कथाकार, नाटककार, रंग–समीक्षक हृषीकेश सुलभ का जन्म 15 फ़रवरी सन 1955 को बिहार के छपरा ( अब सीवान ) जनपद के लहेजी नामक गांव में हुआ. आरंभिक शिक्षा गांव में हुई और अपने गांव के रंगमंच से ही आपने रंगसंस्कार ग्रहण किया. विगत तीन दशकों से कथा–लेखन, नाट्य–लेखन, रंगकर्म के साथ–साथ हृषीकेश सुलभ की सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी रही है. आपकी कहानियां विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित और अंग्रेज़ी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. पुस्तकें : कथा संकलन प्रतिनिधि कहानियां, हलंत, वसंत के हत्यारे और तूती की आवाज , बंधा है काल, वधस्थल से छलांग और पत्थरकट के अलावा, बटोही , धरती आबा , अमली ( नाटक ), माटीगाड़ी ( शूद्रक रचित मृच्छकटिकम् की पुनर्रचना ), दालिया (रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित नाटक) और मैला आंचल ( फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास का नाट्यांतर ) तथा रंगमंच का जनतंत्र और रंग अरंग ( नाट़यचिंतन ) प्रकाशित हैं.
सम्मान : कथा–लेखन के लिए वर्ष 2010 का का इंदु शर्मा कथा सम्मान (कथा यूके, लंदन) और नाट्य–लेखन एवं नाट्यचिंतन के लिए डॉ सिद्धनाथ कुमार स्मृति सम्मान. संपर्क : पीरमुहानी, मुस्लिम क़ब्रिस्तान के पास, कदमकुआं, पटना, पिन – 800003
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-हृषीकेश सुलभ –
वह आधी रात के बाद अचानक प्रकट हुई थी. उसके आने की दूर–दूर तक कोई उम्मीद नहीं थी. जेठु मंडल अर्जि़यां लिखने में व्यस्त था. उसे आज रात कलक्टर और जिला परिषद् के चेयरमैन के नाम अर्जि़यां तैयार करनी थी. बात बनते–बनते बिगड़ चुकी थी. कलक्टर के पीए के समधी के मार्फत उसने नये सिरे से कोशिश शुरू की थी. उस पीए ने एक नया रास्ता सुझाया था और मदद का भरोसा दिया था. जिला परिषद् के चेयरमैन तक पहुंचने में उसके छक्के छूट गये थे. उसके दूर के एक रिश्तेदार का बेटा चेयरमैन का खास शूटर था. उसने चेयरमैन तक पहुंचाने का वायदा किया था. जेठु मंडल को कमिश्नर की चिंता नहीं थी. जब कलक्टर और जि़ला परिषद् के चेयरमैन की अनुशंसा हो जायेगी, तब कमिश्नर कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा. उसे झख मारकर दस्तख़त करना पड़ेगा. वह इस बार हर क़ीमत पर मामले को अपने हक़ में मोड़कर लक्ष्य हासिल करना चाह रहा था. अब वह नये सिरे से अर्जि़यां दाखि़ल करने की तैयारी में जुटा था. उसके गुरु ने उसे पहली सीख यही दी थी कि सरकारी दफ़्तरों–कचहरियों में सफलता सिर्फ़ बुद्धि से नहीं मिलती. इसके लिए धीरज भी चाहिए. अर्जि़यां डालते जाओ ताकि सनद रहे. ऐसी ही सीखों ने उसे हुनरमंद बनाया था. इन दिनों वह मुआवज़ा वसूली के एकसूत्री अभियान में लगा हुआ था. इस अभियान की पहली फ़सल वह काट चुका था. दूसरी फ़सल काटने में लगातार अड़चनें आ रही थीं.
