मुकेश कुमार सिन्हा बिहार के बेगूसराय के रहने वाले हैं. जन्म 4 सितंबर 1971 को हुआ. शिक्षा : बीएससी (गणित) (बैद्यनाथधाम, झारखण्ड) से किया. संप्रति केंद्रीय राज्य मंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली के साथ संबद्ध.
संग्रह : “हमिंग बर्ड” कविता संग्रह (सभी ई-स्टोर पर उपलब्ध) (बेस्ट सेलर)
सह- संपादन: कस्तूरी, पगडंडियाँ, “गुलमोहर”, “तुहिन”, “गूँज व 100कदम” (साझा कविता संग्रह) (250 से अधिक रचनाकारों की कविताएं शामिल) सम्मान: तस्लीम परिकल्पना ब्लोगोत्सव (अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर्स एसोसिएशन) द्वारा वर्ष 2011 के लिए सर्वश्रेष्ठ युवा कवि का पुरस्कार.
संपर्क :91-9971379996 mukeshsaheb@gmail.com, ब्लॉग: "जिंदगी की राहें" (http://jindagikeerahen.blogspot.in/)
विस्थापित हुए लड़के
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लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती है
कविताओं में
लेकिन नहीं दिखते,
हमें दर्द या परेशानियों को जज़्ब करते
कुछ लड़के
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, अपनों के सपनों के साथ
वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए जरुर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
"नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे परदेश
जबरदस्ती!"
पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यंभावी दौर में
रूमानियत को दगा देते हुए
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को
रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
जैसे सीमा पर जा रहा हो सैनिक
समेटे रहते हैं कुछ चिट्ठियां
जिसमें ‘महबूबा इन मेकिंग’ ने भेजी थी कुछ फ़िल्मी शायरी
वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं ज़ोर की सांस
और फिर भीतर तक अपने को समझा पाते हैं
अब उन्हें ख़ुद रखना होगा अपना ध्यान
फिर अपने बर्थ के नीचे बेडिंग सरका कर
थम्स अप की बोतल में भरे पानी की लेते हैं घूंट
पांच रूपये में चाय का एक कप खरीद कर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके हों वयस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर
कल तक,
हर बॉल पर बेवजह ‘हाऊ इज देट’ चिल्लाते रहने वाले
ये छोकरे घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डिब्बे के बाथरूम में जाकर फफक पड़ते हैं
बुदबुदाते हैं, एक लड़की का नाम
मारते हैं मुक्का दरवाज़े पर
ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर,
रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बनाते है बहाना
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बंद पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पकड़ाई थी पोटली में बांध के
आखिर करें भी तो क्या ये लड़के
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियां
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच
जो राजपथ के घास पर चित लेटे देख रहे हैं
डूबते सूरज की लालिमा
मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूअर
‘आई विल कॉल यु लेटर’
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को
हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर
ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान,
कनाट प्लेस के लहराते झंडे की करते हैं बखान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी
खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हां नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उनपर
पर ये जिद्दी लड़के
घर से ताज़िंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल
हां सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तह कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की करते हैं कोशिश
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबक उठते हैं
मानों न
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए अपनों के सपनों के साथ.
झूठ-मूठ
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झूठ-मूठ में कहा था
तुमसे करता हूं प्यार
और फिर उस प्यार के दरिया में
डूबता चला गया
‘सच में’ !
डूबते उतराते तब सोचने लगा
किसने डुबोया
कौन है ज़िम्मेदार?
झूठ का चोगा पहनाने वाला गुनाहगार ?
और वजह, इश्क़-मोहब्बत-प्यार ?
हर दिन आंख बंद होने से पहले
खुद ही बदलता हूं पोशाक
दिलो दिमाग पे छाए
झूठ के पुलिंदे को उतार
अपनी स्वाभाविक सोंधी सुगंध के साथ
मैं, हां मैं ही तो होता हूं
अपने वास्तविक ‘औरा’ में
सच के करीब
सच से साक्षात्कार करते हुए
खुद से सवाल-जवाब करते हुए
आखिर क्यों झूठ है
है छल-कपट, जंग है,
आखिर क्यों है ऐसा हमारा संसार
क्यों अपने कद को बढ़ाने की
कोशिश करते हैं
जिसके नहीं होते हक़दार
चाहते हैं पा जायें वो सम्मान
तर्क-कुतर्क के झंडे तले
क्यों चाहते हैं कहलायें
सर्वशक्तिमान
मृगतृष्णा सा रचा हुआ है भ्रम
झूठ का पहला अंकुरण
कब कैसे क्यों
इस धरती पर प्रस्फुटित हुआ होगा
किसके मन के अंदर से
छितरा होगा इसका बीज
जो किस उर्वर भूमि पर पला होगा
झूठ की इस अजब गजब बुआई ने
सच के फलक को
बना दिया रेगिस्तान
आज तो झूठ ही झूठ ने रच रखा है
आडंबर
और बैठा है ससम्मान
तभी तो
झूठ के जंजाल में
खुद को बाखुशी बांध
दी गयी झूठी तसल्ली की भंवर में
डूबता चला गया मैं
मात्र मैं, या सब, शायद अधिकांश
इस झूठ के तह में छिपा है
कुलबुलाते सच का मौन
तभी तो
ढिंढोरा पीट कर बताते हैं
‘सफ़ेद झूठ’
झूठ झूठ चिल्ला कर
उसको बनाते हैं
सोलह आने सच
अपने अपने नजरिये का सच !!
