सिंदूर प्रकरण : मैत्रेयी ने पोस्ट हटाई कहा, किसी स्त्री का अपमान नहीं होना चाहिए, समर्थन में आये कई लोग

हिंदी साहित्य की दिग्गज लेखिका और स्त्री अधिकारों की पैरोकार मैत्रेयी पुष्पा ने पिछले दिनों छठ पूजा की एक परंपरा पर सवाल उठाये थे, जिसके बाद वह सोशल मीडिया में बुरी तरह ट्रोल हो गयीं और अंतत: उन्होंने फेसबुक पर यह पोस्ट लिखा- मेरी सिंदूर – पोस्ट से छठ वाले लोगों को इतना कष्ट होगा, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 27, 2017 12:15 PM
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हिंदी साहित्य की दिग्गज लेखिका और स्त्री अधिकारों की पैरोकार मैत्रेयी पुष्पा ने पिछले दिनों छठ पूजा की एक परंपरा पर सवाल उठाये थे, जिसके बाद वह सोशल मीडिया में बुरी तरह ट्रोल हो गयीं और अंतत: उन्होंने फेसबुक पर यह पोस्ट लिखा- मेरी सिंदूर – पोस्ट से छठ वाले लोगों को इतना कष्ट होगा, मुझे अंदाजा न था कि वे स्त्रियों के सिंदूर के लिए स्त्रियों को ही बेशुमार गालियां देने लगेंगे. अपमान किसी भी स्त्री का नहीं होना चाहिए. मैंने पोस्ट हटा दी .यहां मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहूंगी.

सिंदूर लगाने की जो परंपरा हमारे समाज में है, उसपर सवाल उठाते हुए भी मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है- सिंदूर …सिन्दूर की सुनहरी डिबिया सम्हाले रही यशोधरा और चले गये सिद्धार्थ ! सीता ने सहेजा अशोक वाटिका तक में सिंदूर , मिली अग्निपरीक्षा और फिर अपमानित निष्कासन ! राज्य का सब कुछ लुट गया, बचा ली छोटी सी सिन्दूरदानी तो भी नल दमयन्ती को सोती हुई छोड़ गये तरु के नीचे …

कितनी सुहागिन स्त्रियों को बरबाद होने से बचा पाया है सिन्दूर ? बचपन में और किशोरावस्था में ही ऐसी कई कथाओं से मैं गुज़री और सोच में पड़ गयी. मैंने नहीं किया विवाह सिन्दूर की ख़ातिर , नहीं सहेजी कभी सिंदूर की डिबिया , नहीं सजाई माँग सिन्दूरी रंग से ।उसको नहीं माना वर , सुहाग और पति परमेश्वर । वह मेरे सुख दुख का साथी है ,सहचर है । प्रेम मोहब्बत और विश्वास के साथ हम एक संग हैं । छठ पूजा की शुरुआत के दिन यानी 24 तारीख को उन्होंने एक पोस्ट लिखा था सवाल के साथ. उस सवाल के जवाब में जिस तरह उनका चरित्र हनन तक हुआ, उसके बाद कई लोग उनके समर्थन में सामने आये और उनके सवाल को सही ठहराया. परंपरा के नाम पर जिस तरह एक महिला पर अंकुश लगाया जाता है उसके विरोध में कई लोग मैत्रेयी पुष्पा के साथ नजर आ रहे हैं.

साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने छठ पूजा की परंपरा पर उठाये सवाल, सोशल मीडिया में हो गयीं ट्रोल

