डॉ धर्मवीर भारती : हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरूष

-प्रकाश हिंदुस्तानी- मुंबई के बांद्रा पूर्व स्थित कला नगर के एक चौराहे का नामकरण हाल ही में डॉ. धर्मवीर भारती के नाम पर किया गया. डॉ. धर्मवीर भारती कला नगर की ही साहित्य सहवास बिल्डिंग में रहते थे. कला नगर में ही बाल ठाकरे का निवास मातोश्री भी है, लेकिन चौराहे का नामकरण डॉ. भारती […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 25, 2017 12:16 PM
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-प्रकाश हिंदुस्तानी-

मुंबई के बांद्रा पूर्व स्थित कला नगर के एक चौराहे का नामकरण हाल ही में डॉ. धर्मवीर भारती के नाम पर किया गया. डॉ. धर्मवीर भारती कला नगर की ही साहित्य सहवास बिल्डिंग में रहते थे. कला नगर में ही बाल ठाकरे का निवास मातोश्री भी है, लेकिन चौराहे का नामकरण डॉ. भारती के नाम पर होना उनके प्रति मुंबई का सम्मान दर्शाता है. डॉ. धर्मवीर भारती भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरूषों में से हैं. इससे बढ़कर वे साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं. हिंदी पत्रकारिता में उन्होंने ‘धर्मयुग’ जैसी सांस्कृतिक पत्रिका को स्थापित किया और ढाई दशक से भी ज्यादा समय तक शीर्ष पर बनाए रखा. मुझे याद है 1981-82 के वे साल, जब विज्ञापन दाता धर्मयुग में विज्ञापन बुक करने के लिए लंबी लाइन में लगते थे. हाल यह था कि दीपावली विशेषांक में तो साल भर पहले ही विज्ञापन बुक हो जाते थे.
‘धर्मयुग’ के लिए उन्होंने अपना सबकुछ न्यौछावर कर रखा था. यहां तक कि अपनी साहित्य सेवा भी. वे ‘धर्मयुग’ ही ओढ़ते, बिछाते, खाते, पहनते थे. उनका हर पल ‘धर्मयुगमय’ था. साहित्यकार और संपादक होने के बावजूद डॉ धर्मवीर भारती की छवि एक सैडिस्ट की ही रही. उन्होंने अपने किसी भी जूनियर को कभी आगे नहीं आने दिया. वे ऐसे हालात पैदा कर देते थे कि संपादकीय सहयोगी तो क्या, क्लेरिकल स्टॉफ तक उनसे खौफ खाता था. पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से ज्यादा उन्हें बैनेट, कोलमैन एण्ड कंपनी के पैसों की चिंता होती थी.

योगेंद्रकुमार लल्ला, सुरेन्द्रप्रताप सिंह, उदयन शर्मा, कन्हैयालाल नंदन, रवीन्द्र कालिया, मनमोहनसरल, गणेश मंत्री, विश्वनाथ सचदेव, सतीश वर्मा… आदि दर्जनों नाम है, जो बेहद कामयाब संपादक साबित हुए, लेकिन इन सभी को प्रताड़ित करने का कोई मौका शायद ही भारतीजी ने छोडा हो. रवींद्र कालिया ने तो धर्मयुग छोड़ने के बाद ‘काला रजिस्टर’ नामक उपन्यास भी लिखा था, जिसमें ‘हाजिरी रजिस्टर’ पर लेट आने वालों के दस्तखत को लेकर प्रताड़ित किए जाते थे. डॉ. धर्मवीर भारती की पहली पत्नी कांता भारती ने तलाक के बाद वैवाहिक जीवन की मुश्किलों पर एक उपन्यास ‘रेत की मछली’ भी लिखा है. माना जाता है कि यह उनकी पीडाओं और अनुभूतियों की प्रस्तुति है.

25 दिसम्बर 1926 को जन्मे डॉ. धर्मवीर भारती ने कवि, लेखक, नाटककार और सामाजिक चिंतक के रूप में ख्याति पायी. ‘गुनाहों का देवता’ उनका क्लासिक उपन्यास है. उन्हीं की रचना ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर श्याम बेनेगल ने फिल्म बनाई थी, जिसे 1992 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. महाभारत युद्ध के बाद की घटनाओं पर उनका नाटक ‘अंधा युग’ दुनियाभर में मंचित हो चुका है.
20 साल की उम्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हिन्दी में सबसे अधिक नंबर लाने वाले धर्मवीर भारती को ‘चिन्तामणि घोष’ अवार्ड मिला था. उन्हें पद्मश्री, भारत भारती सम्मान, संगीत नाटक अकादमी के अलावा केडिया न्यास का एक लाख रुपए का पुरस्कार भी मिला था. केडिया न्यास के संयोजकों पर लोगों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या में षडयंत्रकारी होने का आरोप भी लगाया था, लेकिन भारतीजी ने उसे नकार दिया और पुरस्कार ग्रहण किया. डॉ. धर्मवीर भारती की उल्लेखनीय कृतियों में देशान्तर, ठण्डा लोहा, सपना अभी भी, कनुप्रिया, टूटा पहिया, उपलब्धि, उत्तर नहीं हक्तँ, उदास तुम, तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कडी… आदि प्रमुख है. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दिनों में उनकी कविता ‘मुनादी’ ने धूम मचाई थी. 1971 के भारत-पाक युद्ध में वे खुद मोर्चे पर रिपोर्टिंग के लिए गए थे.
धर्मयुग में प्रधान संपादक रहने वाले डॉ. भारती धर्मयुग से रिटायर होने के बाद कलानगर स्थित ‘साहित्य रहवास’ नामक भवन में ही रहते थे. वर्षों बाद जब मैं उनसे मिलने गया था, तब उनका बेटा किंशुक अमेरिका में नौकरी कर रहा था. उनकी बिटिया प्रत्रा ने कुछ समय इलेस्ट्रेडेड वीकली ऑफ इण्डिया में सब एडिटर का काम किया था और विवाह के बाद बांद्रा में ही रह रही थीं. इतने बरस बाद भी डॉ. भारती ने मुझे याद रखा था और घर पर ही सस्नेह भोजन कराया था. दिल के धोखा देने से सितम्बर 1997 में लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया. एक अज्ञात सी मौत थी वह. जनाने में बामुश्किल 20-25 लोग थे, लेकिन शमशान घाट पर हजारों लोग वहां आए थे- और उनमें से ज्यादातर वे थे जो जनाने में शामिल अमिताभ बच्चन को देखना चाहते थे. 1960 में धर्मयुग में आने के बाद 1997 तक वे कभी भी इलाहाबाद नहीं गए. 37 साल बाद अंततः 1997 में उनकी अस्थियां ही इलाहाबाद संगम में विसर्जित की गयी.
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