बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति की एक प्रासंगिक कविता ‘कवि मर गया’…
कल हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण की मृत्यु हो गयी. उनकी रचनाएं कालजयी हैं, लेकिन उनके अंतिम संस्कार में गिनती के लोग पहुंचे. एक कालजयी कवि के प्रति समाज की यह उपेक्षा पीड़ा देती है. अकसर यह देखा गया है कि कवियों की रचनाएं तो बहुत प्रसिद्ध हो जाती हैं लेकिन कवि आजीवन […]
कल हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण की मृत्यु हो गयी. उनकी रचनाएं कालजयी हैं, लेकिन उनके अंतिम संस्कार में गिनती के लोग पहुंचे. एक कालजयी कवि के प्रति समाज की यह उपेक्षा पीड़ा देती है. अकसर यह देखा गया है कि कवियों की रचनाएं तो बहुत प्रसिद्ध हो जाती हैं लेकिन कवि आजीवन आर्थिक रूप से कमजोर रहता है. महाकवि निराला से लेकर हरिवंश राय बच्चन तक हमें ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं. क्या समाज को शब्दों से समृद्ध करने वाले एक साहित्यकार की ऐसी दशा होनी चाहिए? कुछ ऐसे ही सवाल और पीड़ा को बयान कर रही है बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति की यह रचना:-
कवि मर गया…
कवि मर गया,
लोग नहीं जुटे,
जीवन भर उसकी कविताएं पढ़ते रहे,
इधर -उधर से,
अखबारों में,
कतरनों में,
चिथड़ों में,
कभी खरीदने का सोचा नहीं.
गर खरीद लेते,
तो वो कवि भूखा नहीं मरता,
चिथड़े नहीं ओढ़ता,
बच्चे उसके दुत्कारे नहीं जाते
कवि ने अपने जीवन में
सरस्वती को हारते देखा,
लक्ष्मी के आगे
और साथ ही अपने अभिमान को,
स्वाभिमान को बिखरते देखा
कवि मर गया,
और उसके साथ
मर गया उसका आत्म विश्वास
उसका यकीन….