Hemlata Mahishwar लिखती है- मैं भी बहुत पारंपरिक और संस्कृति को मान्यता देने वाली ही रही थी. सिंदूर, चूड़ी, बिंदी, बिछिया, व्रत, भगवान तमाम कर्मकांड मैंने भी किये. मैं स्वीकार करती हूं और इस स्वीकारोक्ति में मुझे कोई संकोच नहीं.
पर जैसे ही मेरा वास्ता चेतना, मानवता से होने लगा तो ‘ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान’ के रास्ते भयंकर क़िस्म की द्वंद्वात्मक स्थिति निर्मित हुई. और इस द्वंद्व ने मुझे आष्टांगिक मार्ग को साधने में सहायता दी. मैं तमाम धर्माधारित छद्मों से मुक्त हुई.
बगैर चूड़ी, बिंदी, सिंदूर के भी मेरा दांपत्य जीवन बहुत खूब चल रहा है. इन ढकोसलों के साथ जीने के लिए मुझे प्रकृति पूजा का बहाना नहीं लेना पड़ता.
मैं और मेरा पति – हम दोनों ही अपने संबंधों के निर्वाह के लिए भौतिक आडम्बर या संकुचित सी भावना का सहारा नहीं लेते. प्यार आता है तो प्यार कर लेते हैं, ग़ुस्सा आता है तो ग़ुस्सा. मैं मुक्त हुई दिखावे से.
Himanshu Kumar ने लिखा -सिन्दूर पर अभी मेरी मेरी बेटी से बात हुई. उसने कहा अगर कोई महिला का पति उससे सिन्दूर लगाने को कहता है तो वह गुलामी है. अगर वह अपनी मर्जी से सिन्दूर लगाती है तो वह उसकी अपनी पसंद है. मैंने कहा कि क्या वजह है कि हिन्दू औरत को ही सिन्दूर पसंद आता है. और मुसलमान औरत को बुरका पसंद आता है. मुसलमान औरत को सिन्दूर पसंद क्यों नहीं आता ? और हिन्दू औरत को बुरका पसंद क्यों नहीं आता ?
असल में इसे ही मानसिक गुलामी कहा जाता है,इसे ही कंडीशनींग कहा जाता है, इसमें आप कुछ चीज़ों को अच्छा और कुछ चीज़ों से नफरत करने लगते हैं
अलग अलग देशों में अलग अलग चीज़ों या आदतों को अच्छा
और दुसरे देश में उन्हीं बातों को बुरा कहते हैं. इसी तरह एक मजहब में एक बात को अच्छा और दुसरे में बुरा कहने लगते हैं. पाक नापाक हराम हलाल पवित्र अपवित्र शुभ अशुभ बचपन से दिमाग में बैठा दिए जाते हैं. संस्कृति, परम्परा महानता के नाम पर अतार्किक बेवकूफियां पीढ़ियां ढोती रहती हैं. लोग उन पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करते. और आप इन कंडीशनिंग और संस्कारों को मज़हब और संस्कारों के नाम पर कंधे पर लेकर ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं. आपके डर, आपके सोचने की सीमाएं तक आपकी यह दिमागी कंडीशनिंग तय कर देती है. दुनिया के ज्यादातर लोग खुल कर इस लिए ही नहीं सोच पाते क्योंकि उनकी सोच पर यही बंदिशें डाल दी जाती हैं. सोचो क्या कर रहे हो ? क्यों कर रहे हो ? किसी बात को पसंद क्यों कर रहे हो ? किसी बात से नफरत क्यों कर रहे हो ? बहुत सारी नफरतों और डर से आज़ाद हो जाओगे.
मैत्रेयी पुष्पा ना सिर्फ वरिष्ठ लेखिका हैं, बल्कि वह सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने नारी अधिकारों की रक्षा के लिए काफी प्रयास किया है. उनके लेखन में भी यह बात झलकती है. पढ़ें उनकी एक कहानी ‘मुस्कराती औरतें’ का अंश जिसमें उन्होंने स्त्री अधिकारों की पुरजोर वकालत की है.
-मुस्कराती औरतें-
‘बेपरवाह यौवन’ ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तसवीर अखबार में छपी है. अखबार गांव में आया. प्रधान के चबूतरे पर लोग देख रहे हैं. कह रहे हैं स्वर में स्वर मिलाकर आवारा लड़कियां. मेरे सामने बरसों पुराना यह दृश्य है.
आवारा लड़कियों की ले-दे हो रही थी. आवारा लड़कियों को पता न था कि आवारा कैसे हुआ जाता है? मुरली ने अपनी मां से पूछ लिया कि हम आवारा कैसे हुए. मां ने मुंह से नहीं, मुरली की चोटी को झटके दे-देकर बताया था और बीच-बीच में थप्पड़ मारे थे, कहा था भींगकर तसवीर खचाने वाली लड़कियां आवारा नहीं हुईं तो क्या सती सावित्री हुईं?
मुरली जरा ढीठ किस्म की लड़की थी क्योंकि अकसर ऐसा कुछ कर जाती, जिसकी सजा पिटाई के रूप से कम न होती. अपनी धृष्टता को बरकरार रखते हुए बोली, न भीगते तो हम सती सावित्री हो जाते. तुम हमें मुरली न कहतीं, सती या सावित्री कहतीं? जवाब देती है, चोरी और सीनाजोरी कहते हुए मां ने अबकी बार मुरली को अपनी जूती से पीटा क्योंकि उनके हाथों में चोट आ गई थी. मुरली के सिर से किसी के हाथ टकराएं और जख्मी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है?
अम्मां, सलौनी और चंदा भी तो भीगी थीं. बरसात हो तो गांव में कौन नहीं भीग जाता? सबके पास तो छाता होता नहीं है. फिर लड़कियों को तो छाता मिलता भी नहीं.मुरली मार खाकर रोई नहीं, बहस करने लगी.
मां ने अबकी बार अपने माथे पर हथेली मारी, विलाप के स्वर में बोली,करमजली, तू भइया का छाता ले लेती. बहुत होता मेरा लाल भीगता चला आता. ज्यादा से ज्यादा होता तो उसे जुकाम हो जाता, बुखार आ जाता पर तेरी बदनामी तो अखबार के जरिए दुनिया-जहान में जाएगी. भीगकर फोटू खिंचाई, बाप की मूंछों को आग लगा दी. हाय, जिसकी बेटी बदफैल हो जाए, उससे ज्यादा अभागा कौन? अम्मां ने मुंह पर पल्ला डाल लिया और मुरली अपने खींचे गए बेतरतीब बालों को खोलकर कंघी से सुलझाने लगी.
सामने भइया आ गया, तेरह साल की मुरली अपनी तंदुरुस्ती में भइया की पंद्रहवर्षीय अवस्था से ज्यादा विकसित, ज्यादा मजबूत और ज्यादा उठान शरीर की थी. भाई से बोली-तू भीगता, तेरी फोटू कोई खींच लेता, अखबार में छाप देता, तू आवारा न हो जाता. छाता इसीलिए साथ रखता है.
भइया माता-पिता के अपमान को अपनी तौहीन समझ रहा है, मुरली को पता न था. जब उसने कहा-मैं लड़का हूं सो मर्द हूं. मेरी फोटू कोई कैसे खींचता? खींचकर करता भी क्या? कोई उसे क्यों देखता? सब लोग तेरी और रेनू की फोटू देख रहे थे आंखें फाड़-फाड़कर और फिर आवारा कहकर एक दूसरे को आंख मार रहे थे. मुझसे सहन नहीं हुआ, मैं भाग आया…. पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें.

मैत्रेयी पुष्पा की कहानी ‘मुस्कराती औरतें’ का अंश

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