वाले को स्वर्ग, अपवर्ग भी सहज ही प्रदान करती हैं।
अब देखें राजा सुरथ और समाधिनाम वैश्य ने, जो राज्य और घर से निष्कासित हैं, जंगल में साधन हीन होकर भी देवी का सात्विक पूजन कर कैसे स्वाभीष्ट प्राप्त कर लिए–
तौ तसन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्।
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।।
***
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ सहाहितौ।
***
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुगुक्षितम्।
एवं समायाराधतोस्त्रिभिवर्षैर्यतात्मनोः ।।
परितुष्टा प्राह चण्डिका–
यत्प्रार्थयते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि ते।।
( श्लोक–१० से १५ तक अध्याय १३ / सप्तशत्या:)
अर्थ सुगम है, विस्तार भय से, नहीं लिख रहा हूं।
पर ध्यान रहे, जगदम्बा दिखावे से परितुष्ट नहीं होतीं। धूप दीप पुष्प से पूजा ही अभीष्ट है उन्हे। निराहार रहकर उनकी आराधना हो या आहार लेकर, बलि भी अपने रक्त की ही देनी है और अगर बलि देनी ही है, तो जगदम्बा के चरणों में महीषरूप अहं की, इर्ष्या की, द्वेष की, लोभ की, मोह की, मद की और मात्सर्य की बलि दें।
अन्यथा अल्प परिश्रम और अल्पकाल में प्राप्त ही प्राप्त होनेवाली कृपा से अपनी नादानी के कारण हम मनुष्य आने वाले करोड़ों वर्षों तक उनकी कृपा पाने में विफल ही हैं और आगे भी रहेंगे।
पर हमें विश्वास है, एक दिन हम अपने शुद्ध और सात्विक कर्मों का महत्व समझेंगे. और अभीष्ट प्राप्ति में महामाया की कृपा से सफल भी होंगे।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

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