दिसंबर मध्य के दिन थे. ठंड रीढ़ तक में घुसकर पसरी रहती थी. सितंबर के आखि़री हफ़्ते में आयी बाढ़ का पानी उतरकर अब नदी के पेट की ओर सरकने लगा था. पर धरती गीली थी. दलदल और पांक से पटी हुई. कहीं–कहीं तो नदी की छाड़न धाराएं नदी की तरह ही जीवित थीं. इस छोटे से शहर को कोसी ने अपनी कई अस्थायी धाराओं के जाल में फंसा रखा था. बाढ़ अमूमन हर साल आती, पर निचले इलाक़ों में डेरा जमाती और फिर विदा हो जाती. पर इस साल तो प्रलय लेकर आयी थी. इस प्रलय के नख–दंत चिन्ह इतने गहरे थे कि इस छोटे से शहर के अधिकांश लोगों का चेहरा ही बदल गया था. और फिर ठंड ऐसी कि सांझ घिरते ही पूरा शहर दड़बे में जा छिपता. सड़कें वीरान हो जातीं. कुत्ते बाढ़ में बह गए थे. पर कुछ कुत्तों ने भागकर अपनी जान बचा ली थी और अब वे इक्का–दुक्का लौट रहे थे. पर वे सदमे में थे और भौंकना भूल चुके थे. उनके नहीं भौंकने से सन्नाटे के टूटने की गुंजाइश भी ख़त्म हो चुकी थी. रात का सन्नाटा कुत्तों के भौंके बिना सन्नाटे से अलग लगता, सन्नाटे से ज़्यादा भयावह. ऐसी भयावह रात में भटकती हुई जाने कैसे पहुंच गई थी वह.
जेठु मंडल चकित था. उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था. पहले तो वह मुंह बाए उसे देखता रहा. फिर उसने दरवाज़े के पल्लों को पूरी तरह खोल दिया ताकि वह भीतर आ सके. बिना कुछ बोले वह अपनी टुटही मेज़ के सामने रखी बिना बांह वाली उस कुर्सी पर बैठ गया, जिस पर बैठ कर अर्जि़यां लिख रहा था. वह खड़ी थी. कांप रही थी. ठंड और थकान ने वेध–वेधकर उसका बुरा हाल कर दिया था. वह पूरी तरह लस्त–पस्त दिख रही थी. वहां पहुंच जाने का इत्मीनान अभी उसके चेहरे पर नहीं था. घर के भीतर घुसने से पहले पल भर के लिए यह इत्मीनान कौंधा ज़रूर था, पर टिका नहीं. जेठु मंडल उसे जड़वत निहार रहा था और वह उसके सामने थी.
जेठु मंडल का गांव इस शहर से सटा हुआ था. लगभग दो वर्षों से वह रोज़ी–रोटी के चक्कर में इस शहर में किराए की एक कोठरी लेकर अकेले रह रहा था. पत्नी–बेटियां और बाप–महतारी सब गांव में ही रहते. उसका ब्याह बचपन में ही हो गया था. मैट्रिक पास करते–करते वह दो बेटियों का बाप बन चुका था. थोड़ी सी, बस कहने भर को खेती थी. खेती से पेट भरता नहीं था. आषाढ़ बीतते–बीतते खेतों में पानी भरने लगता और माघ बीतने तक रुका रहता. बारिश हो या न हो, पानी ज़रूर आ जाता. नेपाल से आनेवाली नदियां पानी लातीं और उड़ेलकर डाइनों–चुड़ैलों की तरह नाचतीं. खेत ख़ाली होते तभी मजूरी का भी आसरा होता. जेठु का बाप मृदंग बजाता और देवी के गीत गाता. उसकी महतारी पर देवी का वास होता और वह हाथों में खप्पर लिये बेसुध होकर नाचती. महीने में एक–दो बार तो ऐसा होता ही. और जब ऐसा होता, दोनों सारा गांव घूम आते और उनकी झोली में कुछ दिनों तक पेट भरने का सरंजाम होता. इन हालातों में जैसे–तैसे मैट्रिक पास करने के बाद जेठु मंडल के लिए जीना दूभर हो चला था. एक दिन उसने गांव छोड़ दिया.