प्रेम का भूगोल
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भौगोलिक स्थिति का क्या प्रेम पर होता है असर ?
क्या कर्क व मकर रेखा के मध्य
कुछ अलग ही अक्षांश और देशांतर के साथ
झुकी हुई एक ख़ास काल्पनिक रेखा
पृथ्वी के ऊपरी गोलार्ध पर मानी जा सकती है ?
ताकि तुम्हारे उष्ण कटिबंधीय स्थिति की वजह से
ये आभासी प्रेम का तीर सीधा चुभे सीने पर
फिर वहीं मिलूंगा मैं तुम्हारे सपने में
आजाद परिंदे की मानिंद
और हां, वो ख्व़ाब होगा मानीखेज
उस ख़ास समय का
जब सूर्य का ललछौं प्रदीप्त प्रकाश
होगा तुम्हे जगाने को आतुर
हलके ठन्डे समीर के कारवां में बहते हुए
तुम्हारे काले घने केश राशि को ताकता अपलक
उसमें से झांकता तुम्हरा मुस्कुराता चेहरा
कुछ तो लगे ऐसा जैसे हो
बहती गंगा के संगम सा पवित्र स्थल
और खो चुके हम उस धार्मिक इहलीला में
क्या संभव है हो एक अजब गजब जहाज
जो बरमूडा ट्रायंगल जैसे किसी ख़ास जगह में
तैराते रहे हमें
ताकि ढूंढ न पाए कोई जीपीएस सिस्टम
बेशक सबकी नजरें कह दे कि हम हो चुके समाधिस्थ
पर रहें हम तुम्हारे प्रेम के भूगोल में खोएं
एक नयी दुनिया बसायें
अपने ही एक ख़ास ‘मंगल’ में
काश कि तुम मिलो हर बार
मेरे वाले अक्षांश और देशांतर के हर मिलन बिंदु पर
काश कि
हमारे प्रेम का ध्रुवीय क्षेत्र सीमित हो
मेरे और तुम्हारे से ….
सपने की रोडवेज़
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एक लड़का
खुले आसमान को ताकते हुए
एक दम से आंखे मींचते हुए
समेटता है आपनी बाहें
और महसूस पाता है
अपनी प्रेमिका का उष्ण-स्पर्श
और, फिर भींग जाता है,
स्वयं के
स्वेद ग्रंथियों से पिघलते पसीने से
तत्क्षण, पलकें मींचे फुसफुसाता है
मानसूनी बारिश की फुहार
भिगो ही देती है न
एक लड़का चाहता है
नहीं रहे उसके लड़कपन की कोई शर्त
साथ ही
ऐसे सारे नियम व कायदों को
धता बता कर
उसकी मासूम सी प्रेमिका
कहे एक बार चिल्ला कर
– देखो बाबू
मैंने नाक की नथुनी को
पहना है नाभि पर
क्या अब भी बाँध पाओगे,
अपने नजरों से मुझे
पर, याद रखना
कमर पर नजरें गडाना, गलत बात
एक लड़का
प्रेम सिक्त अहसास के संगम पर
कुम्भ स्नान करते हुए
देख पा रहा है
दूर से आ रही हैं दो नावें
यानी दो जोड़े, होंठ सरीखे
जो करीब आ कर
हो गए गडमगड
यानी दोनों नावें टकराई
डूबने से पहले
प्रेम की गंगा उफनती रही
बहुत दूर और देर तक
लड़का भूलना चाहता है
बेरोजगारी
मेहनत
पैसे
भोजन भी
लड़का चाहता है
सपने का रोडवेज
बन जाए ग्रैंड ट्रंक रोड
यानी नेशनल हाइवे नंबर एक या दो
और सौर ऊर्जा से चलती
उसके मोटरबाइक पर
हो सवार
उसकी सुल्ताना
लड़के ने धीमे से कहा
सुल्ताना! प्रेम, पेट भी भरता है न!
या अगले पिज्जा जॉइंट पर रुकूँ?
पेट की भूख,
मोहब्बत के बाद भी प्राथमिक हो ही जाती है न !
भूखा मजनू कहां भाता है लैला को
खैर भूख बनी रहे !
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