विमलेश शर्मा की अनूठी कविता ‘देह-विदेह’
विमलेश शर्मा, अजमेर,राजस्थान की रहने वाली है. इनकी पहचान एक आलोचक एवं लेखिका के रूप में है. इनकी आलोचना पर कमलेश्वर के कथा साहित्य में मध्यवर्ग पुस्तक प्रकाशित. अनेक समाचार पत्रों और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएं एवं लेख प्रकाशित. नियमित लेखन एवं साहित्य के अध्ययन में गहन रूचि. वर्तमान में यूजीसी द्वारा दलित साहित्य […]
विमलेश शर्मा, अजमेर,राजस्थान की रहने वाली है. इनकी पहचान एक आलोचक एवं लेखिका के रूप में है. इनकी आलोचना पर कमलेश्वर के कथा साहित्य में मध्यवर्ग पुस्तक प्रकाशित.
अनेक समाचार पत्रों और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएं एवं लेख प्रकाशित. नियमित लेखन एवं साहित्य के अध्ययन में गहन रूचि. वर्तमान में यूजीसी द्वारा दलित साहित्य की एक परियोजना पर शोध कार्य संपन्न. संप्रति- सहायक आचार्य ,हिंदी विभाग, राजकीय कन्या महाविद्यालय अजमेर.
संपर्क-9414777259,
vimlesh27@gmail.com
देह-विदेह-1
रात के आंचल में
जाने कितने पैबंद बदे हैं!
किसी आंख ने उन्हें देह पर पड़े छाले कहा
तो किसी पथिक ने उजास देख
कहा सितारे उन्हें
और यूंही
किसी ने बुद-बुद जुगनू!
रात हंस दी
आसमां ताकती हुई.
करवट बदल-बदल
धरित्री के एक हिस्से पर दिन उगा देख
उंगलियों में आंचल फांस
वह दक्षिण की ओर चुप चल देती है.
पीछे कोई अनहद गूंजता था अविराम
मानो बूझ रहा हो
कि देह भीतर आत्मा यूंही जगमगाती है !
लेखिका कृष्णा सोबती को मिलेगा वर्ष 2017 का ज्ञानपीठ पुरस्कार
देह-विदेह-2
मेरे लौट जाने पर
जब खोजोगे मुझे
कुछ नहीं होगा वहां , होंगे तो बस्स!
संदूकची में क़रीने से तह किए कुछ शब्द
जिन्हें यह जानते हुए रख छोड़ा था कि
कुछ लिक्खा नितांत अपना होता है!
तुम कुछ नमी ओढ़ भूल जाओगे उन्हें
समय की करवटों में
जैसे मैं भूल गयी थी
चौथे दरज़े में लिखी परियों वाली कविता
और हॉस्टल के वो लास्ट यीअर नोट्स!
जानती हूं
कभी चांदनी में डूबे
कभी कार्तिक में नहाए
तो कभी जेठ की दोपहरी में पके ये शब्द
महज़ रोशनाई ही होंगे तुम्हारे लिए
तुम्हें ये आख़र आखरी ही नज़र आयेंगे
पर ये ही तो थे मिरे हमसफ़र
आख़िर तक!
सुनो! उस सैलाब में उतरते वक़्त
चीनी दाब लेना दांतों में
कुछ तेल मल लेना दुधिया अपनी हथेली पर
मैं जानती हूं तुम्हारी देह ख़ुश्क हो जाती है जल्द ही.
और वहां केवल उदासियों का खारा समंदर है!
पनीले धुंधलके से लड़ते हुए तुम ग़ौर करना
वहां मिलेंगी तुम्हें
रात चांदनी ,
बरसती बारिशें ,
और नेपथ्य में
बेआवाज़ टूटता मौन!
मैं यह सब कह तो रही हूं पर मुझे अंदेशा है,
कि तुम मौन की उस लिपि को पढ़ भी पाओगे
कि तुम इस चौखट तक उस क्षण आ भी पाओगे….?
आखिर कैसा समय है यह?