जेठु मंडल शहर पहुंचा. यह कहने भर को शहर था. अंग्रेज़ों के ज़माने में बसा एक क़स्बा था, जो अपनी चाल से चल रहा था. दु:ख, निराशा, निंदा और ईर्ष्या यहां स्थायी भाव थे. इस क़स्बे पर कुछ वर्षों पहले सरकार मेहरबान हुई और इसे सबडिविज़न से जि़ला बना दिया. यहां आने के बाद जेठु मंडल को बहुत भटकना पड़ा. उसे तरह–तरह के पापड़ बेलने पड़े. धक्के खाते–खाते एक दिन वह यहां की जि़ला कचहरी के सबसे बड़े वकील के मुंशी का असिस्टेंट बन गया. वकील का बहुत नाम था. वह बहस करने में धुरंधर और अपने दिमाग़ी दांव–पेंच से मुद्दालह के वकील की बोलती बंद करने में माहिर था. उसके मुंशी का रुतबा भी कम नहीं था. वह मुवक्किलों को फांसने और लूटने में वकील से ज़्यादा माहिर माना जाता था. लोगों का मानना था कि उस वकील की वकालत को चमकाने में मुंशी का योगदान बहुत ख़ास था. बड़ी मिन्न्तों के बाद वह मुंशी जेठु मंडल को अपना असिस्टेंट बनाने पर राज़ी हुआ था. जेठु ने उससे कचहरी में मुंशीगिरी का हुनर सीखना शुरु किया. मुंशी उसे अपने साथ रखता. फाइलें ढुलवाता. चाय–पान मंगवाता.
वह सुबह के नाश्ते से रात के खाने तक का इंतज़ाम मुवक्किलों की टेंट से करता और जेठु को भी उसमें शामिल करता. रात में लौटते हुए जेठु मंडल की जेब में भी कुछ न कुछ ज़रूर होता. मुंशी मुवक्किलों को ऐसे फांसता कि जेठु की जेब में उसे अपने हिस्से से कुछ न डालना पड़े. रात में अक्सर वह किसी मुवक्किल की नाक में नकेल डालकर जेठु के साथ कचहरी के पीछे वाले होटल में जा पहुंचता. इस होटल के छोकरे अपने ग्राहकों के इशारे समझने में माहिर थे. उन्हें मालूम था कि मुवक्किलों के साथ आनेवाले ग्राहकों की आवभगत कैसे की जाती है. मुंशी के लिए रम का अद्धा और क़लिया आता. जेठु अपने हाथों अपने गुरु के लिए ग्लास तैयार करता. वह ख़ुद पीता नहीं था, पर रोटियों के साथ क़लिया की बोटियां उड़ाता. मृत्यु के आसन्न ख़तरे को भांपकर जि़बह होनेवाले बकरे की तरह मिमियाते हुए मुवक्किल एक–एक पल गुज़ारते. मुंशी और जेठु दोनों मुवक्किलों की मिमियाहट के मज़े लेते. जेठु रोज़ रात को मुंशी को छोड़ने उसके घर जाता. अपने घर पहुंचते ही मुंशी बरामदे में बिछी चौकी पर पसर जाता और जेठु थोड़ी देर तक उसके पांव दबाकर वापस आता. वहां से चलने से पहले अक्सर उसकी आंखें दरवाज़े के पल्लों की ओट में खड़ी मुंशी की बीवी से टकरा जातीं. मुंशी की बीवी बहुत सुंदर थी. गोरी–चिट्टी, लंबी–छरहरी, सांचे में ढली जवान औरत थी वह. मुंशी काला–कलूटा, नाटा, बदसूरत और बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़ा अधेड़ था. शुरू में उस औरत से आंखें मिलाते हुए वह झिझका, पर बाद में उसकी आंखें उस औरत को ढूंढ़ने लगीं. मुंशी की बीवी भी शुरुआती दिनों में झिझकी थी, पर बाद में वह जेठु को ख़ूब निहारती और मुस्करा देती. फिर वह जेठु से बतियाने लगी.
जेठु से बतियाते हुए मुंशी की बीवी की आंखों में चमक भरने लगी. यह चमक धीरे–धीरे जेठु की जि़ंदगी में उतरने लगी. मुंशी की बीवी की आंखें कभी जेठु की रातों की नींद में घुसकर चमकतीं, तो कभी दिन–दुपहरिया कचहरी में मुवक्किलों के पीछे भागते जेठु का पीछा करतीं. मुंशी को कोई औलाद नहीं थी.
