खुद से जूझती एक औरत की कहानी ‘मालती’
-रश्मि शर्मा- रात के ग्यारह बज रहे थे. जोर-जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आयी. ‘ खोल दरवाजा, मेरे घर से मुझे ही निकालेगा. तू समझता क्या है अपनेआप को’. दरवाजे की भड़भड़ के साथ गालियों की बौछार जारी थी. पर दरवाजा नहीं खुला. थक हार कर वो बाहर ही बैठ गई. उसकी बड़बड़ाहट की […]
-रश्मि शर्मा-
रात के ग्यारह बज रहे थे. जोर-जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आयी. ‘ खोल दरवाजा, मेरे घर से मुझे ही निकालेगा. तू समझता क्या है अपनेआप को’. दरवाजे की भड़भड़ के साथ गालियों की बौछार जारी थी. पर दरवाजा नहीं खुला. थक हार कर वो बाहर ही बैठ गई. उसकी बड़बड़ाहट की आवाज तेज हो गई थी- ‘क्या चाहते हैं सब. एक तो भरी जवानी में छोड़ गया वो, अब आग लगती है तो बुझाऊं भी नहीं. इन्हीं लोगों पर कर दूं जीवन कुर्बान. क्या मेरा कुछ नहीं ‘.
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उसकी ये सब बातें सुनकर मुहल्ले की जमा भीड़ छंटने लगी. औरतें तिर्यक मुस्कान देकर अपने-अपने आदमियों को इशारा कर घर के अंदर जाने लगीं. यह सब पीछे की बस्ती की बात है, यहां की आबादी बहुत ज्यादा है. गरीब-गुरबे अपने छोटे-छोटे घर बनाकर, या किराए में रहते हैं. सभी निम्न मध्यमवर्गीय लोग हैं. इनकी अपनी जिंदगी है, अपनी कहानी है.
यह औरत, जिसका नाम मालती है, इसे इसके ही बेटे ने घर से निकाल दिया. दो बेटे और एक बेटी है. जवान और खूबसूरत औरत है. मालती का अपना काम है. वह ‘डोर टू डोर’ जाकर सामान बेचती है, जिससे उसका घर चलता है. वह कहने को शादीशुदा है पर उसका पति लापता हो गया है. छह बरस बीत गये. बच्चों की जिम्मेदारी संभालती है और काम करती है. जब उसके पति यहां थे तभी उनका एक दोस्त था-मंजीत. घर आना-जाना था. हंसी-मजाक का रिश्ता था. ऐसे में पति जब घर से अचानक लापता हो गये तो मंजीत का सहारा जाने-अनजाने ले लिया उसने. घर के छोटे-बड़े काम, बच्चों की स्कूल की समस्याएं और खुद मालती के कई काम थे, जिसमें मंजीत सहारा बन बैठा. ऐसे भी अकेली औरत का समाज में रहना बहुत मुश्किल है और उसे अपने काम से लौटने में भी कभी देर हो जाती. तब जरूरत के समय बच्चों को भी संभाल देता था मंजीत. ऐसे में कब वो अंतरंग हो गए पता ही नहीं चला. अब जब बच्चे बड़े हो गए हैं तो उनकी आंखों में खटकने लगा.
उसी दिन की बात है. शाम को थककर वह घर आयी. पीछे-पीछे मंजीत आ गया ढूंढते. देर रात हो गई थी. खाना खाकर वहीं सो गया वो. पहले-पहल पति के गुम हो जाने के बाद घर जरूरत के वक्त ही आता था. कभी मन हुआ तो बाहर ही मिलते थे वो लोग. पर हजार झंझट हैं छोटे शहर के. इसलिए अब घर पर ही बुला लेती मालती उसे. सब साथ खाते-पीते और फिर बच्चों को सुलाकर देर रात तक मालती उसके साथ रहती. तीनों बच्चे इस बात को नापंसद करते थे मगर छोटे होने के कारण कुछ कह नहीं पाते.
बड़ा बेटा अब 17 बरस का हो गया.उसे ये अच्छा नहीं लगता. एक दिन विरोध किया, कहा- ‘अंकल यहां क्यों आते हैं. हमें अच्छा नहीं लगता. मना कर दो आने से’. मालती अपना दुख अपनी सहेली चंपा से कहती है- ‘भरी जवानी में आदमी छोड़ गया. कई काम है जो बिना आदमी के पूरे नहीं होते. क्या करूं’.
