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झारखंड का अलौकि‍क गांव ‘मलूटी’ जो प्रसिद्ध है मंदिरों के लिए

-रश्मि‍ शर्मा- देवघर से तारापीठ जा रही थी. जब दुमका से आगे गयी तो रास्‍ते में माईलस्टोन पर लि‍खा मि‍ला कि‍ मलूटी 55 कि‍लोमीटर. अब ये कैसे हो सकता था कि‍ उस रास्ते से गुजरूं और उस गांव में न जाऊं जि‍सके बारे में इतना सुन रखा है कि‍ मंदि‍रों का गांव है यह. मेरी […]

-रश्मि‍ शर्मा-

देवघर से तारापीठ जा रही थी. जब दुमका से आगे गयी तो रास्‍ते में माईलस्टोन पर लि‍खा मि‍ला कि‍ मलूटी 55 कि‍लोमीटर. अब ये कैसे हो सकता था कि‍ उस रास्ते से गुजरूं और उस गांव में न जाऊं जि‍सके बारे में इतना सुन रखा है कि‍ मंदि‍रों का गांव है यह. मेरी उत्सुकता चरम पर और नजरें सड़क के दि‍शा-नि‍र्देश पर.

तारापीठ जाने से पहले ही है मलूटी गांव. इसे गुप्‍तकाशी मलूटी भी कहा जाता है. झारखंड की उपराजधानी दुमका से इसकी दूरी 60-70 कि‍लोमीटर है. शि‍कारीपाड़ा के पास है यह गांव. रास्‍ता बहुत अच्‍छा है. आप आराम से सड़क मार्ग से जा सकते हैं. मुख्‍य सड़क से दाहि‍नी ओर एक रास्‍ता नि‍कलता है. करीब छह कि‍लोमीटर की दूरी पर है गांव. हम जैसे गांव पहुंचे, कुछ स्‍कूली लड़कि‍यां साइकि‍ल से नि‍कलती मि‍लीं. हमने मंदि‍र के बारे में पूछा तो उन्‍होंने बांयी तरफ गांव के अंदर जाने का इशारा कि‍या. मैंने जरा असमंजस से देखा क्‍योंकि‍ सड़क से पता नहीं लग रहा था कुछ भी. यह गांव झारखंड बंगाल की सीमा पर है, यहां की भाषा भी बंगाली मि‍श्रि‍त हिंदी है. उधर दाहि‍नी तरफ भी एक मंदि‍र दि‍ख रहा था. हमने सोचा कि‍ पहले वह मंदि‍र ही देख लि‍या जाये.

मां मौलीक्षा देवी का मंदि‍र था वो. दोपहर का दूसरा पहर था, इसलि‍ए सब तरफ शांति‍ थी. सामने दो-तीन दुकान थे पूजन सामग्री के. सोचा जब आये हैं तो दर्शन कर लि‍या जाये. परि‍सर में पांव रखते ही अद्भुत शांति‍ का अनुभव हुआ. सफ़र की थकान जैसे मंद हवा में उतर गयी. पुजारी बैठे थे अंदर. दरवाजे का आधा पट खुला था. हमें आया देख पुजारी ने पूरा पट खोला. लाल चेहरे, वि‍शाल नेत्र वाली मां का भव्‍य चेहरा. हम नतमस्‍तक हुए.

जब बाहर आए तो पता लगा कि‍ मौलीक्षा देवी को मां तारा की बड़ी बहन कहा जाता है. यह सि‍द्धपीठ है.यह मंदि‍र बंगाल शैली के स्‍थापत्‍य कला का श्रेष्ठ नमूना है. मां की पूजा देवी दुर्गा की सिंहवाहि‍नी के रूप में की जाती है.

अब हम सड़क से दूसरी ओर गांव की ओर गये. पहला मोड़ मुड़ते ही देख कर जैसे पागल हो गये. मंदि‍रों की एक के बाद एक कतार हो जैसे. सड़क के दोनों तरफ मंदि‍र. मलूटीगांव स्थित मंदिर प्राचीन स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है. मंदिरों में टेराकोटा (पकाई गयी मिट्टी से बनाई गयी कलाकृति) इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाता है.मलूटी के मंदि‍रों में कि‍सी स्‍थापत्‍य शैली का अनुकरण नहीं कि‍या गया है.

पूर्वोतर भारत में प्रचलि‍त लगभग सभी प्रकार की शैलि‍यों का नमूना दि‍खा हमें. मलूटी में लगातार सौ वर्षों तक मंदि‍र बनाये गये. शुरू में यहां सब मि‍लाकर 108 मंदि‍र थे जो अब घटकर 65 रह गये हैं. इनकी ऊंचाई कम से कम 15 फुट तथा अधि‍कतम 60 फुट है. मलूटी के अधिकांश मंदिरों के सामने के भाग के ऊपरी हिस्से में संस्कृत या प्राकृत भाषा में प्रतिष्ठाता का नाम व स्थापना तिथि अंकित है. इससे पता चलता है कि इन मंदिरों की निर्माण अवधि वर्ष 1720 से 1845 के भीतर रही है. हर जगह करीब 20-20 मंदिरों का समूह है. हर समूह के मंदिरों की अपनी ही शैली और सजावट है.