पहली पत्नी इसी ग़म में घुट–घुटकर मर गई थी. बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़े मुंशी ने औलाद की लालसा में दूसरी शादी की थी. मुंशी की एक विधवा बहन भी थी. बूढ़ी विधवा बहन और दूसरी बीवी के अलावा और कोई घर में नहीं था. इस बूढ़ी विधवा को भी कोई आसरा नहीं था. वह अपनी भावज की मलामतें सहती, पूजा–पाठ करती और दो रोटियां खाकर आंखें मूंदे पड़ी रहती. एक दिन मुंशी की बीवी ने जेठु मंडल से याचना की कि वह उसकी गोद हरी कर दे. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मुंशी अपनी पहली बीवी की तरह उसे भी मार डालेगा. और अगर उसकी गोद भर गई, तो वह जेठु की दुनिया बदल देगी. दारू से खोखली हो चुकी देह लिये मुंशी और कितने दिन जी सकेगा भला ! उसके मरते ही वह जेठु को अपने साथ रख लेगी. वह जेठु की पत्नी को अपनी बहन की तरह मानेगी और उसकी बेटियों के ब्याह में मदद करेगी. मुंशी की बीवी के इस प्रस्ताव ने जेठु मंडल की जि़ंदगी में नया रंग भर दिया. उसे अपने भाग्य के सितारे चमकते हुए दिखे. उसने सुना था कि गांव से शहर आकर बसने वाले लोग बड़ा बनने के लिए शहर में भी बीवी या रखैल रखते हैं. इस प्रस्ताव ने उसे बड़ा आदमी बनने के अहसास से भर दिया. जेठु मंडल की तबीयत अब कचहरी में कम लगती, पर वह मन मसोसकर अपने को क़ाबू में करता और कचहरी के काम निबटाता. उसे यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि कचहरी एक ऐसी पाठशाला है जहां बिना समय गुज़ारे वह कामकाज में कच्चा रह जाएगा. उसकी नज़र और तबीयत मुंशी के घर में उलझी हुई ज़रूर थी, पर वह सतर्क था. जेठु मंडल की लालसा में कचहरी में मुंशी की जगह और हैसियत भी शामिल थी.
एक दिन बाप की बीमारी की ख़बर पाकर जेठु मंडल अपने गांव पहुंचा. बूढ़े–बीमार बाप को साथ लिये शहर आया. उसकी महतारी अपने पति की सेवा–टहल के लिए साथ आयी. उसने बाप को शहर के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया. उसकी महतारी देख–भाल के लिए वहीं रहती. जेठु कचहरी जाने से पहले बाप को देखने अस्पताल जाता. वह रात को नहीं जा पाता. उसे मुंशी के घर से लौटते हुए अक्सर देर हो जाती. उसकी महतारी गांव से चिवड़ा–सत्तू साथ लेकर चली थी. जेठु पहुंचता तो कभी–कभार होटल से कुछ ख़रीदकर उसे देता. यहां होटलवाले रोगियों के लिए खिचड़ी बनाकर बेचते. जेठु ने बाप के लिए होटल से खिचड़ी भिजवाने का इंतज़ाम कर दिया था. जेठु का बाप स्वस्थ होने के बदले धीरे–धीरे मौत के क़रीब पहुंचता रहा. डॉक्टर ने पहले ही बता दिया था कि उसके यहां ठीक होने की उम्मीद नहीं है.
इस बीच बारिश का मौसम आ चुका था. देहात के निचले इलाक़ों में कोसी का पानी भरने लगा था. उसके गांव के डूबने की ख़बर आयी. यह कोई नई बात नहीं थी.