चंपा ने समझाया – ‘बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन्हें ये बर्दाश्त नहीं होगा. बात बिगड़ जाए या तुम्हारे बच्चे बिगड़ जाए, इससे पहले तुम संभल जाओ. अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा’. मालती ने कहा- ‘कहां जाऊं, ये समझते क्यों नहीं कि इनके बाप की जगह ये ही आदमी है. दिन भर थकी रहती हूं काम करके. थोड़ा हंस बोल लेती हूं, तो इन्हें क्या तकलीफ़ होती है’.
चंपा ने फिर समझाने की कोशिश की. कहा-‘बच्चे अभी कोरे कागज से हैं, गलत प्रभाव पड़ा और कदम बिगड़ गये तो बाद में रोओगी. इससे अच्छा है शादी कर ले. ‘वो इसके लिए तैयार नहीं’, मालती ने बताया. मंजीत भी शादीशुदा है और उसका परिवार गांव में रहता है. उसे छोड़ना नहीं चाहता.
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परिस्थितियों को मालती ने थोड़ा तो समझा और घर में मंजीत का आना कम किया. कम से कम अब वो रात नहीं रूकता था. बच्चे भी संतुष्ट हो चले थे. अब मालती मंजीत के साथ कभी-कभी देर रात बाहर रहती. वो लोग घूमते-फिरते, फिल्म जाते. लौटते देर हो जाती. उसके दो बच्चे तो छोटे थे मगर बड़ा सब समझता था. उस दिन मना करने पर भी देर से आयी उसकी मां तो उसने दरवाजा ही नहीं खोला.
मजबूर होकर मालती अपनी सहेली चंपा के घर गई और रात वहीं गुजारी. मालती अपनी शारीरिक, मानसिक और कई जगहों पर आर्थिक जरूरतों से बंधी हुई कसमसा रही थी तो उधर उसे बच्चे दीवार बन रहे थे. वह समझ नहीं पा रही थी दोनों में संतुलन कैसे बिठाए जाए कि एक दिन गजब हो गया.
वो रविवार का दिन था. मालती काम खत्म कर घर आ गई थी जल्दी ही. उसने रात का खाना तैयार किया और दोनों बच्चों को खिला दिया. बड़ा बेटा बंटी अब तक नहीं आया था. रात के नौ बज गए थे. वह सोच रही थी कि बेटा आए तो उसके संग खाकर सोएगी. थकी हुई थी. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. बेटा था साथ में उसकी एक फ्रेंड. लड़की की उम्र भी लगभग 17-18 की होगी. उसने मिलाया मां से और कहा कि ‘आज यहीं रहेगी ये’. मां ने कहा ठीक है. दोनों को खाना खिला दिया. लड़की से थोड़ी बातचीत की और बेटे से कहा वो आज उसके साथ सो जाए और अपना कमरा उस लड़की को सोने के लिए दे दे.
बेटे ने एक बार मां का चेहरा गौर से देखा, फिर बात मान गया. सोने के कुछ घंटे बाद उसकी नींद खुली तो उसने पाया कि बेटा कमरे में नहीं है. आशंका से उसका दिल धड़कने लगा। उठकर देखा तो पाया उस लड़की के कमरे में है बेटा. उसने आवाज लगाई. ‘बेटा बंटी’…वह आ गया. बोला ‘नींद नहीं आ रही थी इसलिए हम बातें कर रहे थे’ .
मालती ने कुछ नहीं कहा। बोला-‘सो जाओ देर हो रही है. सुबह बातें कर लेना. और उसने आपनी आंखे बंद कर ली. मगर उसे नींद नहीं आ रही थी. उसकी सहेली चंपा की कही बातें उसके आगे घूमने लगी। उसे लगने लगा कि उसका ये कदम वाकई बच्चों को बर्बाद कर देगा.
थोड़ी देर के बाद उसे महसूस हुआ कि चुपचाप उठकर जा रहा है बेटा. लाइट बंद थी. हल्की हंसी की आवाज और फुसफुसाहट आने लगी बगल कमरे से. मालती आंखें मींचे बिस्तर पर पड़ी रही और बगल कमरे से आती आवाजें उसके कानों में पिघले सीसे की तरह उतरती रहीं. वो मजबूर थी. कुछ कहने या रोकने की हिम्मत नहीं थी उसकी. बहुत बिंदास होकर उसने दो दिन पहले ही बेटे के सामने कहा था- ‘आग लगती है बदन में’. अब वही आग उसके अपने बेटे के बदन में लगी थी और मालती प्रत्यक्षदर्शी थी.
स्वतंत्र पत्रकार व लेखिका
रांची, झारखंड
मेल- rashmiarashmi@gmail.com