शि‍खर मंदि‍र, समतल छतदार मंदि‍र, रेखा मंदि‍र यानी उड़ीसा शैली और रास मंच या मंच शैली के मंदि‍र दि‍खे हमें. ज्‍यादातर मंदि‍रों में शि‍वलिंग स्‍थापि‍त थे. मंदि‍र में प्रवेश करने के लि‍ए छोटे-छोटे दरवाजे बने हुए हैं. सभी मंदि‍रों के सामने के भाग में नक्‍काशी की गई है. वि‍भि‍न्‍न देवी-देवता के चि‍त्र और रामायण के दृश्य बने हुए थे.

मलूटी में पहला मंदिर 1720 ई में वहां के जमीनदार राखड़चंद्र राय के द्वारा बनाया गया था. राजा बाज बसंत के परम भक्‍त राजा राखड़चंद्र राय तंत्र साधना में वि‍श्‍वास रखते थे. वह मां तारा की पूजा के लि‍ए नि‍यमि‍त रूप से तारापीठ जाते थे. मलूटी से तारापीठ की दूरी महज 15 कि‍लोमीटर है. बाद में मलूटी ननकर राज्‍य के राजा बाज बसंत के वंशजों ने इन मंदि‍रों का नि‍र्माण करवाया. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, गौड़ राज्य के बादशाह अलाउद्दीन हुसैन शाह (1493-1519) द्वारा दी गई जमीन पर मलूटी ‘कर मुक्त राज्य’ की स्थापना हुई थी.

हम मंदि‍र देखते गांव घूमने लगे. झारखंड के अन्‍य गांवों की तरह ही लगा गांव. मुझे मि‍ट्टी के दोमंजि‍ले मकान ने बड़ा आकर्षित कि‍या. कच्‍ची दीवारें, फूस की छत. पतली गलि‍यां. गोबर का गोईठां बनाकर दोनों तरफ की दीवारों पर सूखने डाला हुआ था. लोग नजर नहीं आ रहे थे. तेज गर्मी के कारण शायद यह स्थिति थी.

आगे हमें कई और मंदि‍र मि‍ले. एक मंदि‍र के अंदर खूब बड़ा शि‍वलिंग था, जि‍स पर फूल चढ़ाया हुआ था. इससे पता लगता है कि‍ वहां रोज पूजा होती है. और भी कई मंदि‍र थे जि‍न पर पूजन के चि‍न्ह मि‍ले. कई मंदि‍र खाली भी थे. हम देखते हुए चले जा रहे थे. तभी कई मंदि‍र दि‍खे जि‍नका जीर्णोधार का कार्य चल रहा था. अच्‍छा लगा जानकर कि‍ ऐति‍हासक वि‍रासत की साज-संभाल हो रही है.

मजदूर काम कर रहे थे. कुछ ऐसे मंदि‍र दि‍खे जो नये बने लगे. वहां हमें एक सज्‍जन मि‍ले सुकृतो चटर्जी. हमने उनसे बात की. उन्‍होंने बताया कि‍ राज्‍य सरकार ने इस स्‍थल को पर्यटन स्‍थल के रूप में वि‍कसि‍त करने के लि‍ए साढ़े तेरह करोड़ दि‍ए हैं. 2015 के गणतंत्र दिवस समारोह में राज्य सरकार द्वारा दिल्ली में इसकी झांकी प्रस्तुत की गयी थी. झांकी को पुरस्कृत किए जाने के बाद यह गांव पर्यटन मानचित्र पर आया.

मगर मंदि‍रों का रूप-रंग बि‍ल्‍कुल बदला हुआ लगा. जो पुरानी पहचान है, जो मौलि‍कता है वो खो गई. टेराकोटा कला का अस्‍ति‍त्‍व मि‍टा हुआ था. बि‍ल्‍कुल नया सा लगा और आर्कषणहीन. मैंने कहा कि‍ इस तरह मौलि‍कता समाप्‍त कर संरक्षण करने का क्‍या फायदा. बि‍ल्‍कुल नये मंदि‍रों सा दि‍ख रहा. तो उन्‍होंने कहा कि‍ नहीं, ये मंदि‍र ऐसा ही था. सत्‍यता मुझे नहीं पता और बहुत वक्‍त भी नहीं था, कि‍ और पता करती.

मैं और आगे की ओर गयी. चटर्जी महाशय ने ही बताया कि‍ आगे तालाब के पास महायोगी बामाखेपा का घर है. जि‍स घर में वामाखेपा रहते थे उस मकान के आंगन के ऐ छोटे से मंदि‍र के भीतर उनका अपना त्रि‍शूल एवं शंख सुरक्षि‍त रखा है. कहते हैं मां आनंदमयी को भी मां तारा की ओर से स्‍वपन में मलूटी आने का नि‍र्देश मि‍ला था.मगर वामाखेपा के आवास तक नहीं जा पाये. हमें देर हो रही थी.

तारापीठ दर्शन कर लौटना भी था उसी दि‍न. मगर इतना जरूर कहूंगी कि‍ यह अद्भुत स्‍थान है. इसे पर्यटन क्षेत्र के रूप में वि‍कसि‍त हो जाए तो यह झारखंड को अलग पहचान देगी. यह पूरा गांव है अभी. यहां रहने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं. रूकना हो तो आगे तारापीठ में कई होटल हैं या आप दुमका या रामपुर में रूक सकते हैं. वैसे देवघर से यहां तक सड़क मार्ग बहुत बढ़ि‍या है. ‘रामपुर हाट’ मलूटी गांव का निकटतम रेलवे स्टेशन है. यहां तक दुमका-रामपुर सड़क पर ‘सूरी चुआ’ नामक स्थान पर बस से उतर कर उत्तर की ओर 6 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचा जा सकता है.

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