ऐसा लगभग हर साल होता. गांव डूबते और लोग–बाग ऊंची जगहों पर डेरा डालते और पानी उतरने तक जमे रहते. पर इस बार हालात पहले से ज़्यादा ख़राब थे. शहर में पानी भरने लगा था. कोशी की छाड़न धाराएं उफन–उफनकर नाच रही थीं. गांव से भागकर आए कुछ लोगों ने जेठु को बताया कि इस बार कोसी तिरमिश काट रही है. यानी धरती को नीचे ही नीचे काट रही है कोसी. ऊपर पता तक नहीं चलता और गांव के गांव गड़ाप. …..जेठु मंडल भागा. जैसे–तैसे गांव पहुंचा. पत्नी और बेटियों को साथ लेकर शहर लौटा. गांव से शहर लौटते हुए ऐसा लगा कि अब परिवार नहीं बच पाएगा, पर भाग्य ने साथ दिया और वह शहर के मुहाने तक पहुंच गया. शहर में घुसने के लिए सिर्फ़ नाव का ही सहारा था. उसके शहर में घुसने से पहले उसका डेरा डूब चुका था. जेठु मंडल पत्नी और बेटियों के साथ मुंशी के घर पहुंचा. मुंशी का घर शहर के सबसे ऊंचे इलाक़े में था. मुंशी की बीवी ने उसके परिवार को ख़ुशी–ख़ुशी अपने घर में जगह दी.
जेठु मंडल को अपने बाप–महतारी की याद आई. वह अस्पताल की ओर भागा. अस्पताल में पानी घुसने लगा था. अस्पताल भी थोड़ी ऊंची जगह पर था और पूरी तरह डूबने से अब तक बचा हुआ था. पर अस्पताल के बाहर सब कुछ जलमग्न हो चुका था. धारा इतनी तेज़ थी कि तैर कर पार करना सबके बूते की बात नहीं थी. तैरते हुए जेठु अस्पताल में घुसा. बाप की लाश बेड पर पड़ी थी. लोग भाग चुके थे. कुछ कुत्ते थे, जो रोगियों के बेड पर बैठे थे और वार्ड में घुसते पानी को कातर आंखों से निहार रहे थे. उसकी महतारी का कहीं अता–पता नहीं था. जेठु के पास तीन काम थे. पहला, जान बचाकर बाहर निकलना और सुरक्षित स्थान पर पहुंचना. दूसरा काम था, महतारी की खोज–ख़बर लेना. और तीसरा काम था, बाप का अंतिम संस्कार करना. उसने पहला काम किया.
जो जीवित थे, ईश्वर को गुहारते हुए दिन गुज़ार रहे थे. रात होते ही दारू के बिना मुंशी के हाथ–पैर में ऐंठन होने लगती. वह पागलों की तरह चिल्लाता और हांफता. इस आफ़त की घड़ी में भी जेठु मुंशी की फि़क्र करता और दारू ढूंढ़ने निकलता. मुंशी की बीवी जेठु के परिवार से अपनापा गांठने में लगी थी. वह जेठु की पत्नी के पीछे–पीछे डोल रही थी. मुंशी की विधवा बहन और जेठु की बेटियों के बीच दादी–पोती का नया रिश्ता अंखुआने लगा था. जेठु की पत्नी सास–श्वसुर को याद कर आंसू बहाने में व्यस्त थी. उसे फ़़ुर्सत नहीं थी कि वह अपने पति और मुंशी की बीवी के बीच पनपे रिश्ते की गंध सूंघ सके.
पानी उतरा. लाशों से उठती बू शहर में छा गई थी. सरकार ने सबसे पहले मुआवज़े की घोषणा की. जिनकी लाशें मिलीं, उन मृतकों के लिए एक लाख. और जिनकी लाशें नहीं मिलीं और जो लापता थे, उनके जीवित नहीं होने और बाढ़ के पानी में बह जाने का प्रमाण सौंपने पर पचास हज़ार. जेठु मंडल ने पत्नी और बेटियों को गांव रवाना किया और बाप की लाश खोजने में व्यस्त हो गया. लाशें मिल तो रही थीं, पर उन्हें पहचानना मुश्किल था. कपड़ों या देह में लिपटी दूसरी चीज़ों से पहचान क़ायम हो रही थी, पर इसके लिए क़ुव्वत और हुनर की ज़रूरत थी. बाप की लाश खोजते हुए जेठु मंडल ने एक लाश पर कब्ज़ा किया और कचहरी में मुंशीगिरी के अनुभव का लाभ उठाया. अस्पताल में भर्ती के समय उसके बाप के नाम बनी पुर्जी उसकी जेब में थी. इसी पुर्जी ने उसकी मदद की और वह बाढ़ से मरनेवालों की सूची में अपने बाप का नाम दर्ज़ करवाने में सफल हो गया. अब उसे अपनी महतारी की फि़क्र हुई. लाश थी नहीं. अब तक मिली लाशों पर किसी न किसी का कब्ज़ा हो चुका था. वह लापता लोगों की सूची में अपनी महतारी का नाम दर्ज़ करवाने की जुगत में लग गया.
