दीपावली विशेष : त्योहारों का वर्ग चरित्र
दीपावली रौशनी का त्यौहार है. लेकिन बाजारीकरण ने इस पर्व को अमीरों का त्यौहार बना दिया है. गरीब आज त्यौहार पर खुशी के लिए तरसता है. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है किआखिर दीवाली किस वर्ग का त्यौहार है. प्रस्तुत है बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति की सामयिक कविता . दीवाली है, दीये जलाओ, चाहे जितने चाहो, पर […]
दीपावली रौशनी का त्यौहार है. लेकिन बाजारीकरण ने इस पर्व को अमीरों का त्यौहार बना दिया है. गरीब आज त्यौहार पर खुशी के लिए तरसता है. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है किआखिर दीवाली किस वर्ग का त्यौहार है. प्रस्तुत है बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति की सामयिक कविता .
दीवाली है,
दीये जलाओ,
चाहे जितने चाहो,
पर इन दीयों से घर के अंधेरे दूर होंगे,
मन के अंधेरे कैसे दूर हों?
अज्ञान का अंधकार कैसे दूर हो,
मन का हठ, दिमाग की सूजन कैसे दूर हो,
अराजक माहौल कैसे दूर हो
दीवाली है,
दिये जला लो,
चाहे जितने चाहो,
पर इन दीयों से कैसे गरीबों की झोपड़ी रोशन हो,
कैसे दो वक़्त का भोजन जुटे,
कैसे उनके घरों में भी खुशियां क्षणिक न रहें,
बल्कि पांव पसार जम जाये उनकी झोपड़ियों में,
उनके दिलों में, उनके चेहरों पे
दीवाली दीयों का त्यौहार है,
खुशियों का त्यौहार है,
मिठाई का त्यौहार है,
हंसने गाने का त्यौहार है,
पर दीवाली होली नहीं,
त्योहारों का भी अपना वर्ग चरित्र है,
कोई अमीरों का,
तो कोई गरीबों का,
अब सोच लें हम,
दीवाली किसका त्यौहार है?
पता न चले,
मन शंका में घिरा हो,
तो एक चक्कर बाज़ार का लगा आयें,
जो भरी हुई हैं कारों से,
नये नये सामानों की चाहत से,
एक भूख से,
उपभोगता संस्कृति की उच्छृंखलता से,
जो कहती है हाशिये पे खड़े लोगों से,
चलो भागो यहां से,
जाकर अपनी झोपड़ी में,
दो टिमटिमाते दीये जलाओ,
और तुम भी हमारी तरह उछल कर गाओ,
दीवाली दीयों का त्यौहार है,
उल्लास का त्यौहार है…