हम आखिर कैसे समय में हैं
एक बुझौवल है जो पूछता है हम इतिहास हैं कि हैं वर्तमान?
यह समय कितना कठोर है जब उदासी से अधिक
किसी चेहरे की टिमटिमाती हंसी भी हमें उदास कर जाती है
हम पूरे अधिकार से किसी जीवनप्रमेय पर
गणित के सूत्र बिठाते हैं
और मन माने तरह से उसे हल कर कह देते हैं
इतिसिद्धम्!
दरअसल! हम पौरूषहीन लोग हैं
जो घूमते हैं बस अपने इर्द-गिर्द
जिन्हें भय है कि कोई ओर हमसे बेहतर ना कर जाये
सीधी-साधी सड़क को घुमावदार बताना
हमारी इसी बरसों पुरानी आदत का ही तो नतीज़ा है.
कभी-कभी कुछ हाथ जुड़ कर
हमदर्द , हमकदम भी यहां बनते हैं
और हमारा उदार नज़रिया
उनकी पाकीज़गी को भी नज़र की सलीब पर टांग देता है
यह सब करते हुए
दूजे के लिए गुंजलक बनते हुए
हम भूल जाते हैं
कि आईने में यह जो तस्वीर है
उसकी नहीं, हमारी है
और हम अबोध बालक से कह उठते हैं बार-बार कि
आखिर कैसे समय में जी रहें हैं हम!
भोर-बाती
रात देहरी पर एक दिया जलता रहा
और खिड़की पर दो पलकें देर तक टिमटिमाती रहीं
जुगनुओं की सतरंगी लड़ियों में जाने वे
कौनसा चटक रंग खोज रही थीं
रात यूं तो चुप थी
पर उल्लास उसके आंचल पर रातरानी सा गमक रहा था
कैसा अजूबा है यह दुनिया, अमावस की रात चटक रोशनी बरसे
तो उसे लोग दीपावली कहते हैं
पर उसी रात सावन बरसे तो…..क्या नाम देंगे उसे?
शुभ अशुभ के संकेत
जो देहरियों पर देर तक ठिठके रहते हैं
सुबह जाने कौन बुहार उन्हें अपनी झोली में डाल लेता है
रात यूं ही उड़ते देखा कई कंदीलों को जलते हुए
आसमां हंसता है, पर जो जलता है वो धुआं – धुआं दर्द भी तो सहता है…!
अनसुलझी लड़ियां उलझती हैं कुछ आंखों में
आखिर क्यों? कोई आंख में टिके रहे तो दीवाली
और आंख मूंद चल दे तो, उत्सवों पर भी
गोवर्धन से दर्द ठहर जाते हैं
मां की सीख पर
एक मुराद बांधती हूं चौखट पर
बुझे दिये फिर जलाती हूं रात के अंतिम पहर
जब कईं थकी ख़ुश आंखें सपनीले सफर पर होती हैं
ताकि गुजरते हुए सप्तऋषि जरा देर ठहर
फीकी उदासियों को रख लें अपने जादुई झोले में
और उन्हीं आंखों में चमकीला ख़ुश लाल सूरज उगा जायें
जो रात चांदनी बन यहां – वहां बूंद-बूंद बरसा था !
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बात बीती विभावरी की
रीतते चांद की जम्हाई में
एक जादुई कालीन
नींद की आगोश में खिलता है
जागती सोती आंखों में
बुदबुद चंद ख़्वाब
हाथ भर की दूरी पर नजर आते हैं
भोर एक चटक के साथ
खींच लाती है
उस दुनिया से जहां सुकून पसरा था
आत्मा फिर हर्फ़ दर हर्फ़ जुटती है
सहेजती है
आवाज़ और शब्द खनक की तीव्रता
पर कोई पूछ लेता है क्यों है
चांद पर
कजली नदियों के निशां
प्रत्युत्तर में बुझा मन मौन को चुनता है
यूं ही सखी! एक दिन बाहर उगता है
और एक भीतर अवसान लेता है!