धीरे–धीरे हालात बदले. लोगों ने अपने घरों–दुकानों को सहेजना शुरू किया. बाजार खुले. सरकारी दफ़्तरों और कचहरी में लोगों की आवाजाही शुरु हुई. त्योहारों के मौसम आये. दशहरा में रावण जला और देवी की पूजा हुई. दीपावली में लोगों ने चिराग़ जलाए. छठ पर्व आया. कोसी के तट पर भारी भीड़ जुटी. लोगों ने डूबते और उदित होते सूर्य को अर्घ दिया. इस बीच लापता लोगों की सूची कई बार बनी और निरस्त हुई. हर बार कोई न कोई पचड़ा फंस जाता. मृतकों की सूची के आधार पर मुआवज़े की रकम जि़ला कोषागार में पहुंची. अधिकारियों और कर्मचारियों ने दांव–पेंच लगाया और बंदरबांट शुरु हुई. पद और हुनर के हिसाब से लोगों ने अपना–अपना हिस्सा पाया. जेठु मंडल को लाख में चालीस हज़ार मिले. जिस दिन जेठु को रुपए मिले, ठीक उसी दिन मुंशी की बीवी ने उसके कानों में फुसफुसाते हुए कहा कि वह पेट से है.
लापता लोगों की सूची को अंतिम रूप दिया जा रहा था. इस सूची में अपनी महतारी का नाम दर्ज़ करवाने में असफल जेठु मंडल हार मानने वाला नहीं था. वह सफलता पाने के लिए जी–जान से नए रास्ते की खोज में था. सरकार ने तय किया था कि कलक्टर और जि़ला परिषद् के चेयरमैन जिस नाम की अनुशंसा करेंगे कमिश्नर उसी नाम पर विचार करेंगे. बहुत भाग–दौड़ के बाद जेठु को रास्ता मिला था. उसने कलक्टर और जि़ला परिषद् के चेयरमैन तक पहुंचने के लिए रास्ते ढूंढ़ लिए थे और नये मज़मून के साथ अर्जि़यां लिखने में मशगूल था कि वह प्रकट हो गयी.
जेठु मंडल भौंचक था. वह उससे कुछ भी नहीं पूछना चाहता था. यह भी नहीं कि वह बाढ़ की जलधारा में बहती हुई कहां– कहां गई ?……उसने कैसे अपनी जान बचाई ?……कहां रही ?……और वापस कैसे आ गई ? सितंबर के आखि़री हफ़्ते से दिसंबर मध्य तक का समय कम नहीं होता ! जेठु मंडल ने उससे कुछ नहीं पूछा. उसे कई कोणों से निहारता रहा. यह औरत उसे अपनी महतारी की तरह नहीं लग रही थी. उसे लग रहा था कि जैसे बाढ़ में अकाल मृत्यु की शिकार किसी फ़रेबी औरत की आत्मा उसकी महतारी की देह धारण कर सामने बैठी हो. जेठु मंडल के कानों में प्रलय मचाती कोसी की आवाज़ भरने लगी. फिर मृदंग की अनुगूंज से भर उठी उसकी कोठरी. मृदंग पर नाचते हुए उसका बाप प्रकट हुआ. सामने बैठी उसकी महतारी की देह से एक छाया निकली और खप्पर लेकर नाचने लगी. जेठु को लगा मानो डाइन कोसी उसकी कोठरी में घुस आयी हो और मुआवज़े के रुपयों की गड्डियां बहाकर लिये जा रही हो. जेठु एक झटके के साथ उठा और चीख़ने लगा – ‘‘डाइन !…..डाइन !……डाइन !’’